Aug 8, 2011

‘रोडीज़’ के तीन नालायक़


रोडी बनने के लिए माँ-बहन की गालियाँ सुनाना ज़रूरी है। जैसे कि वे हर दूसरे मिनट में प्रतियोगियों की माँ और बहन के लिए निकालते हैं और बीप-बीप करके हमें उन गालियों का अहसास कराया जाता है...

इन्द्रजीत आजाद  

रघु, राजीव और रणविजय। सुने हैं आपने ये तीन नाम? चैनल बदलते वक़्त यदि दो टकलों के बीच में एक बालों वाला इन्सान आपको दिख जाए, तो समझिए यही हैं वे तीन नालायक़। बहुत सोचा कि इतने छिछोरे लोगों के बारे में लिखकर समय बर्बाद करूँ या नहीं।


फिर देखा, आजकल के युवाओं को उनके शो में जाने के लिए गिड़गिड़ाते हुए तो सोचा चलो, एक छोटा सा प्रयास करूँ। जो इन महानुभावों को नहीं जानते हैं, उनके लिए बता दूँ कि इनके नाम पर न जाएँ। ये बिलकुल भी रघु, रणविजय या राजीव जैसे व्यक्तित्व नहीं रखते हैं। ये एक रियलिटी शो का आठवाँ संस्करण बना रहें है, MTV रोडीज़ आठ।

रोडी बनने की पात्रताएँ है...
  • रोडी बनने के लिए माँ-बहन की गालियाँ सुनाना ज़रूरी है। जैसे कि वे हर दूसरे मिनट में प्रतियोगियों की माँ और बहन के लिए निकालते हैं और बीप-बीप करके हमें उन गालियों का अहसास कराया जाता है।
  • आपको समलैंगिकता (गे) को मान्यता देनी होगी। ऐसा ये टकले कई बार कहते सुने गए हैं कि समलैंगिकता सही है और प्रतियोगी द्वारा विरोध करने पर उन्हें गालियाँ मिलती हैं।
  • आपको भारतीय संस्कृति के बारे में कुछ भी बोलने का अधिकार नहीं है, क्योंकि अगर आपने भारत या भारत की संस्कृति की बात की, तो आप संस्कृति के ठेकेदार कहकर बाहर निकाल दिए जाएँगे।
ज़्यादा लम्बी लिस्ट नहीं लिखूँगा, सिर्फ़ इन्ही पंक्तियों को आधार बनाता हूँ। आज तक हमने अपनी इज़्ज़त व देश की ख़ातिर गोलियाँ खाना सीखा है। अब रोडी बनिए और अपनी माँ-बहन की गालियाँ सुनिए। मतलब, अब हमारे यहाँ बेहया बनाए जाएँगे, जिनकी माँ-बहनों की इज़्ज़त MTV के ये टकले स्टूडियो में नीलाम करेंगे और हमारे देश के कर्णधार सर झुकाकर अपनी माँ-बहनों को इनके सामने रख देंगे, क्योंकि उन्हें  रोडी जो बनना है।

आगे भी वो जो कुछ बनेंगे वो होगा समलैंगिक बनना, क्योंकि समलैंगिकता को मान्यता तो रोडीज़ के जज ही दे रहें है। रोडीज़ स्कूल के बच्चे तो उनका अनुसरण ही करेंगे और भारतीय संस्कृति को तो MTV के कूड़ेदान में ही डाल देंगे।


 वैसे भी भारतीय संस्कृति विवेकानंद, रानी लक्ष्मीबाई, भगत सिंह और समर्थ रामदास पैदा करती है, बेहया माँ-बहनों की इज़्ज़त नीलाम करने वाले रोडीज़ नहीं। दुःख ये है कि  हमारी नयी युवा पीढ़ी के कुछ लोग क़तारबद्ध होकर कातर दृष्टि से इनके सामने दुम हिलाते रहते हैं। अब रोडी टाइप युवाओं से एक अपील है, ''मेरे बंधुओ! बेहयाई छोड़ो, देश के लिए गोली खाने का माद्दा रखो, गली नहीं । इन टकलों से माँ बहन की गाली खाने का नहीं। विवेकानंद बनो, भगत सिंह बनो, रामदास बनो। और अगर ये नहीं बन सकते तो इन्सान बनो,  बीमार नहीं।'

भारत में रैगिंग का इतिहास पुराना

रैगिंग का सबसे भयावह रूप हॉस्टल रैगिंग में दिखाई देता है। हॉस्टल रैगिंग के दौरान छात्रों को नंगे बदन नाचने से लेकर अपना पेशाब पीने तक के लिए मजबूर किया जाता है... 

 आशीष वशिष्ठ 


देशभर में हर वर्ष बोर्ड परीक्षाओं के नतीजे निकलते ही शिक्षण संस्थानों में प्रवेश के लिए नए छात्र-छा़त्राओं की भीड़ उमड़ पड़ती है। स्कूल के अनुशासित माहौल से निकलकर इन छात्रों में जहां एक ओर कालेजों में आने की ख़ुशी  होती है, वहीं दूसरी तरफ एक अपरिचित वातावरण से ये भयभीत भी रहते हैं। पिछले कुछ वर्षों में रैगिंग नाम का हव्वा सभी छोटे-बड़े शिक्षण संस्थानों को अपने जाल में जकड़ चुका है।

प्रोफेशनल पाठयक्रम वाले संस्थानों मेडिकल, इंजीनियरिंग, तकनीकी शिक्षा एवं मैनजमेंट कालेज में रैगिंग की घटनाएं अधिक होती हैं। सीनियर छात्र नये छात्रों को तंग करना अपना संवैधानिक अधिकार समझते हैं। ड्रेस कोड, अश्लील-फूहड़ मजाक, दिअर्थी शब्दावली का प्रयोग और वार्तालाप, ऊटपटांग हरकतें, किसी अनजान लडकी को प्रोपोज करना, नशे की हालत में ड्राइविंग के लिए मजबूर करना, हास्टल रैगिंग आदि रैगिंग के घिनौने रूप हैं। नया सत्र शुरू होते ही अगर आपको कालेज जाने का अवसर मिले तो सीनियर और जूनियर को पहचानने में  ज्यादा मशक्कत नहीं करनी होगी।

रैगिंग का सबसे भयावह रूप हॉस्टल रैगिंग में दिखाई देता है। हॉस्टल रैगिंग के दौरान छात्रों को नंगे बदन नाचने से लेकर अपना पेशाब पीने तक के लिए मजबूर किया जाता है। इन प्रताड़नाओं से बचने के लिए अक्सर छात्रों को मजबूरन हास्टल छोड़ने पड़ता है। कड़ी मेहनत और अभिभावकों के अथक प्रयासों के बाद ही किसी अच्छे संस्थान में दाखिला मिल पाता है, लेकिन सारे प्रयासों और मेहनत पर तब पानी फिर जाता है जब रैगिंग रूपी दानव से घबराकर छात्र पढ़ाई छोड़ देते हैं या फिर रैगिंग के चलते अपनी जान गंवा देते हैं।

गौरतलब है कि रैगिंग के ज्यादातर मामले प्रोफेशनल कोर्सेज वाले शिक्षा संस्थानों के होते हैं, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि दूसरे शिक्षण संस्थान इस बीमारी से मुक्त है। देश के लगभग हर छोटे-बड़े कालेज औरशिक्षा संस्थान में किसी न किसी रूप में रैगिंग देखने को मिल ही जाती है। अपवादस्वरूप कुछ संस्थानों में रैगिंग न के बराबर है, लेकिन ऐसे संस्थानों की गिनती नाममात्र की है। रैगिंग का डरावना रूप ये सोचने को मजबूर करता है कि आखिरकर छात्र शिक्षा के मंदिरों में पढ़ने के लिए आते है या फिर शारीरिक व मानसिक शोषण और प्रताडना के लिए?

भारत में रैगिंग का इतिहास डेढ़ सौ से दो सौ वर्ष पुराना है। रैगिंग का जन्म यूरोपीय देशों में हुआ था। अमेरिकी अंग्रेजी में इसका अर्थ 'मजाक' है। रैगिंग मुख्यतः सेना में की जाती थी, जहां जूनियर को सीनियर की दासता, अंधभक्ति सिखाने के लिए ऐसा करना पड़ता था। रैगिंग के जरिए सीनियर के गलत कार्यों पर भी जूनियर द्वारा प्रश्न विरोध करने की क्षमता को समाप्त किया जाता था, ताकि वे अंग्रेज राज के अंधभक्त, सोच-समझ और विद्रोही स्वभाव न रखने वाला एक आज्ञाकारी गुलाम सैनिक बन सके। सेना से ये प्रथा पब्लिक स्कूलों, विश्वविद्यालयों, मेडिकल, इंजीनियरिंग और तकनीकी शिक्षण संस्थानों में घुसपैठ कर गई। सातवें दशक में विश्वविद्यालयों की धड़ाघड़ स्थापना होते वक्त ही रैगिंग भारत में प्रचलित हुई। गौरतलब यह है कि विश्व में भारत और श्रीलंका को छोड़कर किसी दूसरे देश में रैगिंग की प्रथा चलन में नहीं है।

शिक्षा संस्थानों तथा हॉस्टलों के बाहर 'रैगिंग प्रतिबंधित है' के बोर्ड लगे रहते हैं। कालेज प्रशासन अनेक बार रैगिंग करने वाले छात्रों को दंडित भी करता है, लेकिन कानून को ताकपर रखकर ये ‘मजाक’ या ‘बदसलूकी’ जारी है। मानसिक एवं  शारीरिक कष्ट का दौर हर नया सत्र शुरू होते ही जारी रहती है। नये छात्र डर के मारे किसी से शिकायत भी नहीं करते हैं। अधिक मजबूर होने पर वह पढ़ाई ही छोड़ देते हैं।  
होता तो यह है कि आज जो छात्र ये ‘मजाक’ अपमान और बदसलूकी सह रहे हैं, वह भी अपना गुस्सा अगली बार निकालने की सोचते हैं, जिससे ये बीमारी रूक नहीं पाती है। सीनियर छात्रों को तो अपने अनुभव, ज्ञान के आधार पर नये छात्रों की हरसंभव सहायता करनी चाहिए। जूनियरों को उचित दिशा-निर्देश और मार्गदर्शन प्रदान करना चाहिए, पर हो बिल्कुल उलटा ही रहा है। अगर सीनियर उनकी उनकी सहायता के स्थान पर उनकी समस्याओं ही बढाएंगे तो वह जूनियरों के घृणा के पात्र ही बनेंगे। कई शिक्षा संस्थानों ने समितियों, कार्यदलों तथा सामाजिक संगठन बनाकर इसका विरोध किया, लेकिन वांछित परिणाम नहीं मिल पाये। आज के सीनियर जूनियर की नजर में भक्षक, जालिम, अत्याचारी, और बिगड़े हुए वे युवा हैं जो किसी अन्य को कष्ट में पड़ा देखकर ही प्रसन्न होते हैं।

रैगिंग रोकने लिये सुझाव देने के लिये सर्वोच्च न्यायालय ने सीबीआई के पूर्व निदेशक आरके राघवन की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया था। राघवन समिति की सिफारिशों के आधार पर रैगिंग की रोकथाम के लिए सुप्रीम कोर्ट ने 10 फरवरी 2009 को सभी शिक्षा संस्थानों को दिशा-निर्देश जारी किये थे। सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों का ध्यान में रखते हुए यूजीसी ने भी रैगिंग को रेाकने के लिए ताजा मसौदा तैयार किये हैं। यूजीसी के इस प्रयास में एआईसीटीई, आईआईटी, आईआईएम और अन्य शिक्षा संस्थान एवं परिषदें भी शामिल हैं।

सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों के तहत विभिन्न राज्यों ने भी रैगिंग की रोकथाम के लिए एक्ट बनाये हैं। केरल में रैगिंग एक्ट के तहत हुई कार्रवाई में स्पेशल कोर्ट ने रैगिंग के आरोपी मेडिकल कालेज के दो छात्रों को दस साल सश्रम कारावास की सजा सुनाई है। सरकारी प्रयासों के अलावा कर्इ्र गैर सरकारी संगठन भी रैगिंग रूपी बीमारी को मिटाने की दिशा में प्रयासरत है। ऐसे ही एक गैर सरकारी संगठन ‘कोईलेशन टू अपरूट रैगिंग फ्रॉम एजुकेशन’ (सीयूआरई) ने रैगिंग के विरोध में अलख जगाई है। हजारों छात्र इस संगठन के सदस्य हैं और संगठन की वेबसाइट पर रैगिंग से संबंधित हर छोटी बड़ी जानकारी और प्रमुख हादसों का ब्यौरा उपलब्ध है।

इस दिशा में अभिभावकों की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। कालेज स्तर पर परिचय के नाम पर होने वाली रैगिंग को रोकने के लिए परिचय मिलन समारोह आयोजित किये जाने चाहिए। इस कार्य में सीनियर छात्रों और छात्र संगठनों का सहयोग भी लिया जा सकता है। स्वयं छात्रों को भी आगे आकर इस संबंध में ठोस और कारगर कदम उठाने होंगे। ये बीमारी या क्रूर प्रथा तभी समाप्त होगी जब तथाकथित परिचय के नाम पर होने वाली रैगिंग में छात्र खुद भाग लेना बंद करेंगे तथा रैगिंग में शामिल होने वाले छात्रों का सामाजिक बहिष्कार एवं विरोध करेंगे।

वहीं यूजीसी और मान्यता प्रदान करने वाली दूसरी संस्थाओं को भी उन शिक्षण संस्थानों पर कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए, जो अपने यहां रैगिंग रोकने में नाकाम रहे हों। असल में यहां सवाल केवल एक मासूम जिंदगी का न होकर देश के स्वर्णिम भविष्य का भी है। छात्र रूपी भविष्य को सुरक्षित रखना हम सब की नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारी है। वरना कल-आज-कल की परंपरा की सजीव संस्थाएं शिक्षा और ज्ञान के केंद्रों के स्थान पर कसाईघर बन जायेंगे, जहां घुसने से पूर्व नये छात्र कई बार सोचा करेंगे।


स्वतंत्र पत्रकार और राजनीतिक- सामाजिक मसलों के टिप्पणीकार.

Aug 7, 2011

हिन्दू कट्टरपंथियों से प्रभावित है इसाई हत्यारा


ओस्लो में 80 मासूमों का हत्यारा  ब्रेविक, भारत में सक्रिय आक्रामक तथा सांप्रदायिक हिंदुत्ववादी शक्तियों से बहुत प्रभावित है। गुजरात दंगे तथा मुस्लिम अल्पसंख्यकों पर देश में होने वाले हमले और  राज्य सरकार द्वारा प्रायोजित दंगे उसके प्रेरणा हैं...

तनवीर जाफरी                                                                        

दुर्भाग्य कहें या सौभाग्य अतिवादी विचारधारा के प्रसार की त्रासदी किसी एक देश या समुदाय तक सीमित नहीं  है ।  इस समस्या का दंश दुनिया के कई प्रमुख एवं विश्व की बड़ी जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करने वाले ईसाई,मुस्लिम, हिंदू,सिख और यहूदी जैसे समुदाय झेल रहे हैं।

इसका ताज़ा उदाहरण नार्वे की राजधानी ओस्लो में देखने को मिला.  22 जुलाई को एंडर्स बेरिंग ब्रेविक नामक एक कट्टरपंथी ईसाई युवक ने  80 से अधिक आम लोगों की गोलियों से सामूहिक रूप से हत्या कर दी । मारे गए  लोग ओस्लो लेबर  पार्टी से जुड़े  थे और वे एक मीटिंग में शामिल थे. यह ईसाई युवक वैचारिक रूप से कट्टरपंथी ईसाई विचारधारा रखने वाला और इसका  विश्वास बहु संस्कृतिवाद में नहीं है और वह  इस व्यवस्था का विरोधी है।


ईसाईयत को जीवन मानने  वाला यह व्यक्ति ईसा मसीह के अमन,शांति, प्रेम, सहयोग व परस्पर भाईचारा जैसे बताए गए मौलिक ईसाई सिद्धांतों को मानने के बजाए बहुसंस्कृतिवाद के विरोध में ही अपने परचम को बुलंद करने में अधिक विश्वास रखता है। उसके प्रेरणास्त्रोत ईसा मसीह अथवा ईसाईयत की वास्तविक राह पर चलने वाले वे लोग कतई नहीं हैं जो विश्व शांति की बातें करते हैं तथा सहिष्णुशीलता के साथ रहना पसंद करते हैं।

यही वजह है कि ब्रेविक ने अपने 1500 पृष्ठ के घोषणापत्र में 102 पृष्ठों में केवल भारत का ही उल्लेख किया है। ब्रेविक भारत में सक्रिय आक्रामक तथा सांप्रदायिक हिंदुत्ववादी शक्तियों से बहुत प्रभावित है। गुजरात दंगे तथा मुस्लिम अल्पसंख्यकों पर देश में होने वाले हमले अथवा राज्य सरकार द्वारा प्रायोजित दंगे उसके लिए कौतूहल का विषय हैं। वह अतिवादी हिंदुत्ववादियों के संघर्ष में अपना सहयोग भी देना चाहता है। तथा इन सांप्रदायिक ताकतों को सामरिक सहयोग भी देना चाहता है।

स्वयं को सच्चा ईसाई बताने वाला यह व्यक्ति अपने मिशन को इंतेहा तक पहुंचाने के लिए आतंकवादी गतिविधियों को विश्वव्यापी स्तर तक चलाने, इस मकसद के लिए पूरे विश्व में युद्ध छेडऩे यहां तक कि व्यापक विनाश के हथियारों के प्रयोग तक के हौसले रखता है।

आखिर  कुछ न कुछ सफेदपोश लोग तो मानवता विरोधी विचारधारा के प्रचारक व प्रसारक ऐसे हैं जिन्होंने एक नवयुवक को इतना ज़हरीला इंसान बना दिया जिसके विचार इस कद्र विध्वंसक बन गए। इसी प्रकार इस्लाम धर्म में भी तमाम ऐसे तथाकथित रहनुमा मिल जाएंगे जो इस्लाम को कभी ईसाईयत से कभी यहुदियों से तो कभी हिंदुओं से सबसे बड़ा खतरा बताकर इन समुदायों के लोगों के विरुद्ध संघर्ष छेडऩे की पुरज़ोर वकालत करते हैं।

ओसामा बिन लाडेन,एमन अल जवाहिरी,मुल्ला उमर,अज़हर मसूद,हाफिज़ सईद आदि उन्हीं इस्लामी स्वयंभू ठेकेदारों में से हैं। इसी प्रकार भारत में भी आरएसएस व विश्व हिंदु परिषद द्वारा प्रेरित असीमानंद,प्रज्ञा ठाकुर व कर्नल पुरोहित आदि भी उसी श्रेणी के लोग हैं जो धर्म के नाम पर अपने समुदाय के लोगों को इस हद तक वरगला देते हैं कि उनके अनुयायी किसी न किसी लालच,भय तथा कथित धर्म प्रेम के चलते किसी की भी जान लेने पर आमादा हो जाते हैं।

परिणामस्वरूप कभी भारत में 6 दिसंबर 1992 जैसी बाबरी मस्जिद विध्वंस की घटना घटती है तो कभी गोधरा व गुजरात जैसे हिंसक सांप्रदायिक दंगे हो जाते हैं। कभी मक्का मस्जिद,अजमेर धमाके,मालेगांव व समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट की घटनाएं घटित होती हैं। कभी किसी एक ऐसी ही अतिवादी मानसिकता के जि़म्मेदार व्यक्ति की वजह से पुलिस सेना तथा प्रशासनिक व्यवस्था तक बदनाम हो जाती है।

और तो और अतिवादी विचारधारा कभी-कभी किसी शासक को उस हद तक भी ले जा सकती है जबकि उसके संरक्षण में समुदाय विशेष के लोगों का सामूहिक नरसंहार हो जाए। भारत के गुजरात राज्य के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी फरवरी 2002 से कुछ ऐसे ही आरोपों से घिरे हुए हैं। परंतु उन्हें अपनी विचारधारा व अपनी पक्षपातपूर्ण करनी पर अ$फसोस या ग्लानि नहीं बल्कि गर्व महसूस होता है।

 पिछले दिनों भारत में ही एक नेता रूपी स$फेदपोश व्यक्ति सुब्रमणयम स्वामी ने भी समाचार पत्र में प्रकाशित अपने एक आलेख के द्वारा ज़हरीले विचारों की अभिव्यकित कर डाली। हार्वर्ड विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के अध्यापक स्वामी का मत है कि भारत में रहने वाले जो मुसलमान अपने पूर्वजों को हिंदू नहीं मानते उनके मताधिकार समाप्त कर देने चाहिए।

देश के धर्मनिरपेक्ष ढांचे को झकझोर कर रख देने वाली 6 दिसंबर 1992 की बाबरी मस्जिद विध्वंस की घटना जिसने भारत में हिंदुओं व मुसलमानों के मध्य दरार पैदा कर दी, स्वामी उस दुर्भाग्यपूर्ण हादसे के समर्थक हैं। वे भी हिंदुत्ववादी शक्तियों के सुर से अपना सुर मिलाते हुए इस्लामी आतंकवाद को ही भारत की सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बता रहे हैं।

परमवीर चक्र विजेता वीर अब्दुल हमीद,अबुल कलाम आज़ाद,भारत रत्न एपीजे अब्दुल कलाम, डा० ज़ाकिर हुसैन,तथा वर्तमान उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी के देश भारतवर्ष में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में असहिष्णुता तथा वैमनस्यपूर्ण विचारधारा के प्रचार का यह स्तर किसी साधारण व्यक्ति का नहीं बल्कि भारत के एक जाने-माने विवादित राजनेता सुब्रमणयम स्वामी का है।

यह और बात है कि हार्वर्ड विश्वविद्यालय के छात्रों,पूर्व छात्रों, शिक्षकों तथा वहां पढऩे वाले बच्चों के अभिभावकों तक ने सुब्रमणयम स्वामी को हार्वर्ड विश्वविद्यालय से बर्खास्त करने तथा  विश्वविद्यालय का संबंध उनसे तोड़ लेने व उनसे डिग्री वापस लेने तक की मांग कर दी है।

दरअसल ऐसे ही लोग सांप्रदायिकता,नफरत, विद्वेष तथा समाज को समुदाय के नाम पर विभाजित करने के सबसे बड़े जि़म्मेदार हैं तथा आतंकवाद को बढ़ाने में इनकी  भूमिका आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देने वाले लोगों से कहीं बड़ी व महत्वपूर्ण है। लिहाज़ा ज़रूरत है मानवता को बचाने के लिए ऐसी प्रदूषित विचारधारा के लोगों पर लगाम लगाने की।  

     
                                                                             

Aug 6, 2011

बन्दरनामा


हिमांशु कुमार

 (इस रचना के सभी पात्र वास्तविक हैं )

एक जंगल था ! उसमें  अनेकों वृक्ष थे, उनमें  से एक वृक्ष काफी पुराना था ! इस वृक्ष की ऊंची और फलदार शाखाओं पर कई ऊँची जाति के बंदरों का कब्ज़ा था ! और ये बन्दर अपने इस कब्ज़े को जायज़ बताने के लिए धर्म परम्परा और इतिहास का हवाला देते थे ! दूसरी कुछ ऊंची फलदार शाखों पर कुछ दुसरे बंदरों का कब्ज़ा था ! और उनका दावा था कि  उन्होंने किसी ख़ास भाषा की कुछ किताबें पढ ली हैं, इसलिये उन्हें  फलदार शाखों  पर कब्जे का संवैधानिक  अधिकार है !

इस तरह थोड़े  से बंदरों  ने इस पेड़  की सारी उंची और फलदार शाखों  पर कब्जा कर लिया था और बाकी के सारे बंदर पेड़   के नीचे ही बैठे रहते थे ! नीचे के बंदर कई पीढ़ियों से नीचे भूखे बैठे बैठे कमज़ोर और बेआवाज़ हो गए थे ! नीचे के बंदरों का काम था पेड़ की जड़ों में पानी डालना और सफाई करना ! ऊपर के बन्दर ताज़े फल खा जाते थे और खूब मोटे हो गए थे ! ऊपर के बन्दर स्वयं को सभ्य और नीचे के बंदरों को नीच ज़ात और कम बुद्धि मानते थे !

पेड़ के ऊपर रहने वाले बन्दर नीचे ज़मीन वाले बंदरों को धार्मिक उपदेश भी देते थे ! वे उन्हें बताते थे कि तुम इसलिए नीचे हो क्योंकि पिछले जन्म में तुमने पाप किये थे ! और अगर इस जन्म में तुम इस पेड़ के ऊपर रहने वालों की और इस पेड़ की सेवा करोगे तो अगले जनम में तुम्हे भी फलदार डाल पर बैठने और और भरपेट फल खाने का मौका मिलेगा !

ऊपर के बंदरों ने नीचे के बंदरों को पेड़ के ऊपर चढ़ने से रोकने के लिए ज़मीन के ही कुछ बंदरों को लालच दिया की अगर वे नीचे के बंदरों को पेड़ पर चढ़ने से रोकेंगे तो उन्हें भी कुछ फल खाने के लिए दिए जायेंगे और तुम्हें सेना और पुलिस के सम्मानजनक नाम से पुकारा जायेगा ! भूखे बंदरों में से कुछ बंदरों ने फटाफट प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और वे मोटे- मोटे डंडे लेकर पेड़ की जड़ों के चारों तरफ पहरा देने लगे !

गाँधी नामक एक बन्दर ऊपर से नीचे उतर कर आया और उसने कहा कि अगर हम संगठित होकर इस पेड़ की जड़ में पानी डालने से असहयोग कर दें  तो ये मोटे बन्दर भी ऊपर के फल हमसे बांटने को मजबूर हो जायेंगे ! इसके अलावा हम नीचे ही मिल कर इतने फल पैदा करने लगे कि  हमें ऊपर के फलों की ज़रुरत ही ना रहे! और ऊपर के बन्दर अपने को नीचे के बंदरो का ट्रस्टी समझें !

पर किसी ऊपरी बन्दर ने खुद को नीचे के बन्दर का ट्रस्टी नहीं समझा और इसी बीच एक बड़ी जात के बन्दर गाँधी बन्दर को मार दिया ! एक दूसरा बन्दर जिसका नाम नेहरु था उसने कहा कि ऐसा करते हैं हम ऊपर के बन्दर नीचे के बंदरों का भी ख्याल रखेंगे ! हम कुछ फल ऊपर से नीचे गिरा देंगे और इसे हम ट्रिकल डाउन विकास कहेंगे ! परन्तु किसी भी बन्दर ने अपने फल नीचे नहीं गिराए!

एक बार एक बन्दर के दिमाग में आया कि सभी बंदरों को तो प्रकृति ने सामान पैदा किया है फिर हम सबको पेड़ के फल बराबर क्यों नहीं मिलते ? उसने कमज़ोर बंदरों को जमा किया और कहा कि तुम लोग मिलकर इस पेड़ की जड़ खोद दो ! हम इस पेड़ को गिरा देंगे ! इसके बाद हम एक नया पेड़ लगायेंगे ! उस नए पेड़ पर कमजोरों का राज होगा और उसमे सब को बराबर फल खाने को मिलेंगे !

उनकी ये बातें सुनकर ऊपर की डालियों पर बैठे बंदरों में खलबली मच गयी और वो चिल्लाने लगे की ये नीचे के बन्दर कमुनिस्ट हो गए हैं , देखो ये नक्सलवादी बन गए हैं ये पेड़ विरोधी हैं, ये फलों के विकास में बाधक हैं ! इधर नीचे के बंदरों में असंतोष बढ़ता जा रहा था ! नीचे के बंदरों ने पेड़ की जड़ के चारों ओर पहरा देने वाले सिपाही बंदरों को मारना शुरू कर दिया ! इसी बीच ऊपर के कुछ बन्दर सामान बंदराधिकार की बातें करने लगे ! ऊपर के सारे मोटे बन्दर इस सामान बंदराधिकार की बातों से घबरा गए और उन्होंने इन बन्दाराधिकरवादियों   को नीचे के नक्सली बंदरो का एजेंट घोषित कर दिया और उन्हें पेड़ से नीचे गिरा दिया!

कुछ बंदरों ने अपने एनजीओ बना लिए और उन्होंने ऊपर के बंदरों को समझाया कि  अगर आप नीचे के बंदरो के लिए हमें कुछ फल अनुदान के रूप में दे दें तो हम इन फलों को नीचे के बंदरों में बाँट देते हैं ! इससे नीचे के बंदरों में आपके प्रति क्रोध कम होगा और वो जो बन्दर मिल कर पेड़ की जड़ खोद रहे है उन्हें हम उधर से हटा देते हैं और पेड़ के प्रति पेड़ भक्ति पैदा कर देंगे !

ऊपर के कुछ बन्दर सबको ख़बरें  देने का काम करने लगे और वो खुद को मीडिया कहते थे, पर अक्सर वे पेड़ के ऊपर रहने वाले बंदरों के मतलब की ही ख़बरें देते थे ! नीचे के बंदरों की या तो ये मीडिया बन्दर अवहेलना करते थे या उनके विरुद्ध खबरें फैलाते थे !

ऊपर के बंदरों ने जब देखा कि नीचे के बहुत से बन्दर ऊपर के खिलाफ हो गए हैं तो उन्होंने नीचे के बंदरों को शांत करने के लिए विशेष आर्थिक पॅकेज की घोषणा की ! परन्तु वो आर्थिक पॅकेज फल नीचे लेकर जाने का काम पेड़ की जड़ की रक्षा करने का काम करने वाले पुलिस बंदरों को ही दे दिया ! ये पुलिस बन्दर तो पहले से ही नीचे के बंदरों से चिढ़े बैठे थे, इसलिए उन्होंने गरीब बंदरों को शांत करने के लिए भेजे गए सारे फल खुद ही मिल कर खा लिए !

इसी बीच एक बन्दर कहने लगा की हम पेड़ के ऊपर रहने वाले बन्दर पेड़ के सारे फलों को इमानदारी से बाँट कर खायेंगे और हम पेड़ के ऊपर रहने वाले बन्दर फलों के बंटवारे में कोई भ्रष्टाचार ना करें इसके लिए हम एक लोकपाल बनायेंगे ! इस पर नीचे से कुछ बन्दर चिल्लाने लगे कि ये बन्दर नीचे के बंदरों के बारे में तो कोई बात ही नहीं कर रहा है, इसलिए ये तो बस ऊपर के बंदरों का आन्दोलन है !

अब ऊपर के बंदरों को समझ ही नहीं आ रहा था की वे अपने पेड़ के ऊपर बने रहने और सारे फल खाने के विशेषधिकार को कैसे बनाये रखें ! उधर जंगल के मिस्र नामक पेड़ व उस जैसे कुछ अन्य पेड़ों से खबरे आने लगी कि  वहां नीचे के बंदरों ने पूरे पेड़ पर कब्ज़ा कर लिया है...!



सामाजिक कार्यकर्त्ता हिमांशु कुमार का संघर्ष ,  बदलाव और सुधार की गुंजाईश चाहने वालों के लिए एक मिसाल है.





धरने का सोलहवां साल

मास्टर विजय सिंह के धरने का असर है कि अब तक 3200बीघे कृषि भूमि व अन्य सम्पत्ति पर विभिन्न जाँचों में घोटाला साबित हो चुका है,राजनीतिक दबाव व भ्रष्टाचार के कारण जाँच धीमी गति से जारी है... 

संजीव कुमार 

भ्रष्टाचार के विरूद्ध एवं गरीबों की मदद हेतु जनहित में शुरू किये गये धरने को 15 वर्ष पूरे हो चुके हैं। माँग है कि गाँव की 4000बीघा सार्वजनिक कृषि भूमि व अन्य सार्वजनिक सम्पत्ति को भूमाफियाओं से मुक्त कराकर गरीबों में बाँट दिया जाये.15वर्षों से लगातार जारी यह धरना लिमका बुक में दर्ज हो गया,जिसका प्रमाण पत्र मास्टर विजय सिंह को प्रदान कर दिया गया।

उनचास वर्ष के मास्टर विजय सिंह एक स्कूल अध्यापक थे, लेकिन इनमें यह परिवर्तन  एक आदमी को जूस का वेस्ट खाते देख और  एक भूखा बच्चा अपनी माँ को कह रहा था कि माँ किसी से आटा ले आ,शाम को तो रोटी बना लें। इन दोनों भूखों की घटना ने मास्टर विजय सिंह को झकझोर कर रख दिया और उनके जीवन की दिशा ही बदल दी।

इन्होंने अपनी मास्टरी से इस्तीफा देकर अपने गाँव चौसाना की 4575 बीघा कृषि भूमि व अन्य लोक सम्पत्ति पर शोध किया तो इन्होंने पाया कि 4000बीघा भूमि भूमाफियाओं के गैरकानूनी कब्जे में है। इन्होंने देश,प्रदेश तथा जिले के समस्त पदाधिकारियों को शिकायत पत्र देकर इस प्रकरण की सी.बी.आई. द्वारा जाँच कराने व उक्त सम्पत्ति को मुक्त करा, गरीबों व दलितों में बांटने की मांग की, परन्तु सरकार ने कोई कार्यवाही नहीं की।

मास्टर विजय सिंह 26 फरवरी, 1996 को गाँधीवादी अहिंसात्मक ढंग से जनपद मुजफ्फरनगर, उ0प्र0 के जिलाधिकारी कार्यालय कलेक्ट्रेट परिसर में धरना प्रारम्भ किया। धरने के पश्चात् आई.जी.सी.बी.आई.डी., अपर जिलाधिकारी प्रशासन व अपर जिलाधिकारी (वित्त एवं राजस्व) जिला व अन्य जाँचे हुई जिनमें इनके आरोपों को सही पाया तथा जिला प्रशासन व सी.बी.सी.आई.डी.ने 136 मुकद्मे दर्ज कराये तथा पूर्व प्रमुख सचिव गृह के आदेश पर लगभग 300 बीघा जमीन भूमाफियाओं के कब्जे से मुक्त कराई तथा 81,000 रुपये दण्ड स्वरूप वसूल कर राजकोष में जमा कराये।

अब तक 3200बीघे कृषि भूमि व अन्य सम्पत्ति पर विभिन्न जाँचों में घोटाला साबित हो चुका है, राजनीतिक दबाव व भ्रष्टाचार के कारण जाँच धीमी गति से जारी है। यह सार्वजनिक सम्पत्ति पूर्व विधायक के परिवार व अन्य भूमाफियाओं ने भ्रष्ट राजस्व अधिकारियों की मिलीभगत से अवैध रूप से हड़पी थी। यह भूमि गाँव के गरीब, दलित, बेरोजगार, भूमिहीनों को आवंटित होनी थी।

यदि जाँच होकर उक्त सार्वजनिक भूमि गाँव के गरीबों में बाँट दी जाये तो चौसाना गाँव संसार का एक ऐसा मॉडल गाँव होगा जहाँ पर कोई भूखा, बेरोजगार, गरीब नहीं होगा। इन 15सालों के दौरान भ्रष्ट अधिकारियों की मिलीभगत से मुझ पर व मेरे परिवार पर तथा मेरे समर्थकों पर अनेक हमले हुए तथा झूठे मुकद्मे दर्ज हुए। इनके एक साथी धीर सिंह,हरिजन को पेड़ पर फांसी देकर के मार दिया गया।

धरनारत विजय सिंह : लिम्का रिकार्ड्स दिखाते हुए   
इनका घर जला दिया गया। मास्टर विजय सिंह असुरक्षा और आर्थिक तंगी के कारण अपने 136 मुकद्मों की पेरोकारी नहीं कर पा रहे है। जिला प्रशासन ने गृह सचिव के आदेश के बावजूद मेरी सुरक्षा वापस ले ली गई। मेरा आय का कोई साधन नहीं रहा,आर्थिक स्थिति अति खराब है। कुछ साथियों व मीडिया के सहयोग से मेरा धरना जारी है। माफियाओं ने मुझे आन्दोलन से हटाने के लिए धमकियां,हमले तथा समस्त जमीन का 10 प्रतिशत देने का प्रलोभन दिया, परन्तु इन्होंने स्वीकार नहीं किया।

मास्टर विजय सिंह जिलाधिकारी कार्यालय के बरामदे में 24 घन्टे धरनारत् है। उत्पीड़न व हमलों व झूठे मुकद्मों के कारण इनके परिवार तथा साथियों ने इनका साथ छोड़ दिया है। इस भ्रष्टाचार के विरूद्ध आन्दोलन में एक ओर तो धनी, राजनीतिक,भ्रष्टाचारी व शक्तिशाली भूमाफिया है तो दूसरी ओर मास्टर विजय सिंह जो गाँधीवादी अहिंसात्मक सिद्धान्तों के साथ इस भ्रष्टाचार विरोधी लड़ाई को लड़ रहा है ताकि उन भूखे,गरीबों व दलितों को दो वक्त की रोटी के लिए मोहताज न होना पड़े तथा लोकसम्पत्ति का जनहित में सदुपयोग हो सके। राष्ट्रीय रिकार्ड 2011 में लिमका बुक में यह भ्रष्टाचार विरोधी धरना आज लिमका बुक में दर्ज हो गया है।



मुंबई धमाका और एटीएस-एनआई के अंतर्विरोध

एटीएस और एनआईए में जिस तरह का अंतर्विरोध है ऐसा ही अंतर्विरोध मई 2007 मक्का मस्जिद हैदराबाद धमाकों के समय तत्कालीन गृहमंत्री शिवराज पाटिल और पुलिस के बीच था...

राजीव यादव

मुंबई में हुए बम धमाकों के बाद इसकी जांच कर रही केंद्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) और मुंबई पुलिस के आतंकवाद निरोधी दस्ते (एटीएस) के बीच उपजे विवाद ने इस मामले पर कई दृष्टिकोणों से सोचने के लिए मजबूर कर दिया है। अव्वल तो आखिर वो कौन से तथ्य थे जिनको एटीएस ने नकार दिया और एनआईए को जांच में सहयोग नहीं किया, दूसरा आखिर इन तथ्यों में क्या अंतर्विरोध क्या थे।

जुलाई 13 को मुंबई में हुए बम धमाकों के कुछ देर बाद विभिन्न संचार माध्यमों में कई प्रकार की खबरें प्रसारित र्हुइं। किसी ने कहा कि कसाब के जन्मदिन के अवसर पर यह हुआ तो कुछ पुलिस वालों के बयान आए कि इस घटना को इंडियन मुजाहिद्दीन (आईएम) ने लश्कर के सहयोग से अंजाम दिया। सबसे दिलचस्प पहलू यह रहा कि 13 जुलाई को हुए इस बम धमाके में न तो कोई मेल आया था और न ही किसी संगठन ने किसी और माध्यम से इसकी जिम्मेदारी ली थी।

पर हमारी जांच एजेंसियां जिनके अनुभव को हम मक्का मस्जिद और मालेगांव आदि में देख चुके हैं जहां पहले उन्होंने इस्लामिक आतंकवाद की फोबिया से ग्रस्त होकर मुस्लिम नौजवानों को पकड़ा पर बाद में इन घटनाओं में हिंदुत्वादी समुहों का हाथ सामने आया। उनमें अपनी इन गलतियों से सबक सीखने की मंशा नहीं दिखी और अभी भी वह आतंकवाद के मसले पर सांप्रदायिक नजिरिए से ही सोच रही है।

एटीएस और एनआईए में जिस तरह का अंतर्विरोध है ऐसा ही अंतर्विरोध मई 2007 मक्का मस्जिद हैदराबाद धमाकों के समय तत्कालीन गृहमंत्री शिवराज पाटिल और पुलिस के बीच था। जहां पाटिल ने सीबीआई जांच की संभावना व्यक्त करते हुए कहा था कि जल्दबाजी में इसे मालेगांव, मुंबई या दिल्ली की जामा मस्जिद में हुए विस्फोटों से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। अंतिम नतीजे पर पहुंचे बिना किसी पर दोषारोपण ठीक नहीं होगा। साथ ही पाटिल ने विस्फोट में विदेशी हाथ होने का नतीजा जल्दीबाजी में न निकालने की चेतावनी भी दी थी।

इस घटना में भी पुलिस और खूफिया कह रही थी कि विस्फोट में हूजी और 19 फरवरी को समझौता एक्सप्रेस में हुए धमाके में वांछित आतंकी मोहम्मद अब्दुल शाहिद उर्फ बिलाल का हाथ होने का शक है। बिलाल ने राज्य मेंसांप्रदायिक सद्भाव का माहौल बिगाड़ने के लिए इन धमाकों की साजिश रची। बिलाल लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकी संगठनों से भी जुड़ा रहा है। साथ ही इस बात को भी कहा गया कि आतंकियों ने धमाका करने के लिए सेल फोन का इस्तेमाल किया था। इस तरीके से पूर्व में लश्कर, जैश और
हरकत-उल-इसलामी जैसे आतंकी सगंठन हमला करते रहे हैं।

साइकिल, स्कूटर, मोबाइल और धमाकों के बाद ‘कचरे की तफ्तीश’ से आतंकी संगठनों का सुराग लगाने वाली हमारी आईबी के सारे हवाई तर्क कुछ ही दिनों में सबके सामने आ गए कि किन लोगों ने मक्का मस्जिद, समझौता या मालेगांव विस्फोटों को अंजाम दिया था। यहां सवाल उठता है कि आखिर बावजूद इसके क्यों सरकार और मीडिया के स्तर पर आईबी के इन कमजोर और हास्यास्पद तर्कों को इतना महत्व दिया जाता है। क्या यह सब अमरीका की इस्लामिक फोबिया को खड़ा करने की रणनीति की ही नकल है जिसके सहारे निरंतर ओसामा और अलकायदा की तरह यहां भी लश्कर-हूजी के हव्वै को खड़ा करने की कोशिश की जा रही है।

यहां बताना जरुरी होगा कि जिन दो आतंकी वारदातों, दश्वासमेध वाराणसी और जामा मस्जिद पर मिले ‘बारुद के कचरे’ को 13 जुलाई की घटना के ‘कचरों’ से मिलाकर देखा जा रहा है या फिर अंक 13 की सच्चाई पर टीवी स्क्रीनों पर ‘‘गंभीर राष्ट्रवादी विमर्ष’’ हो रहे है उसे कोई भी तार्किक आदमी गंभीरता से नहीं ले सकता। क्योंकि दश्वासमेध और जामा मस्जिद पर हुई दोनों वारदातों पर आईएम का मेल आया था, जिसकी पुलिस ने सत्यता की कोई पुष्टि भी नहीं की थी। तब ऐसे में इन घटनाओं के सहारे इंडियन मुजाहिद्दीन से जो ‘तार जोड़े’ जा रहे हैं

वो कोरी कल्पना और जनता को जांच के नाम पर गुमराह करने के प्रयास ही कहे जाएंगे। मुंबई बम धमाकों की जांच पर मुंबई आतंकवाद निरोधी दस्ते के प्रमुख राकेश मारिया के बयानों  समेत जो भी पुलिसिया बयान आ रहे हैं और जिस तरह से इंडियन मुजाहिद्दीन के नाम पर नए क्षेत्रों विशेषकर नक्सल प्रभावित क्षेत्रों को टारगेट किया जा रहा है उससे यह बात साफ है कि एक तीर से दो निशाना लगाने की कोशिश हो रही है। जिस तरह से 2007-08 में यूपी के आजमगढ़ जिले पर निशाना साधा गया था, वैसा ही प्रयोग इस बार   झारखंड में किया गया और इस बात को ले जाने की कोशिश की गई कि माओवादी इंडियन मुजाहिद्दीन के सहारे लश्कर के संपर्क में हैं।

और इस तरह से लंबे समय से लाल और हरे गलियारे के बीच संबंध होने की खूफिया विभाग की काल्पनिक थ्योरी को इस घटना के सहारे  मजबूत तर्क देने की कोशिश की गई कि माओवादी अंतराष्ट्रीय आंतकी नेटवर्क का हिस्सा हैं। उनके खिलाफ किसी सैन्य कार्यवाई को सुप्रिम कोर्ट के इन तर्कों के आधार पर नहीं खारिज किया जा सकता कि ‘राज्य अपने ही बच्चों को इस तरह नहीं मार सकता।’

जांच की इस दिशा से जाहिर होता है कि सरकार इस धमाके के दोषियों तक पहुंचने के बजाय अपने अलपसंख्यक और आदिवासी विरोधी एजेंडे को ही बढ़ाने में ज्यादा दिलचस्पी ले रही है। जिससे मुंबई और ऐसी घटनाओं में सरकार की संदिग्ध भूमिका भी शक के दायरे में आती है।



पत्रकार और पीयूसीएल उत्तर प्रदेश के संगठन सचीव.







Aug 5, 2011

आरक्षण का एक सामाजिक आधार


पिछले दिनों छपे आशीष वशिष्ठ के लेख ' आरक्षण’ के विरोध में उतरे आरक्षित'  पर प्रतिक्रिया

जेपी नरेला

जनज्वार पर प्रकाशित  आशीष वशिष्ठ  का लेख ‘आरक्षण के विरोध में उतरे आरक्षित’ पढ़ा। हमने यह फिल्म जिसकी उन्होंने चर्चा की है, तो नहीं देखी है क्योंकि यह अभी रिलीज ही नहीं हुयी है। मुझे लगता है इन्होंने भी नहीं देखी है, क्योंकि इन्होंने फिल्म की समीक्षा नहीं है, केवल आरक्षण के सवाल पर अपनी राय रख दी है। अब आरक्षण के सवाल पर जो इनकी राय है, उस पर मैं अपनी राय रख रहा हूं।

एक तौ मैं पहले यह बताना आवश्यक समझता हूं कि आरक्षण का एक सामाजिक आधार है। जब यह लागू किया गया तो उसका मतलब यह था कि भारत के जातिगत, सामाजिक विकासक्रम में निचली जातियां सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तौर पर पिछड़ गयी हैं, इसलिए इनको मुख्यधारा में लाने के लिए आरक्षण लागू किया गया था। यह दूसरी बात है कि यह एक पर्याप्त हल नहीं है, लेकिन इससे कुछ 2.3 प्रतिषत निचली जातियों के लोग ऊपर गये हैं। हां, इसको लागू करवाने में दलित आंदोलन का भी राज्य मषीनरी पर एक दबाव रहा था।

जब मैं आपका लेख पढ़ रहा था तो मैंने आपका नाम और आगे लगे टाइटल पर ध्यान नहीं दिया था। लेख को पढ़ने के क्रम में जब मुझे लगा कि यह तो आरक्षण के विरोध में लग रहा है तो मेरे दिमाग में जिज्ञासा हुयी कि लेखक है कौन? जरा नाम देखूं, तो मैं इनके नाम पर वापिस गया। फिर लगा कि यह तो वशिष्ठ यानी पंडित जी हैं, तो पंडित जी यह आपका दोष नहीं है। आपकी जाति का दोष है, यदि आप बाल्मिकी या चमार जाति के घर पैदा होते तब आपको आरक्षण का मतलब समझ में आता। अभी आपको समझ में नहीं आयेगा या फिर जो आरक्षण से लाभान्वित हुए हैं उनसे जाकर पूछिये कि आपको आरक्षण से क्या लाभ हुआ है, जिसको आप समाप्त करने की बात कर रहे हैं। आपको शायद सही उत्तर मिल जायेगा।

आप अपना इतिहास भूल गये, जिसको बनाने में ब्राह्मणों का अच्छा-खासा योगदान रहा है और अपने लिये विशेषाधिकार सुरक्षित कर लिया था कि षूद्रों का कार्य ब्राह्मणों और क्षत्रियों की सेवा करना है। उत्पादन षूद्र करेंगे और ब्राह्मण एवं क्षत्रिय हराम का खायेंगे। यह अन्याय ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने निचली जातियों के साथ सदियों तक किया है और इन्होंने इस शोषण और अत्याचार को झेला है। इनको शिक्षा से दूर रखा गया। गांव के बाहर इनको बस्तियों में रहने पर मजबूर किया। आपके घरों में मैला उठाने के बाद रोटियां आले-दिवालों में रख दी जाती थीं, ताकि भंगी वहीं से उठा लें। उनको नारकीय जीवन जीने को मजबूर किया गया। यह इतिहास आपको याद रहना चाहिए। उसी क्रम में आज वर्तमान में हम खड़े हैं और जाति व्यवस्था आज भी समाज में यानी षैक्षिक संस्थाओं, सरकारी राज्य मषीनरी, मीडिया, राजनीति में मजबूती के साथ व्याप्त है।

आपने लेख में कहा है कि पूरा देष आरक्षण को लेकर बंटा है। तो सच यह है कि देश तो सदियों से बंटा हुआ है। उस बंटे हुए को लेकर ही जो निचली जातियों की गति हुयी, उसी वजह से आरक्षण लागू हुआ। कुल भारत की लगभग 121 करोड़ की आबादी में करीब 30 प्रतिशत हिस्सा दलित समुदाय में भरता है, बाकी पिछड़ा षामिल करने से 50 फीसदी से ऊपर जाता है। मैं लगभग की बात कर रहा हूं। मेरे पास कोई एथैनटिक आंकड़ा नहीं है कि इनमें से अभी तक कितने फीसदी कुल आबादी में से लाभान्वित हुए हैं। यह तथ्य ठीक से आप जान लीजिये। हवा में बात करने से कोई नहीं मानता। दोनों ही बातें हैं लाभान्वित कुल आबादी का एक या दो प्रतिषत के लगभग लाभान्वित हुए हैं, मगर लाभान्वित हुए हैं।

आपने लिखा है कि ‘1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री बीपी सिंह ने आरक्षण के लिए मंडल आयोग की सिफारिशों का बंडल खेलकर जो नादानी की थी, उसका हश्र सारे देश को याद है....’ आगे है... ‘असल में देष के अंदरूनी ढांचे, व्यवस्था, परम्पराओं और संविधान की गति-नीतियों में जमीन-आसमान का अंतर है...’

बीवी सिंह ने जो मण्डल कमीषन लागू किया था उसका समर्थन हमने उस समय भी किया था और आज भी करते हैं। कारण मैंने ऊपर बता भी दिया है कि समाज में जब तक गैर बराबरी रहेगी, यह आरक्षण की व्यवस्था लागू रहनी चाहिए। उस समय का आरक्षण विरोधी आंदोलन एक प्रतिक्रियावादी आंदोलन था, जो समाज को पीछे ले जाने की बात कर रहा था कि जैसी स्थिति में दलित और पिछड़े हैं उसी स्थिति में बने रहने चाहिए। हमारी नौकरियों, षिक्षा में इनके लिए आरक्षण की व्यवस्था इनको हमारी बराबरी में बैठा दे रही है।

हमारा भारत की तमाम जमीन पर पुष्तैनी कब्जा है, एक इंच भी जमीन नहीं देंगे, यही मतलब था उस आंदोलन का। एक चीज तो उस आंदोलन ने पुनः उजागर कर दी थी कि भारत में जाति और जातीय भेदभाव जबर्दस्त तरीके से विद्यमान है। इसको बरकरार रखने के लिए जलकर मरना भी मंजूर है। चूंकि संपूर्ण भारतीय सिस्टम ही जाति व्यवस्था से ग्रसित है, इसलिए वीपी सिंह भारतीय राजनीति में भी इस मुद्दे की वजह से हाषिये पर धकेल दिये गये। आरक्षण की व्यवस्था के बावजूद आज भी देष में 95 फीसदी से ज्यादा पदों पर और उत्पादन के तमाम साधनों पर, स्वास्थ्य संस्थानों में, देष के तमाम संस्थानों में उच्च जाति के लोग ही काबिज हैं। मजबूर तबका ज्यादातर निचली जातियों से आता है, ऐसा क्यों?

आपने आगे लिखा है कि ‘... देष के अंदरूनी सामाजिक ढांचे, व्यवस्था, परम्पराओं और संविधान की रीति-नीतियों में जमीन आसमान का अंतर है।’ वह अंतर क्या है, यह स्पष्ट करें। फिर आगे बात होगी। आपका तात्पर्य तो आपकी भाषा से पता लग रहा है।



भ्रष्टाचार के आगे घुटने मत टेको लोगों

आम जनता जिस सीबीआई को सबसे विश्वसनीय जांच एजेंसी मानती है,उसी सीबीआई के 55अधिकारी भ्रष्टाचार और आय के ज्ञात स्रोतों से अधिक संपत्ति के व अन्य आरोपों का सामना कर रहे हैं...

संजय स्वदेश

सरकार के चतुर मंत्री पहले से ही किसी न किसी तरह से लोकपाल को कमजोर करने जुगत में थे। प्रधानमंत्री और जजों के इसके दायरे में नहीं आने के बाद भी यदि यह ईमानदारी से लागू हो तो कई बड़ी मछलियां पकड़ी जाएंगी। पर महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या लोकपाल की व्यवस्था से देश से भ्रष्टाचार मिट जाएगा। देश में और भी कई एजेंसियां इस कार्य के लिए सक्रिय हैं।

एक इकाई पुलिस की भ्रष्टाचार निरोधक शाखा भी है। जरा इसकी कार्यप्रणाली पर गौर करें। महीने में तीस कार्रवाई भी नहीं होती। इस विभाग में आने वाले अधिकारी आराम फरमाते हैं। यदि कोई शिकायत लेकर आ भी जाए तो पहले उससे पुलिसिया अंदाज में पूछताछ की जाती है। पूरे ठोस प्रमाण प्रार्थी के पास हो तो कार्रवाई होती है। नहीं तो शिकायत पर,यह विभाग कई बार भ्रष्टाचारी से मिल जाता है। उससे कुछ ले-देकर मामला रफा-दफा कर देता है।

ऐसी शिकायतें लेकर इक्के-दुक्के लोग ही आते हैं। कई मामलों में ऐसा पाया गया है कि जब कोई कोई भ्रष्टाचार पीड़ित दुखिया एसीबी के द्वार पर जाता है तो उसकी शिकायत ले कर चुपके-चुपके संबंधित विभाग से सांठगांठ कर ली गई। कई प्रकरणों में रंगे हाथ पकड़े जाने के महीनों बाद तक भी कोर्ट में चालान पेश नहीं किया गया।

इसी तरह भ्रष्टाचार पर नकेल के लिए सतर्कता आयोग भी है। पर थॉमन प्रकरण ने जाहिर कर दिया कि इस आयोग के मुखिया भ्रष्टाचार के आरोपी भी हो सकते हैं। तक क्या खाक ईमानदारी से कार्य होने की अपेक्षा होगी।

एक और बात सुनिये। आम जनता जिस सीबीआई को सबसे विश्वसनीय जांच एजेंसी मानती है, उसी सीबीआई के 55अधिकारी भ्रष्टाचार और आय के ज्ञात स्रोतों से अधिक संपत्ति के व अन्य आरोपों का सामना कर रहे हैं। यह कहने वाला कोई विपक्षी या सामाजिक कार्यकर्ता नहीं है।

इसकी जानकारी कार्मिक,लोक शिकायत और पेंशन मामलों के राज्य मंत्री वी नारायणसामी ने 4 अगस्त को संसद में थी। इन अधिकारियों में 20के खिलाफ रिश्वत और आय के ज्ञात स्रोतों से अधिक संपत्ति के आरोप हैं। जब जांच एजेंसियों की अंदरुनी हकीकत भ्रष्टाचार है,तो फिर ईमानरी के कायास कहां लगाये जायें।

भ्रष्टाचार के मामले में रंगे हाथ पकड़े जाने के बाद भी लंबी न्यायिक प्रक्रिया और उसमें से बच निकलने की संभावना भ्रष्टाचारियों के इरादे को नहीं डगमगा पाती है। यदि ऐसे मामले में एक साल के अंदर ही दोषी को सजा दे दी जाए तो जनता में विश्वास भी जगे। पर एक दूसरी हकीकत यह है कि जनता बैठे-बिठाये यह चाहती है कि देश से भ्रष्टाचार खत्म हो जाए,जो संभव नहीं है।
 
लोकतंत्र के नस-नस में भ्रष्टाचार घुलमिल गया है। सरकारी महकमे में जिनका भी काम पड़ता है, वे भ्रष्टाचार से संघर्ष के बिना सीधे घुटने टेक देते हैं। इस हार को जनता बुद्धिमानी कहती है। यह व्यवहारिक है। कौन बाबू से लड़ने झगड़ने जाए। इस सोच ने भ्रष्टाचार की जड़ें मजबूत कर दिया है।
 
यदि कोई लड़ने भी जाए तो उसके कागजों में तरह-तरह के नुस्क निकाल कर इतना प्रताड़ित किया जाता है कि वह घुटने टेकना मजबूरी हो जाती है। लिहाजा,जनता के लिए भ्रष्टाचार के सामने नतमस्तक की बेहतर विकल्प अच्छा लगता है। इस सोच के रहते भ्रष्टाचार के खत्म और सुशासन की कल्पना, कल्पना भर है। हकीकत में भ्रष्टाचार मिटाना है तो जनता के मन से भ्रष्टाचार को नमन की प्रवृत्ति मिटानी ही पड़ेगी।
 
भ्रष्टाचार के विरूद्ध परिवर्तन   की बात करने वालों को पहले जनता के मन से इस सोच को मिटाने के लिए आंदोलन चलाना चाहिए। जब तक यह सोच खत्म नहीं होगी,भ्रष्टाचार की जड़ कमजोर नहीं होगी। यदि यह बात गलत होती तो देश में भ्रष्टाचार के विरुद्ध परिवर्तन के तमाम कारण होने के बावजूद भी किसी परिवर्तन  की सुगबुगाहट नहीं है।