Oct 15, 2016

हत्या के 4 दिन बाद भी नहीं गया कोई सवर्ण झांकने

गांव में पहले भी हो चुकी एक दलित की हत्या 

नरेंद्र देव सिंह की रिपोर्ट

उत्तराखंड के बागेश्वर जिले के करडिय़ा गांव में एक दलित को सवर्ण जाति के एक व्यक्ति ने चक्की छू लेने की सजा उसकी गर्दन काट के दी। मामला सुर्खियों में आ गया। राष्टï्रीय मीडिया ने भी इसे जोर शोर से प्रसारित किया लेकिन अभी भी इस गांव के असली सच सामने नहीं आये हैं।

सोहन राम की पत्नी से बात करते बामसेफ के सदस्य

असल में हुआ क्या था
सोहन राम 5 अक्टूबर को कुंदन सिंह भंडारी की चक्की में गेहूं पिसाने गया था। एक स्कूल टीचर ललित कर्नाटक ने सोहन राम द्वारा चक्की छू लिये जाने पर उसे अपवित्र करने की बात कह कर उस पर जातिसूचक गालियों के साथ चिल्लाने लगा। ललित ने कहा, 'तूने नवरात्र में चक्की को अपवित्र कर दिया।' और इसी बात पर तैश में आकर ललित ने सोहन की दराती से गर्दन काट कर हत्या कर दी।

केस वापस लेने का दबाव
करड़िया का दौरा कर लौटे बामसेफ से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता मनोज कुमार आर्या ने बताया कि पीडि़त परिवार ही नहीं बल्कि यहां रहने वाले अन्य दलित परिवार भी भय में ही जी रहे हैं। कई बार पीडि़त परिवार को केस वापस लेने की धमकी दी गयी है। सबसे अमानवीय पहलू यह सामने आया कि सोहन की हत्या के बाद से चार दिन तक उस परिवार में कोई भी सामान्य जाति का व्यक्ति संवेदना व्यक्त करने के नाम पर झांकने तक नहीं आया।

मनोज आर्या के मुताबिक, 'जब कांग्रेस के राज्यसभा सांसद प्रदीप टम्टा इस घर में पहुंचे तब उस गांव के प्रधान ने पहली बार ​दलित परिवार के घर में कदम रखने की जहमत उठायी।'

मृतक सोहन की गर्भवती पत्नी बीना देवी कहती हैं, 'पति की हत्या के बाद परिवार को केस वापस करने की धमकी दी गयी।' बीना रोते हुए कहती हैं, 'सोहन के मरने पर मेरे घर वाले आए थे और कह रहे थे कि इस गांव के दलितों में जितना खौफ है वो कहीं और नहीं देखा।' आरोपी ललित अपनी भाभी की हत्या के मामले में भी अभियुक्त रह चुका है।

हत्या का एफआईआर 15 साल बाद भी नहीं
मृतक सोहन के परिवार के एक रिश्तेदार की भी हत्या हो चुकी है। ग्रामीणों ने बताया कि ​सोहन के रिश्तेदार इसी गांव में रहते थे और उसकी भी हत्या पन्द्रह साल पहले सवर्ण जाति के लोगों ने कर दी थी। इस मामले की आज तक एफआईआर तक दर्ज नहीं हुयी है। ऐसा बिलकुल नहीं है कि जातिवाद की ये नृशंस घटना इस गांव में हाल फिलहाल की घटना है। यह यहां का चलन है और ये हत्या उसकी पराकाष्ठा।

पंद्रह परिवार के पास दो नाली जमीन
यहां शादी ब्याहों के निमंत्रण में सवर्णों और दलितों में दूरी रहती है। अंर्तजातिय विवाह तो सोचना भी पाप है। यहां दलितों के पन्द्रह परिवार के पास केवल दो नाली (लगभग आधा बीघा) जमीन है। ये लोग सवर्णों की जमीन पर ही मजदूरी करते हैं। यहां रहने वाले दलितों का साफ कहना है कि उन्हें दिन भर मजदूरी के बाद भी कभी पचास तो कभी सौ रूपये ही थमा दिये जाते हैं। जहां तक पुलिस व्यवस्था की बात है तो वो कितनी लचर या कहें सवर्णों की गोद में बैठी है इसका पता इसी बात से चल जाता है कि इस परिवार को सुरक्षा दिये जाने का दावे पुलिस महकमा कर रहा है लेकिन पुलिस तभी आती है जब कोई नेता उस घर तक जाता है। इस गांव में लगभग जितने परिवार सवर्णों के हैं उतने ही परिवार दलितों के भी हैं। मतलब संख्याबल में दलित कम नहीं हैं लेकिन सदियों से किये जा रहे जाति प्रथा के जुल्मों ने इन्हें इतना खोखला कर दिया है कि लोग सही से मुंह तक नहीं खोल पा रहे हैं।

सीएम की मदद की हकीकत
सीएम हरीश रावत ने यहां आकर पीडि़त परिवार को 12 लाख 62 हजार रूपये की मदद देने की घोषणा की। लेकिन इसमें से 5 लाख 62 हजार रूपये समाज कल्याण विभाग इस तरह के मामले में ही पहले से ही देता है। सरकार ने इस रकम को भी सीएम की मदद में जोड़ लिया।

Oct 14, 2016

आपको याद है वह 13 वर्ष की लड़की

हिंदी में पहली बार आया जैन धर्म के पाखंड सिलसिलेवार सच
                                एक भुक्तभोगी ने लिखी है जैन धर्म के पाखंड की असल कथा
                               जानिए कैसे हुई आराधना समदरिया की मौत, कैसे है यह हत्या
श्रेणिक मुथा

अक्सर ऐसा होता है कि हमारे आस-पास हुई कोई विचलित कर देने वाली घटना हमें उससे जुड़े अपने व्यक्तिगत जीवन के अनुभवों की याद दिला देती है। आराधना समदरियाकी मौत ने मेरे लिए ऐसा ही किया। मैं अपनी कहानी को इस तरह बयाँ नहीं करना चाहता कि ये सारी बात मेरे ही इर्द-गिर्द सिमट कर रह जाए लेकिन मुझे लगता है कि इस घटना को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने के लिए ये शायद ज़रूरी होगा कि मैं ये बताऊँ कि जो कुछ भी हुआ उसे मैं किस तरीक़े से देखता हूँ और उस पर मेरी प्रतिक्रिया क्या है।

मेरे बड़े होने के दौरान मेरे साथ वो सब कुछ हुआ जो किसी भी धार्मिक जैन परिवार में होता है, ना सिर्फ़ आस्था के स्तर पर बल्कि धर्म की पालना के तौर पर भी। धर्म की इस दुनिया में मेरा प्रादुर्भाव किस तरह हुआ इसकी पड़ताल कर पाना मेरे लिए मुमकिन नहीं है क्योंकि उस वक़्त की कोई यादें मेरे पास बची नहीं है। लेकिन जो कुछ यादें बाक़ी हैंमैं उन्हीं में से कुछ को फिर से टटोलना चाहता हूँ।

जिस बिल्डिंग में मेरा बचपन बीता वहाँ सिर्फ़ मारवाड़ी जैन परिवार ही रहा करते थे। उनमें से सिर्फ़ एक मराठा था; जो कि उस बिल्डिंग का मालिक भी था। मैं जिस घर में रहताथा वो किराए पर लिया गया था और वो भी 1960 से। जब मैं अपनी यादों को टटोलने की कोशिश करता हूँ या उन बातों को याद करता हूँ जोकि अक्सर घर पर की जाती थीं तो  सा कोई भी लम्हा याद नहीं आता जिसमें कहीं भी ‘धोंडी बा’ का कभी कोई ज़िक्र हुआ हो। हमारे घर के मालिक होने के बावजूद एक अलग धर्म और जाति का होने की वजहसे हमारे घर की बात-चीतों में कहीं भी उनके लिए कोई जगह नहीं थी। हम सिर्फ़ उन्हीं लोगों के बारे में बात करते थे, उन्हें अपने घर बुलाते थे और उनके यहाँ जाना हमें पसंद थाजो हमारे ही धर्म और जाति के थे।और आज भी मेरे परिवार या समुदाय के लिए ये सब बदला नहीं है।

घर की चारदीवारी से बाहर, धर्म के साथ मेरे पहले जुड़ाव की याद तब की है जब मुझे ‘पूजा’ करने के लिए एक मंदिर ले जाया गया। जैन धर्म किसी भगवान/भगवानों में विश्वासनहीं करता, ये मुझे बहुत बाद में पता चला। लेकिन फिर भी इस धर्म में भी इसके अपने ‘भगवान’ हैं जिनकी पूजा की जाती है। मुझे नहलाया गया और नए कपड़े पहनाए गएजोकि सिर्फ़ इसी मौक़े के लिए अलग से रखे गए थे (उस दिन भी और उसके बाद हर दिन)। 

मैं ना तो इन कपड़ों को पहनकर खा सकता था और ना पेशाबघर जा सकता था क्यूँकि ऐसा करने पर ये कपड़े प्रदूषित हो जाते और मेरे बाक़ी कपड़ों की ही तरह हो जाते। ये कहना तो ज़रूरी ना होगा कि इस मंदिर में सिर्फ़ वही लोग आते और पूजा करते थेजो हमारे ही सम्प्रदाय के थे।

जब मैं कोई सात-आठ बरस का हुआ तो पर्यूशन (आठ दिन का एक उत्सव जो महावीर जयंती के दिन ख़त्म होता है) पर्व मेरे लिए पूजा करने और धर्म को समझने और अपनेअनुभव

पर्यूशन ‘चातुर्मास’ की शुरुआत के लगभग दो महीनों बाद आता है। चातुर्मास मानसून के चार महीनों के साथ पड़ता है। जैन धर्म की प्रथाएँ कोई मैकडॉनल्ड के मेन्यू से कमनहीं! एक व्यक्ति इनमें से किसी भी ‘कॉम्बो’ को चुन सकता है चातुर्मास के पालन के लिए-

दुविहार - दिन के समय जितना चाहे खा सकते हैं, लेकिन सूर्यास्त के बाद 10 बजे तक सिर्फ़ दवाई और उबला हुआ पानी ही ले सकते हैं। (कुछ जैन मुनियों के अनुसार 12 बजेतक पानी पिया जा सकता है।)

तिविहार - दिन के समय जितना चाहे खा सकते हैं लेकिन सूर्यास्त के बाद 10बजे तक सिर्फ़ उबला हुआ पानी ही पी सकते हैं।

चौविहार - दिन के समय भोजन खा सकते हैं लेकिन सूर्यास्त के बाद ना तो पानी पी सकते हैं और ना खाना खा सकते हैं।

ब्यासना - दिन में सिर्फ़ दो बार भोजन करना, सिर्फ़ उबले हुए पानी के साथ और वो भी सिर्फ़ सूर्यास्त से पहले।

एकाशना - दिन में सिर्फ़ एक बार भोजन करना, उबले हुए पानी के साथ, सूर्यास्त से पहले।

उपवास - बिलकुल भी खाना ना खाना, सिर्फ़ उबला हुआ पानी पीना वो भी सूर्यास्त से पहले तक।

चौविहार उपवास - पानी या खाने का बिलकुल भी सेवन ना करना।

अट्ठम - तीन दिन तक उपवास करना।

अट्ठाई - आठ दिनों तक उपवास करना।

15 दिनों तक उपवास करना।

मासखमन - 30 दिनों तक उपवास करना यानि कि भोजन का बिलकुल भी सेवन ना करना।

अपने परिवार के बड़ों को पूरे समर्पण से उपवास करते देख मुझे भी प्रेरणा मिली। पहले तो मैंने छोटे उपवास रखे। ज़्यादा से ज़्यादा एक ‘एकाशना’।

मुझे याद है जब मैंने पहली बार उपवास रखा तो मैं 8वीं कक्षा में था। मेरी माँ और चाची ने ‘अट्ठाई’ रखा था यानि कि आठ दिनों का उपवास। मैं ये कह सकता हूँ कि मेरा पहलाउपवास मैंने अपनी ‘मर्ज़ी’ से रखा था। ये कोई ज़्यादा मुश्किल नहीं था, बेशक रात में मुझे कई सपने आए जिनमें मिनट मेड के पल्पी ओरेंज जूस की बोतल भी शामिल थी!अगले साल मैंने आठ दिनों का उपवास रखा।

इस सब में सिर्फ़ ये समझना काफ़ी नहीं कि व्रत-उपवास रखना क्या होता है बल्कि ये भी समझना ज़रूरी है कि ये सब कैसे होता है (आख़िर क्या है जो बच्चों को ऐसे उपवासरखने को प्रेरित करता है)। यह तब मेरे ज़हन में साफ़ हो जाता है जब मैं विचार करता हूँ कि चौथी कक्षा से आठवीं कक्षा में आने के बीच मेरे साथ क्या-क्या हुआ। हमें (यानि हमारे समुदाय के बच्चों को) ‘पाठशाला’ में भेजा जाता था, हालाँकि ‘पाठशाला’ शब्द का मतलब तो विद्यालय भी होता है लेकिन यहाँ यह पाठशाला एक धार्मिक पाठशाला थी जैसे कि इस्लाम में मदरसा होता है।

मुझे (और मेरे चचेरे भाई-बहनों को) वहाँ मेरी माँ और चाची द्वारा ले जाया जाता था।पाठशाला में हमें धर्म के उपदेश दिए जाते थे। एकअच्छा जीवन जीने के लिए क्या करना चाहिए और क्या नहीं, यह बताया जाता था। 40-50 साल की एक बुज़ुर्ग महिला हमें पढ़ाती थी। मुझे वो वाक़या याद है जब हमें एक किताबसे कुछ चित्र दिखाए गए थे जिनमें इंसानों के टुकड़े करने और उन्हें तेल में सेंकने जैसी तस्वीरें थीं जोकि मूलतः ‘नरक’ का चित्रण था। 

चातुर्मास के उत्सव में एक ख़ास तरीक़े की प्रतियोगिता होती थी। । हमें एक कार्ड दिया जाता था जिस पर कई खाने बने होते थे। पहले कॉलम में कई चीज़ें लिखी होती थीं, जैसे ‘पूजा की’, ‘मंदिर गया/गयी’, ‘रात को खाना नहीं खाया’, ‘कुछ दान किया’, आदि। हममें से हर एक को उन खानों को टिक करना होता था जो काम हमने उस दिन किए। इस हर एक काम के लिए हमें ‘पोईंट’ मिलते थे और इन सबका योग करने के बाद जोफ़ाइनल स्कोर होता था उसके आधार पर हमें गिफ़्ट मिला करते थे। यह परम्परा बिना शर्म के आज भी बदस्तूर जारी है।

मैं यहाँ इतनी छोटी-छोटी बातें भी इसलिए बयान कर रहा हूँ क्यूँकि उन लोगों की बातों को झुठलाने का यही एक तरीक़ा है जो कह रहे हैं कि आराधना समदरिया की मौत एक हादसा था और उसने उपवास अपनी ‘मर्ज़ी’ से रखा था।

नहीं, ऐसा क़तई नहीं है। उसी तरह जैसे मैं और मेरे इर्द-गिर्द के हर बच्चे ने अपनी ‘मर्ज़ी’ से ऐसा नहीं किया। यह उपवास तो हमारी धर्मिकता के आधार पर मिलने वाले इनामों और उस भय का परिणाम था जो धीरे-धीरे हमारे अंदर बैठाया गया था कि अगले जन्म में हमारा क्या हश्रहोगा। मुझे हमेशा ये बताया गया कि मैंने पिछले जन्मों में कुछ पुण्य किए थे जिनकी वजह से मेरा जन्म इस बार ‘दुनिया के सबसे बेहतरीन धर्म’ में हुआ है।

संस्कृति और संस्कार के नाम पर हमारा इंडॉक्ट्रिनेशन बहुत जल्दी ही शुरू हो जाता है और वो भी ऐसे तरीक़ों से जो हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में किए जाने वाले कामों के आधार पर कच्ची उम्र में ही हमारे अंदर आस्था के बीज बोती है।

बिना ज़्यादा तफ़सीलों में जाए मैं एक अन्य विवादास्पद लेकिन इससे जुड़े हुए मुद्दे पर बात करना चाहता हूँ और वो है ‘सनथारा’ यानि कि धार्मिक वजहों से आमरण उपवास करना। मैं यहाँ हाल ही निखिल सोनी बनाम भारतीय संघ के मुक़दमे में राजस्थान राज्य द्वारा पेश की गयी दलीलकी तरफ़ आपका ध्यान लाना चाहूँगा। राजस्थान राज्य ने अपनी दलीलों में ‘दबाव के तहत किए गए धार्मिक कृत्य’ और ‘धार्मिक परम्परा या रिवाजों’ के बीच फ़र्क़ किया है। जो लोग जैन धर्म को समझने के बाद इसे ग्रहण करते हैं उन्हें छोड़ दिया जाए तो हर जैन परिवार के बच्चों परधार्मिक प्रथाओं का थोपा जाना ‘दबाव’ नहीं तो और क्या है!

आराधना समदरिया का 68 दिनों का उपवास शायद उसके माता-पिता की नज़रों में किसी दबाव का परिणाम नहीं था। लेकिन एक समुदाय द्वारा ऐसी प्रथा का पालन करना उस 13 साल की बच्ची को 68दिनों तक उपवास करने के लिए दबाव का परिणाम नहीं तो और क्या है।अंतर्जातीय या अंतर-धार्मिक विवाह जैसी प्रवृत्तियाँ जैन समुदाय में बहुत कम ही देखने को मिलती हैं क्यूँकि एक आम जैन व्यक्ति को ‘बाज़ार’ के अलावा और किसी संस्कृति से रूबरू होने का कोई मौक़ा ही नहीं मिलता।

ऐसे वाक़ये आए दिन होते रहते हैं लेकिन इन्हें चुनौती देने वालाकोई नहीं होता। एक लड़की को ‘माहवारी हिंसा’ के ख़िलाफ़ बोलने नहीं दिया जाएगा, अगर उसकी मर्ज़ी ना हो तो भी उसे मंदिर जाने से मना करने की इजाज़त नहीं होगी, किसी लड़के को कोई माँस खाने वाला दोस्त रखने की कोई इजाज़त नहीं होगी (अपनी मर्ज़ी से माँस खाने काफ़ैसला करना तो ईश-निंदा करने के बराबर होगा), लेकिन एक 13 साल की बच्ची को 68 दिन का उपवास रखने दिया जाएगा इसलिए क्यूँकि किसी भिक्षु ने उस लड़की के पिता से कहा होगा कि बच्ची के उपवास रखने से उनका कारोबार फलेगा-फूलेगा।

आराधना की मौत जैन समुदाय को लेकर ‘पंथ-निरपेक्षता’ के सवालों पर पुनः सोचने पर मजबूर करती है। जैन धर्म में महिला-पुरुष एवं लड़के-लड़कियों के ‘दीक्षा’ लेकर (लगभग ‘सन्यास’ की तरह) भौतिक संसार की सभी ज़रूरतों, इच्छाओं और आकांक्षाओं को छोड़ देने की प्रथा रही है। कई बार ऐसा भी होता है कि 15साल से भी छोटे लड़के-लड़कियों को ऐसे पथ पर स्वीकार कर लिया जाता है। 

आख़िर उनका ये क़दम कितना ‘स्वैच्छिक’ है? यह वाक़या राज्य-सत्ता और धर्म के बीच सम्बन्धों को लेकर भी पुनर्विचार करने पर मजबूर करता है। ख़ासकर जैन धर्म जैसे धर्म के बारे में जो ‘अल्पसंख्यक’ होने का फ़ायदा उठाते हुए अपनी परम्पराओं को बचाने और संरक्षित करने का काम कर रहा है। ये तो क़तई ऐसी परम्परा नहीं है जिसे हमें बचाना चाहिए। 

श्रेणिक मुथा ILS Law College, पुणे के छात्र हैं| उनसे shrenik.mutha@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता हैं|  अनुवाद: अमित शर्मा

Oct 13, 2016

बागेश्वर में दलित युवक की हत्या के खिलाफ प्रदर्शन

बागेश्वर से सुधीर कुमार की रिपोर्ट

जेएनयू आंदोलन के बाद चर्चा में आए या यूँ कहें कि मुख्यधारा की मीडिया की जानकारी में आए आज़ादी के नारे की गूँज अब उत्तराखण्ड के बागेश्वर में भी सुनाई पड़ी है.

कल 12 अक्टूबर को दलित सोहन राम की हत्या के विरोध में अम्बेडकर चेतना मंच द्वारा जिला मुख्यालय में जोरदार प्रदर्शन कर क्षेत्र में मौजूद जातिय व सामाजिक भेदभाव का पुतला फूंका.

6 अक्टूबर को बागेश्वर के भेटा गांव में दलित सोहन राम की दरांती से गर्दन काटकर सरेआम हत्या कर दी गयी थी. हत्यारे सरकारी शिक्षक ललित कर्नाटक द्वारा सोहन राम की सिर्फ इसलिए हत्या कर दी थी कि उसने आटा चक्की को छूकर अशुद्ध कर दिया था. हत्यारोपी ललित कर्नाटक, सह अभियुक्त  घनश्याम कर्नाटक और आनन्द कर्नाटक को न्यायालय के आदेश पर जेल भेज दिया गया है.

हत्या के खिलाफ कल बागेश्वर के नुमाइश मैदान से शुरू हुआ जुलूस नगर के मुख्य मार्गों से होता हुआ कलक्ट्रेट पहुंचा. छुआछूत, सवर्णवाद, ब्राह्मणवाद और मनुवाद से आज़ादी के नारे लगाता यह जुलूस दलितों के खिलाफ हमलों को रोके जाने की बात कर रहा था. 


Oct 12, 2016

नंदिता दास नहीं कर सकेंगी पाकिस्तान में शूटिंग

भारत के दंगाई मानसिकता के लोग पाकिस्तानी कलाकारों के भागीदारी से बन रही हिंदुस्तानी फिल्मों के अधर में लटकने से बहुत खुश थे। वे अब और खुश हो सकते हैं कि पाकिस्तान में हिंदुस्तानी फिल्म शूट होने का प्लान रद्द गया है...

लो जी मामला बराबर हो गया। भारतीय अभिनेत्री नंदिता दास जिस फिल्म के शूटिंग की तैयारी रही थीं, उसका प्लान अब रद्द हो गया है। उन्होंने मुंबई एक अखबार से बातचीत में कहा कि वह दिल्ली में शूटिंग की कोशिश कर रही हैं। फिल्म में मंटो का रोल नवाजुद्दीन सिद्दीकी निभाने वाले थे।

सार्थक फिल्मों की चर्चित अभिनेत्री नंदिता दास अपनी पूरी टीम के साथ प्रसिद्ध कहानीकार शआदत हसन मंटो पर बन रही एक फिल्म की शूटिंग के लिए लाहौर जाने वाली थीं। फिल्म दिसंबर में शूट होने वाली थी। मंटो लाहौर में भी रहे थे, इसलिए फिल्म के निर्देशक ने यथार्थ चित्रण के लाहौर को चुना।

नंदिता ने अखबार को बताया कि दोनों मुल्कों में तनाव के बाद असुरक्षित मान इस फिल्म को हम लाहौर में शूट नहीं कर सकते और हम दिल्ली में शूटिंग का मन बना रहे हैं।

गौरतबल है कि जिस मंटो ने दंगे और बंटवारे के खिलाफ सबसे मजबूती से लिखा उसी मंटो की फिल्म हिंदूस्तान—पाकिस्तान के बीच बढ़ते तनाव की भेंट चढ़ गयी। 'टोबा टेक सिंह' बंटवारे पर मंटो की प्रसिद्ध कृति है, जिसका हजारो बार मंचन हो चुका है, फिल्में बन चुकी हैं।

Oct 7, 2016

देवी से दो बातें

हर 2 मिनट में
अत्चायार होता है म​हिलाओं पर

हर घंटे
26 अपराध होते हैं औरतों पर

हर 10 घंटे में
पति प्र​ताड़ित करता है बीवी को

और पिछले दस साल में
2 लाख 43 हजार 51 का हुआ बलात्कार
3 लाख 15 हजार 74 के साथ हुई अपहरण की वारदात
80 हजार 8 सौ 33 मार दी गयीं कि दहेज कम ले आईं
4 लाख 70 हजार 5 सौ 56 महिलाओं का हुआ यौन उत्पीड़न

चलो मान लिया
हर 2 मिनट में संभव नहीं
हर घंटे भी मुश्किल होगी
10 घंटे में भी नहीं संभल पाएगा देश
पर दस साल में

दस साल में तो
बीस बार आए होंगे नवरात्रे
इतनी ही बार अव​तरित हुई होंगी देवी भी
और संगी रही होंगी अनेकानेक देवियां

फिर
इतने साल क्या कम थे
बलात्कार
हत्या
छेड़खानी
उत्पीड़न और औरत पर अपराध रोकने के लिए
एक दस हाथ वाली देवी के लिए
जो हर दस साल पर अपराध दोगुने से भी ज्यादा होते जाते हैं

इसलिए
मुझसे नहीं अपनी देवी से पूछो
मैं क्यों नहीं रखता नवरात्रे
सुबह उठकर क्यों नहीं करता दुर्गा सप्तसती का पाठ
मैं तो बस इतना जानता हूं
इंसान  अपना काम न करे तो उसे निकम्मा कहते हैं
अगर दिन, महीने, साल और सदी
दस हाथों वाली देवी हाथ पर हाथ धरे बैठी रहें
तो  उन्हें क्या कहेंगे
ये आप ही बता दो 
हम कुछ बालेंगे
आप तलवार खींच लोगे 

Oct 6, 2016

अखलाक के हत्या के आरोपी को तिरंगें में लपेटकर दिया सम्मान

सैनिकों की शहादत पर ओढ़ाया जाने वाला तिरंगा क्या अब अपराधियों शान बनेगा

मोदी युग में पहली बार किसी दंगाई और गुंडे को तिरंगे में लपेटे जाने का मामला सामने आया है जिसके बाद यह सवाल उठने लगा है कि क्या जाति और धर्म के आधार पर देश में अपराधियों के अपराध तय होंगे या देश में कानून का राज कायम होगा।

उत्तर प्रदेश के दादरी में हुआ चर्चित अखलाक हत्याकांड के एक आरोपी रवि की मंगलवार को एक अस्पताल में मौत हो गई। 22 साल के रवि के गुर्दों ने काम करना बंद कर दिया था जिसके बाद उसे उत्तर प्रदेश के नोयडा स्थित जिला अस्पताल से लोक नायक जयप्रकाश अस्पताल लाया गया था। अस्पताल जब उसे घरा लाया गया तो हिंदू संगठनों के लोगों ने उसके शव को तिरंगें में लपेट दिया और फिर घर लेकर आए।

गौरतलब है कि दादरी के बिसाहड़ा गांव में 51 साल के मोहम्मद अखलाक को पिछले साल भीड़ ने पीट- पीट कर मार डाला था जिसके बाद क्षेत्र में सांप्रदायिक तनाव हो गया था। भीड़ को संदेह था कि अखलाक गौमांस का सेवन करते थे। गांव में दंगा करने और अखलाक की हत्या करने में दस नामजद आरोपी शामिल थे, उनमें एक रवि भी था, जिसकी मंगलवार को दिल्ली के अस्पताल में मौत हो गयी।

28 सितंबर की रात करीब साढ़े दस बजे गांव के 14-15 लोग हाथों में लाठी, डंडा, भाला और तमंचा लेकर घर की तरफ गाली-गलौज करते हुए आए और दरवाजे को धक्का मारकर घुस गए थे और अखलाक और उनके बेटे दानिश को जान से मारने की नीयत से मारने लगे थे. इस वारदात में अखलाक की मौत हो गयी थी।
दंगे और अख़लाक़ के हत्या के आरोपी रवि को मिला तिरंगे का सम्मान। कानून का समय है या धार्मिक उन्माद का

Oct 4, 2016

जो सुबह—शाम गौ को कहते हैं माता

जिन किसानों के घर गाय है
उनके लिए चार—पांच बार बच्चा दे चुकी गाय एक भार है
जर्सी का बछड़ा पैदा होते ही उनके ​जी का जंजाल है
और ट्रैक्टरों के आने के बाद से देसी का बछड़ा भी बेकार का माल है

इसलिए पूछो
गौरक्षक गुंडों के उस राष्ट्रीय सरगना से
कि किसके बापों के जेबों में इतना माल है
जो पालेगा इन्हें और तुम्हारे वोट के लिए अपने बच्चों को रखेगा भूखा
कौन है वह देशभक्त और गौरक्षक
पेश करो उन्हें गरीब किसानों के बीच
जो पानी, बिजली, डीजल और खाद की महंगाई से तंग आकर
छोड़ रहे हैं खेती और भाग रहे खेत की मेड़ों से सीेधे शहरों की संकरी गलियों की ओर
वह कहां से लाएंगे पंद्रह रुपए किलो का रोज पांच—दस किलो भूसा
जिनकी कमाई नहीं है हर रोज की पचास रुपए 

इसलिए
उन्हें भी जनअदालत में ला पटको  
जो सुबह—शाम गौ को कहते हैं माता
और इंजैक्शन से निचोड़ते हैं दूध
नहीं भ्ररता जी तो मार देते हैं बछड़े को
और उसकी चमड़ी में भर देते हैं भूसा
खड़ा कर देते हैं गाय के सामने
और बड़ी फक्र से अपनी मां को ही बुरबक  बना
निचोड़ लेते हैं बछड़े के हिस्से का एक-एक बूंद

इसलिए
इसी मजमें में उन्हें भी बुलाओ
जो शहरों में देते हैं संस्कृति की दुहाई
और बात—बात में कहते हैं गाय है हमारे धरम की माई
उछलकर पकड़ो उनकी गिरेबां
ध्यान रहे भागने न पाएं
​थमाओ उनको ठठहरा हो चुकी गायों का पगहा
और बांध आओ उनके फ्लैटों में 
गलियों, नुक्कड़ों पर तांडव मचा रहे सांडों को
साथ में ले जाओ उन बछड़ों को भी

देखते हैं हम
जिनके दिलों में अपनी मां, भाई और बहन को रखने की जगह नहीं
जिनके घरों में इतनी जगह नहीं कि दो रोज दो मेहमान रोक सकें
अलबत्ता बच्चों की खेलने की फर्लांग भर जमीन भी नहीं है जिनके पास
वह कहां बांधते हैं अपनी माई को
कैसे करते हैं धरम की रक्षा
किसका काटते हैं सर और किसको लटका देते हैं सूली पर
देखते हैं हम भी
सरगना तुम भी देखना...देखना तुम भी

Oct 3, 2016

सर्जिकल स्ट्राईक के तीन दिन

सर्जिकल स्ट्राईक का पहला दिन
देखा सर, 38 सर काट लिए हमने?
कब, कैसे, किसका काटे?
अरे, उन्हीं कटुओं के, पाकिस्तानियों के, लेकिन आप तो मानेंगे नहीं?
क्यों नहीं मानेंगे, पर तुम्हारे हाथ में तो सिर लटका नहीं दिख रहा है
हमने पाकिस्तान में घुसकर मारा है, मोदी जी कोई मनमोहन नहीं हैं जो मौन रह जाएंगे। देखा नहीं आपने डीजीएमओ की प्रेस कांफ्रेेंस।
हां, देखी पर उसमें ये सब नहीं था
वेबसाइट पर चला दी हमने। लिख दी। डीजीएमओ खुलकर सबकुछ थोड़े बताएगा।
तुम्हें कैसे पता चली?
दूसरी वेबसाइट पर देखी
उसने कैसे चलाई, उसको किसने बताया, पता करो जरा?
​सर, इससे क्या लेनादेना। खबर चलाएंगे कि यह देखने जाएंगें कि कहां से सूचना आई।
पर यह तो देखोेगे कि सही क्या है, उसका स्रोत क्या है, किसी ने फर्जी चला दी तो?
सर, यह सब देखने जाएंगें तबतक दस दूसरे चिपका देंगे और हम रिसर्च करते ही रह जाएंगें और वह हिट बटोर लेंगे। दूसरी बात सर पाकिस्तान कौन सा नोटिस भेज रहा है।
पर टीवी वाले भी दिखा रहे हैं, उनके पास कहां से आई जानकारी। जरा उनके रिपोर्टरों से पता करो?
हा—हा सर, यही तो बात है। उन्होंने हमसे लीड ली है। उनके पास कहां खबर थी। सबसे पहले हमने चमकाई।
पर संख्या का कैसे पता चला?
सर, सामान्य ज्ञान से। सेना ने कहा 7 स्थानों पर हमला किया। मान लीजिए एक स्थान पर 5 को मारा होगा तो 35 हुए। 35 लिखने से सीधी गिनती हो जाती इसलिए 38 ठीक है।
पर यह सब तुम्हें कैसे पता?
मैं तो उस वेबसाइट के बारे में बता रहा हूं जिसने 38 लिखा। हमने तो उसका लिखा हुआ लिखा। अपन कोई टेंशन नहीं। हिट देखते जाइए।


सर्जिकल स्ट्राईक का दूसरा दिन
पता किया तुमने कि किसने कहा 38 मारे गए?
सर, आप अभी वहीं अटके हो। आज शहाबु​द्दीन चल रहा है। सर्जिकल आज शर्मा देख रहा है। छोड़ा माल वही बटोरता है।
आके। पर तुम ब्यूरो वालों से पूछो, उन्हें पता होगा जो रक्षा या आईबी कवर करते हैं। उनको कोई खबर होगी कि किसने लीड दी। 
सर, आप इतने बुद्धिमान होके भी कभी—कभी वही वाली बात कर देते हैं। हमें कुत्ते ने काटा है जो पूछने जाएं। उन्होंने हमें लीड दी थी? वह साले नेताओं की सहला लें यही बहुत है। देखिएगा शाम को हमारी ही खबर का कट—पेस्ट करेंगे। और सरकार को जरूरत होगी संख्या बताने की तो उसे भी लगा देंगे। पर यह जानिए कि मीडिया ने इतना प्रेशर बना दिया है कि सरकार संख्या घटाकर नहीं बोल पाएगी। वैसे भी कौन सी नौकरी देनी है किसी को, मूंह से संख्या ही तो बोलनी है। 

सर्जिकल स्ट्राईक का तीसरा दिन
अरे भाई, पता किया क्या?
हां, सर। बात हो गयी है। 30 सिम कल दे जाएंगें। रिलायंस वाले अपने को मोदी ही समझते हैं। आॅफर आया है तो सबसे पहले हमलोगों को मिलेगा न। कह रहा था कोड जेनेरेट करना पड़ेगा, मगर हमने कह दिया आज शाम की रात नहीं होनी चाहिए...पर आपके पास वोल्टी टेक्नॉलॉजी वाला मोबाईल तो है न। न हो तो सर ​ले लीजिएगा। मैं अभी नवरात्रे अपडेट कर रहा हूं।
ओह...ये नहीं। मैं पूछ रहा था सर्जिकल स्ट्राईक में कितने आतंकी और पाकिस्तानी जवान मारे गए, इसके बारे में सरकार या सेना ने कोई जानकारी दी है क्या।
हा—हा, सर। अभी—अभी खबर आई है, वही लीड ले रहे हैं। अब सर्जिकल स्ट्राईक पुरानी बात हो गयी। अब तो मोदी जीे ने कह दिया हम कहीं हमला नहीं करते। शांति चाहते हैं, दुनिया के लिए अपनी जान कुर्बान करते हैं। हम गांधी के देश के हैं और विरासत में हम सत्य, अहिंसा और असहयोग की खेती करते हैं।