Jul 10, 2011

अलीगढ में कांग्रेस की सियासी महापंचायत

कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने भट्ठा-पारसौल से लेकर अलीगढ़ के नुमाइश मैदान तक जो भी किया वो मीडिया में छाया रहा,लेकिन असल सवाल यह है कि क्या राहुल किसानों के एक बेहतर और सर्वमान्य भूमि अधिग्रहण कानून अपने दल की सरकार के रहते बनवा पाएंगे...

आशीष वशिष्ठ 

आजादी के 67 सालों के भीतर जब कोई भी सरकार (सर्वाधिक 55 सालों तक) किसानों की भलाई के लिए काम नहीं कर पायी तो राजनीति में ट्रेनी राहुल किसानों के भले के लिए कोई ठोस कार्यवाही या पुख्ता कानून बनवा पाएंगे, ये पत्थर में से पानी निकालने जैसा ही होगा। एक तरह से देखा जाए तो राहुल की पदयात्रा और किसान महापंचायत ने मायावती को कम और अजित सिंह की रालोद को ही ज्यादा नुकसान पहुँचाया है,क्योंकि राहुल ने जिन किसानों की बात जोर-शोर से उठाई है उनमें से अधिकतर जाट बिरादरी से हैं।

दलितों के पास यूपी क्या देशभर में ही जमीन का बहुत छोटा हिस्सा है, ऐसे में भट्ठा-पारसौल को राजनीति का अखाड़ा बनाकर और मौजूदा भूमि अधिग्रहण को नकारा बताकर कांग्रेस के नौसिखिये  युवराज ने स्वयं अपनी ही सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया है। वैसे में उम्मीद बहुत कम है कि राहुल ऐसा कर पाएंगे, लेकिन राजनीतिक नफा-नुकसान से वाकिफ राहुल फौरी राहत के लिए किसानों का कुछ भला तो करेंगे ही।
भट्ठा-पारसौल के कंधें पर बंदूक रखकर राहुल कहां निशाना लगा रहे हैं ये किसी से छिपा नहीं है। लेकिन यूपी की माया सरकार पर दर्जनभर चापलूस मंत्रियों की फौज के साथ अलीगढ़ के नुमाइश मैदान से मायावती को ललकारने वाले राहुल ये क्यों भूल जाते हैं कि देश के जिन राज्यों में कांग्रेस की सरकारे हैं वहां के किसान भी यूपी की तरह दुःखी और परेशान हैं।ऐसे में किसानों के मुद्दे पर ओछी,घटिया और वोट बटोरू राजनीति कृषि प्रधान देश में किसानों के साथ भद्दा और घिनौने मजाक से बढ़कर कुछ और नहीं है।

उदारीकरण की 1991 में जो बयार देश में बही उसने कृषि प्रधान देश की उपाधि हमसे छीन ली। यह कड़वी सच्चाई है कि आज देश में कृषि पर से निर्भरता कम हुई है और विकास, विशेष आर्थिक क्षेत्र, उद्योगों की स्थापना और एक्सप्रेस हाईवे के नाम पर किसानो की उपजाऊ जमीनों को कोड़ियों के दामों पर खरीदकर सरकार कारपोरेट घरानों और बिल्डरों को खुश  करने में मगन है। सीधे अर्थों में सरकार जनता और अन्नदाता किसानों के साथ गद्दारी और धोखाधड़ी कर रही है। क्योंकि सरकार जिस मकसद से किसानों से जमीन लेती है उसका उपयोग उसके काम में नही होता है और सरकार और उसकी पालतू मशीनरी कमीशन की मलाई से पेट तर कर रही है।

अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने ग्रेटर नोएडा में यूपी सरकार द्वारा अधिग्रहित की गई जमीन किसानों को वापिस करने का आदेश देकर सरकार को तगड़ा झटका और किसानों को बड़ी राहत दी है। ऐसा नहीं है कि केवल यूपी की में ही किसानों की जमीनें सरकार ने हड़पी है। उपजाऊ जमीनों की ये लूट देशभर में जारी है। देश के भोले-भाले किसान सरकारी चालबाजियों और गलत नीतियों से ठगे जा रहे हैं। यूपी की वर्तमान माया सरकार और पूर्ववर्ती मुलायम सिंह की सरकार ने औद्योगिक घरानों और बिल्डरों को प्रदेश की उपजाऊ जमीनें थाली में सजाकर देने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है। आगरा, टप्पल, इलाहाबाद, लखनऊ और हाल ही भट्ठा-पारसौल की घटना ने सूबे में किसान राजनीति को तो गर्माया ही है, वहीं यह भी सोचने को मजबूर किया है कि आखिरकार सरकार विकास के नाम पर जिस उपजाऊ जमीन का अधिग्रहण कर रही है उसका क्या औचित्य है?

विकास के नाम पर पिछले एक दशक में नोएडा में सरकार ने 8500 एकड़ जमीन अधिग्रहित की है, उपजाऊ जमीन का अधिग्रहण रोजी-रोटी की समस्या को बढ़ाने में अहम् भूमिका निभा रहा है। सुप्रीम कोर्ट के तलख तेवरों के बाद शायद इस प्रवृत्ति पर आंशिक रोक लगने की उम्मीद तो जगी है, लेकिन भ्रष्ट और कारपोरेट घरानों के हाथों बिकी सरकार षडयंत्र और कुचक्र रचने से तौबा करेगी इसकी संभावना कम ही है।

देश के लगभग हर राज्य में स्थानीय सरकारें औद्योगिक घरानों को लाभ पहुंचाने के लिए अधिक से अधिक खेती योग्य भूमि का अधिग्रहण कर तो लेती है, लेकिन जिन उद्देश्यों के लिए जमीन ली जाती है वो जमीन उस काम न लाकर व्यवासियक या अन्य बिजनेस में व्यर्थ गंवा दी जाती है। यूपी में यमुना और गंगा एक्सप्रेस हाईवे के नाम पर हजारों एकड़ जमीन किसानों से हथियाकर जेपी ग्रुप को दी है। सरकार अपनी योजनाओं के लाभ बढ़ा-चढ़ाकर पेश करती है, लेकिन एक्सप्रेस हाईवे और राजमार्गो के निकलने से भूमिहीन किसानों को क्या लाभ होगा ये बात समझ से परे हैं। जब किसान अपनी जमीन ही बेच देगा तो वो क्या किसी कारखाने में मजदूरी करेगा या फिर हाईवे के किनारे फल या सब्जी का ठेला लगाएगा।

सरकार द्वारा जमीन अधिग्रहण की कार्रवाई को अगर 'भूमि हड़प' कहकर संबोधित किया जाए तो कोई बुराई नहीं होगी। क्योंकि इस प्रक्रिया में छोटे व सीमांत किसान तेजी से भूमिहीन श्रमिक बन रहे हैं। इसीलिए, स्थानीय किसान और समुदाय सरकारी जमीन अधिग्रहण का विरोध कर रहा है। हालांकि इन किसानों का रोजगार, बिजली, सड़क, उत्पादकता और आय में बढ़ोतरी, तकनीकी हस्तांतरण आदि का प्रलोभन दिया जा रहा है, लेकिन इससे होने वाले नुकसान के बारे में स्थानीय सरकारें खामोश हैं। फिर मुआवजा, रोजगार, आय आदि के मामले में असंगठित और छोटे किसानों के हितों की अनदेखी की जा रही है।

विडंबना यह है कि देश के किसान भी भूमि अधिग्रहण से जुड़ी अनेक समस्याओं को समझ नहीं पा रहे हैं। कर्ज के बोझ तले दबे और नगदी फसलों की पैदावार के लोभ के फेर में पड़े किसान आत्महत्या से मुक्ति पाने के जिस गलत मार्ग पर चल पड़े हैं वो इस देश और देशवासियों के लिए अफसोसजनक और दुर्भाग्यपूर्ण घटना है।

नंदीग्राम से भट्ठा-पारसौल तक किसानों का दुःख-दर्द ज्यों का त्यों बरकरार है और नेता नगरी राजनीति करने में मशगूल है। अलीगढ़ के नुमाइश मैदान में कांग्रेस के युवराज ने किसान पंचायत (नुमायश) करके किसानों का सबसे बड़ा हितैषी और हमदर्द बनने की जो पॉलिटिक्स की है वो ऊपर से तो भली और सार्थक पहल लगती है कि कोई युवा और प्रभावशाली नेता जमीन और किसान की बात कर रहा है, लेकिन दर्द और गुस्सा तब आता है कि वो नेता सक्षम होने के बावजूद भी किसानों को मीठी गोली और झूठे वायदों की चाशनी में डूबी जलेबी खिलाकर अपने साथ जोड़ने और वोट बटोरने को अधिक आतुर दिखाई देता है।

राहुल अगर असल में ही किसानों के साथ हैं तो आगामी मानसून सत्र में उन्हें भूमि अधिग्रहण के लिए एक पुख्ता कानून बनवाने का पूरा प्रयास करना चाहिए। वहीं किसानों को भी नेतागिरी और नेताओं से जुदा होकर खुद एकजुट होकर अपनी समस्याओं के लिए संघर्ष करना चाहिए। क्योंकि जो हाथ जमीन से सोना पैदा कर सकते हैं, वो हाथ मिलाकर अपने हक-हकूक की लड़ाई लड़ और जीत भी सकते हैं।


स्वतंत्र पत्रकार और उत्तर प्रदेश के राजनीतिक- सामाजिक मसलों के लेखक .


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