Jul 29, 2011

'दो पेज भी नहीं लिख सकते दलित बुद्धिजीवी'


किसी भी आंदोलन और संघर्ष के बीच बहस में जाति का प्रश्न  हमारे देश  में हमेशा महत्वपूर्ण होकर उभरता है। ज्यादातर संगठन और पार्टियां इसे सामाजिक और आर्थिक बराबरी में बड़ा रोड़ा मानती हैं। इस रोड़े को खत्म करने के लिए सभी संगठनों-पार्टियों के पास अपने तर्क और दर्शन  हैं। उसी तर्क और दर्शन  के आधार पर वह भारत के जाति आधारित समाज को खत्म करने की कोशिश में लगे  हैं। लेकिन इन कोशिशों  के बीच की सच्चाई यह है कि आधुनिक होते भारतीय समाज का जातिगत स्वरूप और संगठित व संस्थागत हुआ है, जहां नये सृजन के मुल्य भी हैं और सामंती-बर्बर सामाजिक संरचनाएं भी। वैसे में सवाल यह उठता है कि इसके मुकाबले नयी सामाजिक संरचना क्या होगी, उसके कार्यभार क्या होंगे और वह वंचित-शोषित  जातियों के मुक्ति के सवालों पर क्या रास्ता अपनायेगी, जिससे ये जाति समूह उन संघर्षों को अपना मानेंगे। ‘जनज्वार’ जाति के इस जटिल मसले पर सभी पक्षों के सरोकारी बहस को आमंत्रित करता है। दिल्ली के गांधी शान्ति  प्रतिष्ठान  में 24 जुलाई को जाति के सवाल पर आयोजित एक सेमीनार में बांटी गयी सर्वहारा प्रकाशन की एक पुस्तिका का पहला हिस्सा छापकर यहां बहस की शुरूआत की जा रही है। यह पुस्तिका वामपंथी समूह क्रांतिकारी लोकअधिकार संगठन और इंकलाबी मजदूर सभा की ओर से वितरित की गयी थी। - मॉडरेटर



आज अपने देश  में बहुत सारे लोग जो खुद को मार्क्सवादी, मार्क्सवाद के समर्थक या मार्क्सवाद की सहानुभूति रखने वाले कहते हैं वे मार्क्सवाद की जड़ खोदने में लगे हुए हैं। इसके अलावा ऐसे लोगों की भारी तादाद है जो खुद को वंचितों-शोषितों  का मसीहा घोषित  करते हुए,मुक्ति के दर्शन  के तौर पर मार्क्सवाद को खारिज करते हैं। इन्होंने खुद का मुक्ति का दर्शन  गढ़ लिया है।

यह उपभोक्तावादी पूंजीवाद का जमाना है। इसमें हर चीज ‘मॉस’ स्वरूप ग्रहण कर लेती है। इसमें हर चीज को सरलीकृत करके ‘मॉस’के उपभोग के अनुरूप ढाल लिया जाता है और इसके परिणाम स्वरूप हर व्यक्ति हर चीज का विशेषज्ञ  बन बैठता है। वह हर चीज चर चाहे वह कितनी विशिष्ट   और तकनीकी क्यों न हो उस पर मंतव्य देना अपना अधिकार समझ लेता है। जिन क्षेत्रों में फरिस्ते  भी पर मारने से घबराते हैं, उसमें यह बेहिचक अपनी राय ही नहीं, अंतिम निर्णय फौरन सुना देते हैं।

स्वनामधन्य बुद्धिजीवी,खासकर दलित बुद्धिजीवी इसी श्रेणी में आते हैं। ये अतीत की हर चीज, हर दर्शन और हर आंदोलन पर फतवा जारी करने में लगे हुए हैं। ये एक बार मूंह खोलते हैं तो चार फतवे जारी हो जाते हैं। और ठीक तुरंत काफिर यानी ब्राम्हणवादी, मनुवादी घोषित  हो जाता है। यहां अतीत से असहमति की सारी गुहार वर्तमान में असहमति को निरस्त करने के लिए लगाई जाती है।

मार्क्सवाद और भारत का कम्युनिस्ट आंदोलन इसके खास निशाने  पर है। बात कहीं की भी हो रही हो ये लपक कर चार लात इनको लगा देते हैं। इनमें से एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो भारत के नब्बे साल कम्युनिस्ट  आंदोलन के इतिहास की एक मोटा-मोटी रूपरेखा भी प्रस्तुत कर सके। फिर भी वे इस पर कुछ भी कह देने के लिए खुद को आजाद मानते हैं। हम सारे दलित बुद्धिजीवियों को चुनौती देते हैं कि वे आज के अपने ज्ञान के आधार पर भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास की दो पृष्ठ  की रूपरेखा प्रस्तुत करके दिखायें। चलिये हम अपनी चुनौती को और हल्का कर देते हैं। ये अपने को जाति के मुद्दे पर भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में जो अलग-अलग सोच मौजूद रही है, वे उसकी ऐतिहासिक रूपरेखा प्रस्तुत करके दिखायें।

हम जानते हैं कि वे ऐसा नहीं कर सकते। लेकिन तब भी वे समूचे मार्क्सवाद को और भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन को खारिज करने का दंभ रखते हैं। इसके निश्चित  कारण हैं। पिछले डेढ़ सौ सालों से और खासकर पिछले सौ सालों से मार्क्सवाद शोषित -उत्पीड़ित मानवता की मुक्ति का एकमात्र दर्शन रहा है। इसलिए जब भी कोई नया दर्शन या विचारधारा पैदा हुई है जिसने अपने को मुक्ति के दर्शन के रूप में प्रस्तुत किया है तब उसे सबसे पहले मार्क्सवाद को गलत या अधूरा घोषित  करना पड़ा है।

यह पिछले सौ सालों में कई बार हो चुका है- मार्क्सवाद के भीतर से भी बाहर से भी। सच तो यह है कि हर दस-बीस साल पर यह षोर उठता ही रहा है कि मार्क्सवाद असफल हो गया है, मार्क्सवाद पुराना पड़ गया है(उत्तर आधुनिकता उसकी आधुनिकतम कड़ी है)। लेकिन हर बार यह पाया गया है कि मार्क्सवाद से आगे जाने के नाम पर जो कुछ प्रस्तुत किया गया वह मार्क्सवाद के पैदा होने से पहले ही कहा जा चुका है। वह सारा कुछ रूप बदला हुआ मार्क्सवाद पूर्व दर्शन है। उत्तर आधुनिकता पर भी यही चीज लागू होती है।

दलित बुद्धिजीवी भी मार्क्सवाद को नकारते हैं। वे इसके सिवा कुछ कर नहीं सकते। वे दलित की मुक्ति का अपना दर्शन प्रस्तुत करना चाहते हैं। दलित की मुक्ति का या ज्यादा ठीक कहें तो सभी सर्वहारा दलित सर्वहारा की मुक्ति का दर्शन मार्क्सवाद के रूप में पहले से ही मौजूद है। ऐसे में यदि दलित बुद्धिजीवियों को अपना दर्शन स्थापित करना है तो खासकर दलित सर्वहारा को मार्क्सवाद के प्रभाव से बचाना है तो मार्क्सवाद को खारिज करना आवश्यक  है। वस्तुतः यह सारा कुछ दलित सर्वहारा के लिए दो दर्षनों के बीच जंग है। एक ओर मार्क्सवाद है तो दूसरी ओर दलित बुद्धिजीवियों का दर्शन।

लेकिन दलित बुद्धिजीवी का दर्शन है क्या? यह दर्शन  है -और यही हमारी इस आलोचना का केंद्रबिंदु- बुर्जुआ दर्शन, पूंजीपति का दर्शन। दलित बुद्धिजीवियों के दर्शन का, उनकी विचारधारा का सारतत्व है पूंजीवादी दर्शन। हां,यह इक्कीसवीं सदी के शुरुआत के भारत के विशिष्ट दलित बुर्जुआ का दर्शन है। इस मायने में यह महान फ्रांसीसी क्रांति के फ्रांसीसी बुर्जुआ दर्शन से सारतः एक होते हुए भी रूप में कई मायनों में भिन्न है।


नोट:यह लेख जिस पुस्तिका 'मायावती-मुलायम परिघटना और उसकी वैचारिक अभिव्यक्तियाँ' का हिस्सा है, उसे दाहिनी तरफ फोटो पर क्लिक करके पूरा पढ़ा जा सकता है.



5 comments:

  1. ek achhi or sarthak bahas shuru ki hai aap ne. iske liye poori janjwar team ko sadhuwad.

    Manoj kushwaha
    gorakhpur

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  2. अरे भाई यह सर्वहारा प्रकाशन है या सर्व हारे हुए लोग हैं, आखिर ये हैं कौन जिनकी बकवासों पर जनज्वार बहस चला रहा है. जाति के सवाल पर पूरा कम्युनिस्ट आंदोलन का नजरिया ही जब दलित विरोधी है तो इसमें बहस की क्या है. इनसे बहस करके पुचकारने की क्या जरुरत है.

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  3. वाल्मीकि जी सर्वहारा का मतलब ही सब हारे होता है.

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  4. bhai agr aap gambheer log hain to aapse aasha kee jayegi ki aap is masle par bat karen. masla dalit sawal se juda hua hai. mudde par bat kee jaye to behtar hoga.

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  5. agar aap logon ka dalit budhijeevion ke baare main aisa ghatiya aur behuda nazaria hai tau aapke sangathan main dalit comrades ke kya hasiyat hogi..aapka sangarsh dalit budhijeeyion se hai ya oonch jaatiyon ke daman se? jisne bhi yeh pustika likhi hai vo na sirf had darje ke jaativaad se grast hai balki vah vaicharik rup se bhramdvaad ka pravakta bhi hai..aap logo ko sharm aani cahiye aise bakwaas ko marksvaadi vishleshan ka naam dene pai..arre behude logo dusron ko padne ke siksha dete ho khud bhi ek aad dhang ke kitab pado!arre jahilo aur nahi tau kuch acche marksvaadiyon ko pad lo jinhone jaati par likha hai..par aap tau pustika ke naam par jaativaad ko phaila rahe ho.aaj ke baad main aapke kisi karyakarm main nahi aaunga..

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