Jun 16, 2011

मंगर- शनिचर की पैदाईश में पतरू दूबे की भूमिका


मंगर-शनिचर की पहली वार्ता आपके सामने है। यह वार्ता हर मंगर-शनिचर को आपके बीच होगी...

गजराज

एक हैं शनिचर और दूसरे हैं मंगर। सुनने में ये दिन से लगते हैं,मगर हैं ये दोनों आदमी। नाम घरवालों ने क्या सोचकर रखा था,पता नहीं,लेकिन काम ये दोनों कुछ खास करते नहीं। सिवाय फोटलचरी के। इन्होंने फोटलचरी कब शुरू की,इस बारे में भी किसी को साल या तारीख का पता नहीं। इनके गांव वाले कहते हैं ये दोनों सबकी बखिया उधेड़ते हैं। हालांकि इनकी बखिया उधेड़न प्रवृति में गांववालों को कोई ज्यादती नजर नहीं आती। गांववाले कहते भी हैं, ‘दो-चार आदमी बखिया उधेड़ने वाले न रहें तो गांव से बुद्धि चली जायेगी।’

यानी गांव में बुद्धि बचाने का जिम्मा मंगर और शनिचर पर है। अब इस यानी को थोड़ा और विस्तार दे डालें तो उपर्युक्त दोनों महानुभाव ग्रामीण बुद्धिजीवी हुए। और इनका परिचय हुआ, ‘फोटलचरी देने वाले मंगर और शनिचर जाने-माने ग्रामीण बुद्धिजीवी हैं।’ हां, यह दीगर बात है कि वर्गों और जातियों में बंटे भारतीय समाज में इस पदवी के आते ही एक और नया वर्ग पैदा हो जायेगा। साथ ही शहरी बुद्धिजीवियों पर संकट आन पड़ेगा। ऐसा इसलिए होगा कि अब तक फोटलचरी पर एकतरफा कब्जा शहरी बुद्धिजीवियों का रहा था। चाहे फिर वह परवल को सीताफल का छोटा रूप समझने के गहरे ज्ञान से लबरेज ही क्यों न रहे हों।

ऐसे में अब थोड़ी बात ‘फोटलचरी’ शब्द की उत्पत्ति पर। बेसिकली यह शब्द भोजपुरी का है और अंग्रेजी के ‘फोकट और लेक्चर’  शब्द के मिश्रण से तैयार हुआ है,जिसका शब्दशः  अर्थ फोकट में  लेक्चर होता है। इस शब्द का गहरा रिश्ता पतरू दूबे से है,जिनकी बातों को सुनकर भोजपुरी क्षेत्र के ग्रामीणों ने इस शब्द को ईजाद किया था। गांव के बुजुर्गों के मुताबिक भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी दुबारा सत्ता में आ गयीं थीं और उन्होंने ‘बातें कम, काम ज्यादा’ का नारा दिया था।

यह नारा रेडियो और सरकारी दफ्तरों की दीवारों के जरिये ग्रामीणों के बीच पहुंच रहा था और विश्लेषण  पतरू दुबे के जरिये। पतरू दूबे की राय में इंदिरा गांधी का दिया गया नारा आदमी को बैल बनाने वाला था और बुद्धि को हरकर पूरे देश को सिपाही और फौजी। अब जरा उस मौके की बात कर लें जब पहली दफा ‘फोटलचरी’ शब्द का प्रयोग हुआ था। रोज की तरह उस दिन भी डेढ़ सौ फिट गहरे गड़े सरकारी नल ‘इंडिया मार्का’ के पास जो कि गोरखपुर ग्रामीण बैंक की ओर से फंडेड था, वहां पर पतरू दूबे को लोग सुनने के लिए जुटने लगे थे। जुटने वालों में बच्चे,जवान, किशोर, बूढ़े, बेटियां और भौजाइयां सब जुटा करतीं, इसलिए कि पतरू दूबे चीज ही ऐसी थे।

पतरू दूबे का व्यक्तिगत परिचय - जाति ब्राह्मण, इलाका-पूर्वी उत्तर प्रदेश, मां-बाप बचपन में चल बसे, एक बीबी,चार बच्चे समेत दो बीघा जमीन। दो बीघा जमीन से इतना हो जाता कि परिवार की हड्डी न गलती और लोग उन्हें खुश होकर कभी-कभी हड्डी राजा कहते। पतरू दूबे जब धारा प्रवाह बोलने लगते तो उनकी कमर में बंधी अधटंगी धोती पर उनका हाथ जाता और धीरे-धीरे धोती ऊपर की ओर उठने लगती। बस इसी मौके का इंतजार बच्चों को रहता। बच्चे पीछे से पतरू दूबे खोदकर खिलखिलाते हुए भाग लेते। पतरू दूबे पीछे मुड़कर बस इतना कहते, ‘दुर बुरबक’।

उस दिन पतरू दूबे जैसे ही अभी ‘इंदिरा गांधी’ बोले थे कि डेढ़ सौ फिट गहरे नल पर पीने का पानी भरने आया एक रिटायर्ड सूबेदार बोल पड़ा,‘अरे ई क्या फोटलचरी झाड़ते रहते हो,पहले छह गज धोती का इंतजाम तो कर लो,फिर इंदिरा-विंदीरा करना।’ सूबेदार के मुंह से निकला ‘फोटलचरी’ शब्द गांव के लोगों को पसंद आ गया और अब भोजपुरी क्षेत्र में पतरू दूबे के हर नये संस्करण को ‘फोटलचरी देत बाटें’ कहा जाता है।

इस शब्द का पतरू दूबे पर व्यक्तिगत क्या असर हुआ इस बारे में उनके एक मित्र जो कि अब बुजुर्ग हो चुके हैं, कहते हैं ‘मरने से पहले, पतरू कई बार कहता रहा कि सूबेदार सत्ता का प्रतिनिधि था और हम जनता के। उसकी बातें ‘कानून’ थीं और हमारी ‘फोटलचरी’, जानते हो क्यों? इसलिए कि वह कानून बनाता रहा और हम उसके कानून पर फोटलचरी देते रहे,उसे मजबूत करते रहे।’ 

इस घटना से हिंदी के कशी  केंद्रित उपान्यासकार काशीनाथ सिंह इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपने एक उपन्यास में लिखा, ‘विचारों में जीने वाले चूतिया होते हैं।’ कहने का तात्पर्य यह कि चूतियों की दूसरी जमात मंगर और शनिचर के रूप में फिर उस गांव में एक बार पैदा हो गयी है, जो फोटलचरी देते हैं और सबकी बखिया उधेड़ते हैं।

जारी...  

 
(लेखक ‘फोटलचरी’विधा के पहले भारतीय संकलनकर्ता हैं। नीचे कमेंट बॉक्स के जरिये उनसे संपर्क, सुझाव और शिकायत  का रिश्ता बनाया जा सकता है।)
 
 

3 comments:

  1. पवन देहरादूनThursday, June 16, 2011

    अदभुत है यह भूमिका. क्या बात है जनज्वार मजा आ गया.

    ReplyDelete
  2. इहे बतिया त हमहू कहिए से समझत रहीं कि ‘विचारों में जीने वाले चूतिया होते हैं’ इहे नाहीं ‘विचारों को आधार बनाकर बात बाँचने वाले परम-चूतिया।’ लेकिन जहाँ पढ़ल जाता ई घड़ी उहाँ विचारवान(?) के ओहदा पावे खातिर बड़ी छीनाझपटी बा। लोग बिअफे जइसन गुरुवे लगावेला अपना के। ओकरा से तनिका एने-ओने बर्दाश्त नईखे। चाहे विचार आपन उपराजल होखे या कहीं और के। लइका उमिर के हमहूं इहे ‘टैक्टिस’ अपनाइला कबो-कबो? मंगर और शनिचर बने के बड़ी अरमान हमरो मन में बा? आज ई फोटलचरी पढ़िके हिया में लागल कि अइसन जरूरे हमहूं कर सकिला। आजकल पानी-बूनी, खाए-पिए और काम-मजूरी के भले टोटा रहे। बाकी विचार तऽ बजरिया में खूब चलेला कगजन पर धकमपेल।

    छोड़ल जाए ई बात, रउवा जवन ढंग से मंगर और शनिचर के साथ सूबेदार और पतरू दूबे के ‘कैरेक्टर’(असलीका) बंचले हईं, पेट हर्षाए लागल। दिमागवा में खुदुर-बुदुर होता तवन अलग।

    ReplyDelete
  3. रोहित पाण्डेयSaturday, June 18, 2011

    वाह गजराज वाह. अबतक कहाँ छुपे थे. बहुत ही अच्छा लिखा, बड़े दिनों से जनज्वार पर आपकी तलाश थी. वैसे भाई ये गजराज है कौन ?

    ReplyDelete