Dec 26, 2010

न्यायपालिका ध्वस्त कर रही है ढांचा


पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (PUCL)के राष्ट्रीय  उपाध्यक्ष विनायक सेन पर राजद्रोह का आरोप लगाकर न्यायपालिका ने अपने गैरलोकतांत्रिक और फासीवादी चेहरे को एक बार फिर उजागर किया है। जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी शर्मनाक  मानती है. विनायक सेन प्रकरण के इस फैसले ने अन्ततः लोकतांत्रिक ढ़ांचे को ध्वस्त करने का काम किया है। यह न्यायपालिक की सांस्थानिक जनविरोधी तानशाही है, जिसका हम विरोध करते हैं।

जो काम सत्ता के सहारे पूंजीवादी ताकतें कार्यपालिका और व्यवस्थापिका से कराती थीं उसे अब न्यायपालिका कर रही है। पिछले दिनों विकिलिक्स ने हमारी पूरी व्यवस्था की पोल खोल दी की वह किस तरह देश की महत्वपूर्ण जानकारियों को अमेरिका जैसे देशों से चोरी-छिपे बताती है, और उसके दबाव में जनविरोधी नीतियों को लागू करती है।नक्सलवाद उन्मूलन के नाम पर चलाया जा रहा  आपरेशन ग्रीन हंट भी इसी का हिस्सा है.

विनायक सेन को आजीवन कारावास देकर न्यायालय ने वंचित तबके के प्रतिरोध को खामोश रहने की चेतावनी दी है,जो अब तक न्याय के अंतिम विकल्प के रुप में न्यायपालिका में उम्मीद लगाया था। हिंदुस्तान में न्यायालयों द्वारा पिछले दिनों जिस तरह से संविधान प्रदत्त धर्मनिरपेक्षता और लोकतांत्रिक मूल्य जिनके तहत आदमी और आदमी के बीच धर्म,जाति और लिंग के आधार पर किसी तरह का भेदभाव न करने का आश्वासन दिया गया था को खंडित किया जा रहा है.

छत्तीसगढ़ लोक सुरक्षा कानून जिसके तहत विनायक सेन को देशद्रोही कहा गया वह खुद ही एक जनविरोधी कानून है। जो सिर्फ और सिर्फ प्रतिरोध की आवाजों को खामोश करने वाला कानून है। विनायक सेन लगातार सलवा जुडुम से लेकर तमाम जनविरोधी प्रशासनिक हस्तक्षेप के खिलाफ आवाज ही नहीं उठाते थे बल्कि वहां की आम जनता के स्वास्थ्य शिक्षा से जुड़े सवालों पर भी लड़ते थे। हम यहां इस बात को भी कहना चाहेंगे कि जिस तरह न्यायालय ने डा0 सेन को आजीवन करावास दिया, ठीक इसी तरह भारतीय न्यायालय की इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनउ बेंच ने तीस सितंबर 2010को कानून और संविधान को ताक पर रखकर आस्था और मिथकों के आधार पर अयोध्या फैसला दिया।


न्यायपालिका के चरित्र को इस बात से भी समझना चाहिए कि देश की राजधानी दिल्ली में हुए ‘बाटला हाउस फर्जी मुठभेड़ कांड’पर न्यायालय ने पुलिस का मनोबल गिरने की दुहाई देते हुए इस फर्जी मुठभेड़ कांड की जांच की मांग को खारिज कर दिया था। भंवरी देवी से लेकर ऐसे तमाम फैसले बताते हैं कि हमारी न्यायपालिका का रुख दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और महिला विरोधी रहा है।

ऐसे में हम इस बात को कहना चाहेंगे कि जो न्यायालय जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों की अवमानना कर रहे हैं और अब अदालतों की अवमानना करने का पूरा अधिकार  जनता को है। क्योंकि विनायक सेन जनता के लिए,जनता द्वारा स्थापित लोकतंत्र के सच्चे सिपाही हैं। हम मांग करते हैं कि केंद्र और राज्य सरकार विनायक सेन के खिलाफ लगाए गए जनविरोधी राजनीति से प्रेरित आरोंपों व जनविरोधी छत्तीसगढ़ लोक सुरक्षा कानून को तत्काल रद्द करे और विनायक सेन को रिहा करे।



अदालतें कर रही हैं न्याय का शिकार

न्याय के इस खेल में साक्ष्य एक फुटबाल की तरह है जिससे गोल भी हो सकता है और फाउल भी। न्याय के नए खेल में अब तो साक्ष्य की जरूरत ही खत्म होती दिख रही है...

अंजनी कुमार  

यह संयोग था कि मैं उस दिन पीयूडीआर की शनिवार बैठक में उपस्थित था। हरीश रायपुर में विनायक सेन पर चल रहे मुकदमे के बारे में बता रहे थे। सरकारी वकील विनायक सेन को माओवादी और  उनका समर्थक सिद्ध करने के लिए यह तर्क पेश कर रहा था कि उनके घर से मार्क्स की प्रसिद्ध पुस्तक ‘कैपीटल’ तथा माओ की किताबें मिलीं हैं। इन पुस्तकों में पूंजीवाद को ध्वस्त करने की खतरनाक बातें लिखी गई हैं।

सरकारी वकील ने इस केस के कुछ और भी ब्यौरे  दिए। उस समय मेरे मन में यह उधेड़बुन चलती रही कि जज ने सरकारी वकील के इतने लचर तर्कों को तरजीह देकर क्यों सुना होगा। मन में ये सवाल यह जानते हुए भी उठा कि न्याय की उम्मीद करना एक जुए के खेल जैसा है, जिसमें विनायक सेन के मामले में हम हार गए। दरअसल, न्याय के इस खेल में हम थे भी कहां! न्याय तो जज को करना था।

कुछ-कुछ ऐसा ही हर जगह चल रहा है। हम अपने पक्ष में साक्ष्य और गुनहगार न होने की दावेदारी पेश कर रहे हैं, जबकि जज की चाहत ही कुछ और बन रही है। मसलन, इसी से कुछ मिलता-जुलता एक और मुकदमा उत्तराखंड में चल रहा है। वहां जब सरकारी वकील ने देहरादून जेल में बंद प्रशान्त राही के खिलाफ यह दलील दी कि उनके पास से लैपटाप मिला है,तब जज ने पूछा कि उसमें क्या-क्या बातें हैं,इसका लिखित ब्यौरा दो। जब वकील ने लैपटाप की बातों को मौखिक और लिखित रूप से पेश कर पाने में अक्षमता दिखाई तब जज ने कोर्ट में ही सरकारी वकील पर विरोधियों से मिल जाने, पैसा खाकर साक्ष्यों को खत्म करने जैसे तमाम आरोप जड़ दिए।

प्रशांत राही मामले में जज के रवैए के कारण मुझे अभी से न्याय की कोई उम्मीद नहीं दिख रही है। ऐसे हजारों मामले हो सकते हैं,जहां पहले से ही न्याय की उम्मीद नहीं रहती और देश में ऐसे सैकड़ों मामले हैं जहां आमजन भी पहले से जानता है कि न्याय क्या होने वाला है। न्याय के इस खेल में साक्ष्य एक फुटबाल की तरह है जिससे गोल भी हो सकता है और फाउल भी। न्याय के नए खेल में अब तो साक्ष्य की जरूरत ही खत्म होती दिख रही है। मसलन,बाबरी मस्जिद का मामला। जहां न्याय में लिखा जाता है कि राम के पैदा होने का साक्ष्य पेश करना जरूरी नहीं है क्योंकि वह है...।

बाबरी मस्जिद मामले में केस जमीन पर मालिकाना दावेदारी का है,जबकि न्याय जमीन के विभाजन के रूप में मिलता है। अफजल गुरू मामले में तो सारा मामला ही ‘लोगों की इच्छा’ पर तय कर दिया गया। वह भी आजीवन सजा नहीं, बल्कि सजाए मौत। साक्ष्य की पेशी जज की चेतना में ब्रिटिशकाल के 1870, 1872 या 1876 इत्यादि से कोई रूपाकार ग्रहण करेगी या फिर आधुनिक काल की आस्था और इच्छा से इसे तय करना सचमुच कठिन होने लगा है। यह बात लिखते हुए मुझे बरबस राजस्थान में एक दलित महिला के बलात्कार तथा तमिलनाडु में एक दलित बस्ती को जलाने व लोगों को मार डालने से संबधित केस और न्याय की बातें ध्यान में आ रही हैं।

दोनों ही मामलों में जज इस बात पर जोर देता है कि सवर्ण कैसे दलित स्त्री को छू सकता है, जबकि वह अछूत है। एक अछूत की बस्ती में सवर्ण कदम क्यों रखेगा?महाराष्ट्र के खैरलांजी की घटना को जज ने दलित उत्पीड़न की घटना मानने से ही इन्कार कर दिया और मुंबई हाईकोर्ट ने तो मजदूरों के हड़ताल और बोनस के मसले पर अपने न्याय में संवैधानिक देय अधिकारों को भी समय के साथ संशोधित करने पर जोर देते हुए उनकी मांग को ही खारिज कर दिया।

विनायक सेन मामले में जज के न्याय का आधार है गवाह अनिल सिंह,जो कि पीयूष गुहा से जब्त किए गये पत्रों के समय के हालात से जुड़े साक्ष्य का प्रत्यक्षदर्शी है। अनिल सिंह कपड़े का व्यापारी है,जिसने बताया कि पीयूष गुहा को 6 मई 2007 को पुलिस ने स्टेशन रोड से पकड़ा और उसके पास के बैग से तीन पत्र मिले। यह व्यक्ति ही एकमात्र स्वतंत्र गवाह है जिसके बयान पर न्याय की तकरीर निर्णय में बदल गई।

गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट में जांच अधिकारी बीबीएस राजपूत ने अपने एफीडेविट में बताया है कि पीयूष गुहा होटल महिन्द्रा से पकड़े गए। सरकारी वकील ने होटल के मैनेजर और रिसेप्शनिस्ट को इस साक्ष्य के रूप में जज के सामने पेश किया कि विनायक सेन ने तीनों पत्र पीयूष गुहा को उसी होटल में दिए थे। हालांकि कोर्ट में दोनों ने इस बात को अस्वीकार किया। यहां इस बात पर भी गौर करना चाहिए कि ये पत्र दो साल पुराने हैं,जबकि उसकी लिखावट ताजा थी और पत्र कहीं से भी फोल्ड नहीं थे।

आरोप है कि है यह पत्र माओवादी नेता नारायण सान्याल ने जेल से लिखा और इसे विनायक सेन ने पीयूष गुहा तक पहुंचाया। नारायण सान्याल और विनायक सेन की जेल में मुलाकात के दौरान हमेशा जेल अधिकारी मौजूद रहे। प्रत्येक पत्र को कड़ी जांच के बाद ही जारी किया गया। कोर्ट में भी आधे दर्जन जेल अधिकारी पेश हुए और उनके बयानों का निहितार्थ षडयंत्र रचने और पत्र पार कराने के आरोप का अस्वीकार किया जाना था।

नारायण सान्याल व विनायक सेन के बीच गहरा संबंध साबित करने के लिए नारायण सान्याल के मकानमालिक को पेश किया गया। मकानमालिक ने अदालत को बताया कि विनायक सेन के कहने पर ही उसने सान्याल को मकान दिया और जनवरी 2006तक सबकुछ ठीक-ठाक चलता रहा। इस मुकदमे में नारायण सान्याल को माओवादी सिद्ध करने के लिए सरकारी वकील ने कुछ दलीलें पेश की हैं। पहला,नारायण सान्याल ने अपने पत्र में संबोधन के तौर पर ‘कामरेड विनायक सेन’ लिखा है। सरकारी वकील के अनुसार ‘कामरेड उसी को कहते हैं जो माओवादी है।’


दूसरा,माओवादियों  ने एक पुलिस अधिकारी को बंधक बनाकर यह मांग रखी कि माओवादी क्षेत्र से सीआरपीएफ को हटाया जाये। यही मांग पीयूसीएल भी कर रहा है। इससे यह दिखता है कि पीयूसीएल माओवादियों का हितैषी संगटन या सहयोगी मोर्चा है।’ तीसरा,विनायक सेन के घर से पीपूल्स मार्च व माओ की संग्रहित रचनाएं मिलीं। चौथा, कोर्ट में सरकारी वकील ने बहुत से पत्र व्यवहार को प्रस्तुत करते हुए बताया कि इनके आईएसआई से खतरनाक संबंध हैं। इस आईएसआई का खुलासा यह है : इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट। यह संस्था दलित, आदिवासी, स्त्री, बच्चों, अल्पसंख्यकों के विभिन्न पहलुओं पर शोध व उनके विकास के लिए विभिन्न तरह से सक्रिय रहती है।

इन सारी दलीलों पर जज की दलील काफी भारी साबित हुई और जो अपनी संरचना की वजह से निर्णायक भी साबित हुई और विनायक सेन अपराधी करार दिये गये। विनायक सेन को इस केस में घसीटने के पीछे मूल कारण उनका 'सलवा जूडूम' के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर विरोध का माहौल बनाने व छत्तीसगढ़ में निर्णायक प्रतिरोध के लिए लोगों को खड़ा करना था।

सलवा जूडूम के तहत 700गांवों को उजाड़ दिया गया। लगभग एक लाख लोगों को शरणार्थी बना दिया गया। हजारों लोगों को जेल में ठूंसा गया। अकेले जगदलपुर जेल में ही लगभग ढ़ाई हजार लोग नक्सली होने के आरोप में जेल में बंद हैं। हत्या, बलात्कार, आगजनी  का नंगा नाच जिस तरह सलवा जूडूम के नाम पर शुरू हुआ, उससे तो आज खुद सरकार ही मुकर जाने के लिए बेताब दिख रही है और अब आपरेशन ग्रीन हंट को आगे बढ़ाया जा रहा है।

ऑपरेशन ग्रीन हंट छत्तीसगढ़ के साथ छह राज्यों में और फैला दिया गया है। इसका अर्थशास्त्र है कॉर्पोरेटाइजेशन। कारपोरेट की खुली लूट। टाटा व एस्सार ने सलवा जूडूम को चलाने में खुलकर हिस्सेदारी की। अब पूरा कारपोरेट सेक्टर व उसका संगठन,उसकी सरकार व न्यायपालिका खुलकर भागीदारी में उतर रही हैं। यह बिडम्बना नहीं बल्कि क्रूर सच्चाई है कि कारपोरेट सेक्टर की आपसी लड़ाई में वेदांता का एक पंख कतरकर राहुल गांधी को नियामगिरी व आदिवासियों का ‘सिपाही’ घोषित कर दिया जाता है, आदिवासी महिलाओं के साथ मार्च पास्ट कराया जाता है। वहीं आदिवासी समुदाय के मूलभूत जीवन के अधिकार के पक्ष में मांग उठाने वाले एक डाक्टर को,जो उनके बीच जीवन गुजारते हुए गरीबों और बीमारों की सेवा करता है उसे ‘देशद्रोही’ घोषित कर दिया जाता है।

ऐसा लगता है अब समय आ चुका है कि न्याय के नए पाठ के साथ शब्द का अर्थ-विमर्श भी बदल दिया जाय। यहीं से यह स्वीकार किया जाय कि इस कारपोरेट राज में देश की 90करोड़ आबादी देशद्रोही है...न्याय के चौखट पर जाकर मुहर लगवाने का इंतजार क्यों करना है ....जिस गति से देशद्रोह के मुकदमे बढ़ रहे हैं उससे कल हम या आप कोई भी हो सकता है देशद्रोह का अभियुक्त ...सजा ए आजीवन ... या सजा ए मौत ...



लोगों के हिस्सा हैं विनायक सेन

अंजनी कुमार


सब कुछ वैसे ही था
जैसा दिसंबर महीने के अंतिम हफ्तों में होता है
बर्फीली हवा, कोहरे का धुंध, थोड़ी सी धूप...


आज की सुबह भी ऐसी ही थी,
बाहर पार्क में योगासन के कई झुंड
प्राणायाम और सूर्यासन में मगन थे,
कुछ हंसी योग में होड़ लगा हंस रहे थे...


सबकुछ वैसे ही था
जैसा रोज ही रहता है मुहल्ला, शहर, देश...
जैसे रोज ही रहता है बालकनी  में अखबार
सुबह सुबह की चाय
और उसके बाद नाश्ता व टिफिन में बंद लंच।।


सब कुछ वैसे ही था
सब कुछ वैसे ही चल रहा था
लोग भुगत रहे थे कीमतें
लोग पढ़ रहे थे भ्रष्टाचार की खबरें
लोग चिंतित थे, अचंभित थे, और कद्रदान थे नीरा राडिया के
लोग बेखबर थे बनानादेश के जुमलों से
यहां सबकुछ चलता है- लोग यही जानते थे
और दिनचर्या में व्यस्त थे, अभ्यस्त थे।।


सब कुछ वैसे ही था
प्रधानमंत्री का भाषण, विपक्ष का बयान, तीसरे मोर्चे का चिंतन
सबकुछ वैसे ही चल रहा था, बढ़ रहा था-
मुद्रास्फीत की दर, जेल, मुकद्मा, सजा...
करोड़ों अनाम बेनाम लोगों का जीवन ऐसे ही चल रहा था
ऐसे ही लोगों के हिस्सा हैं विनायक सेन
आजीवन सजायाफ्ता...


और मैं हूँ  कि भागा जा रहा था बड़े नाम के पीछे,
देश के एक नागरिक के पीछे
देश के संप्रभु-लोकतंत्र के पीछे....यह जानते हुए भी
कि यह देश ऐसे ही चल रहा है
सबकुछ वैसे ही चल रहा है....।।



  • लेखक राजनितिक-सामाजिक कार्यकर्त्ता और स्वतंत्र पत्रकार  हैं.उनसे anjani.dost@yahoo.co.in पर संपर्क किया जा सकता है.

Dec 25, 2010

विनायक सेन को समर्पित


आज हम भारी मन से आप सभी से मुखातिब हैं.जैसा कि मौजूदा सत्ता-समीकरण से अन्देशा था छत्तीसगढ़ की एक अदालत ने डाक्टर विनायक सेन और दो अन्य लोगों को देश-द्रोह के आरोप में उमर क़ैद की सज़ा सुनायी है.

 

ज़ाहिर है कि मौजूदा सत्ताधारी -उनका रंग चाहे जो भी हो,भगवे से ले कर हरा और सफ़ेद -विनायक सेन को सलाख़ों के पीछे ही रखना चाहते हैं.इसलिए उन पर झूठे आरोप लगा कर उन्हें क़ैद में रखे रहने की साज़िश की जा रही है.असलियत यह है कि डाक्टर विनायक सेन छत्तीसगढ़ में अत्यन्त लोकप्रिय हैं.उन्होंने न केवल वहां आदिवासियों और आम जनता को ऐसे समय चिकित्सा उपलब्ध करायी है जब सरकारी तन्त्र नाकारा साबित हुआ है,बल्कि आदिवासियों की हत्या करने वाले सरकार समर्थित गिरोह सल्वा जुडुम का कड़ा विरोध भी किया है.

ध्यान रहे कि जहां विनायक सेन जैसी मेधा और गुणों वाले डाक्टर समृद्धि की सीढ़ियों का सन्धान करते हैं वहां विनायक सेन ने स्वेच्छा से तकलीफ़ों वाला मार्ग चुना है.लेकिन सच्चे देशभक्तों को अक्सर देशद्रोही क़रार देकर सज़ाएं दी जाती रही हैं. इसलिए आज  हम तुर्की के महान कवि नाज़िम हिकमत की वह मशहूर कविता पेश कर रहे हैं जो उन्होंने तुर्की की तानाशाही द्वारा क़ैद किये जाने की दसवीं सालगिरह पर लिखी थी. यह कविता विनायक  को समर्पित करते हैं - नीलाभ  



जब से मुझे इस गड्ढे में फेंका गया

नाज़िम हिकमत

जब से मुझे इस गड्ढे में फेंका गया
पृथ्वी सूरज के गिर्द दस चक्कर काट चुकी है

अगर तुम पृथ्वी से पूछो, वह कहेगी -
‘यह ज़रा-सा वक़्त भी कोई चीज़ है भला!’
अगर तुम मुझसे पूछो, मैं कहूँगा -
‘मेरी ज़िन्दगी के दस साल साफ़!’

जिस रोज़ मुझे कैद किया गया
एक छोटी-सी पेंसिल थी मेरे पास
जिसे मैंने हफ़्ते भर में घिस डाला।
अगर तुम पेंसिल से पूछो, वह कह कहेगी -
‘मेरी पूरी ज़िन्दगी!’
अगर तुम मुझसे पूछो, मैं कहूँगा -
‘लो भला, एक हफ़्ता ही तो चली!’

जब मैं पहले-पहल इस गड्ढे में आया -
हत्या के जुर्म में सज़ा काटता हुआ उस्मान
साढ़े सात बरस बाद छूट गया।
बाहर कुछ अर्सा मौज-मस्ती में गुज़ार
फिर तस्करी में धर लिया गया
और छै महीने बाद रिहा भी हो गया।
कल किसी ने सुना - उसकी शादी हो गयी है
आते वसन्त में वह बाप बनने वाला है ।

अपनी दसवीं सालगिरह मना रहे हैं वे बच्चे
जो उस दिन कोख में आये
जिस दिन मुझे इस गड्ढे में फेंका गया।
ठीक उसी दिन जनमे
अपनी लम्बी छरहरी टाँगों पर काँपते बछेड़े अब तक
चौड़े कूल्हे हिलाती आलसी घोड़ियों में
तबदील हो चुके होंगे।
लेकिन ज़ैतून की युवा शाख़ें
अब भी कमसिन हैं
अब भी बढ़ रही हैं।

वे मुझे बताते हैं
नयी-नयी इमारतें और चौक बन गये हैं
मेरे शहर में जब से मैं यहाँ आया
और उस छोटे-से घर मेरा परिवार
अब ऐसी गली में रहता है,
जिसे मैं जानता नहीं,
किसी दूसरे घर में
जिसे मैं देख नहीं सकता।

अछूती कपास की तरह सफ़ेद थी रोटी
जिस साल मुझे इस गड्ढे में फेंका गया
फिर उस पर राशन लग गया
यहाँ, इन कोठरियों में
काली रोटी के मुट्ठी भर चूर के लिए
लोगों ने एक-दूसरे की हत्याएँ कीं।
अब हालात कुछ बेहतर हैं
लेकिन जो रोटी हमें मिलती है,
उसमें कोई स्वाद नहीं।

जिस साल मुझे इस गड्ढे में फेंका गया
दूसरा विश्वयुद्ध नहीं शुरू हुआ था,
दचाऊ के यातना शिविरों में
गैस-भट्ठियाँ नहीं बनी थीं,
हीरोशिमा में अणु-विस्फोट नहीं हुआ था।

आह, समय कैसे बहता चला गया है
क़त्ल किये गये बच्चे के रक्त की तरह।

वह सब अब बीती हुई बात है।
लेकिन अमरीकी डालर
अभी से तीसरे विश्वयुद्ध की बात कर रहा है।

तिस पर भी, दिन उस दिन से ज़्यादा उजले हैं
जबसे मुझे इस गड्ढे में फेंका गया।
उस दिन से अब तक मेरे लोगों ने ख़ुद को
कुहनियों के बल आधा उठा लिया है
पृथ्वी दस बार सूरज के गिर्द
चक्कर काट चुकी है...

लेकिन मैं दोहराता हूँ
उसी उत्कट अभिलाषा के साथ
जो मैंने लिखा था अपने लोगों के लिए
दस बरस पहले आज ही के दिन :

‘तुम असंख्य हो
धरती में चींटियों की तरह
सागर में मछलियों की तरह
आकाश में चिड़ियों की तरह
कायर हो या साहसी, साक्षर हो या निरक्षर,
लेकिन चूँकि सारे कर्मों को
तुम्हीं बनाते या बरबाद करते हो,
इसलिए सिर्फ़ तुम्हारी गाथाएँ
गीतों में गायी जायेंगी।’

बाक़ी सब कुछ
जैसे मेरी दस वर्षों की यातना
फ़ालतू की बात है।

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कवि परिचय - नाज़िम हिकमत (1902-63) की कविता तुर्की ही नहीं, दुनिया की सारी शोषित मानवता के दुख-सुख, कशमकश और संघर्ष को जुबां देती है.सभी सच्चे कवियों की तरह नाज़िम ने अपने देश की सतायी गयी जनता के हक़ में आवाज़ बुलन्द की थी और उन लोगों की गाथाओं को अपनी कविता में अंकित किया था जो उन्हीं के शब्दों में "धरती में चींटियों की तरह, सागर में मछलियों की तरह और आकाश में चिड़ियों की तरह" असंख्य हैं, जो वास्तव में सारे कर्मों के निर्माता हैं।

फैसला खून की रफ़्तार बढ़ा गया 'माइलॉर्ड'


देश में पूरी तरह से जीर्ण शीर्ण हो चुकी बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं को पुनर्स्थापित करने में लगे विनायक सेन ने कभी नक्सली हिंसा का समर्थन  नहीं किया, पर वो राज्य समर्थित हिंसा के भी हमेशा खिलाफ रहे,चाहे वो सलवा जुडूम हो या फिर छतीसगढ़ के जंगलों में चलाया जा रहा अघोषित युद्ध...

आवेश तिवारी

 
घोटालों,भ्रष्ठाचार,आतंक और राजनैतिक वितंडावाद से जूझ रहे इस देश में अदालतों का चेहरा भी बदल गया है. ये अदालतें अब आम आदमी की अदालत नहीं रही गयी हैं.  न्याय की देवी की आँखों में बन्दे काले पट्टे ने समूची न्यायिक प्रणाली को काला कर दिया है.जज राजा है,वकील दरबारी और हम आप वो फरियादी हैं जिन्हें फैसलों के लिए आसमान की ओर  देखने की आदत पड़ चुकी है.

बिनायक सेन को उम्र कैद की सजा हिंदुस्तान की न्याय प्रक्रिया का वो काला पन्ना है जो ये बताता है कि अब भी देश में न्याय का चरित्र अंग्रेजियत भरा है जो अन्याय,असमानता और राज्य उत्प्रेरित जनविरोधी और मानवताविरोधी परिस्थितियों के साए में लोकतंत्र को जिन्दा रखने की दलीलें दे रहा है. सिर्फ बिनायक सेन ही क्यूँ देश के उन लाखों आदिवासियों को भी इस न्याय प्रक्रिया से सिर्फ निराशा हाँथ लगी हैं जिन्होंने अपने जंगल अपनी जमीन के लिए इन अदालतों में अपनी दुहाई लगाई. खुलेआम देश को गरियाने वाले देश- विदेश घूम घूम कर हिंदुस्तान के खिलाफ विषवमन करते हैं,और संवेदनशील एवं न्याय आधारित व्यवस्था का समर्थन करने वालों को सलाखों में ठूंस दिया जाता है.

बिनायक सेन की सजा के आधार बनने वाले जो सबूत छत्तीसगढ़ पुलिस ने प्रस्तुत किये,वो अपने आप में कम हास्यास्पद नहीं है.पुलिस द्वारा मदन लाल बनर्जी का लिखा एक पत्र प्रस्तुत किया गया जिसमे बिनायक सेन को कामरेड बिनायक सेन कह कर संबोधित किया गया है.एक और पत्र है जिसका शीर्षक है कि "कैसे अमेरिकी साम्राज्यवाद के विरोध में फ्रंट बनाये",इनके अलवा कुछ लेख कुछ पत्र जिन पर बकायदे जेल प्रशासन की मुहर है सबूत के तौर पर प्रस्तुत की गयी.


भगत सिंह और सुभाष चद्र बोस जिंदाबाद के नारे लिखे कुछ पर्चे भी इनमे शामिल हैं.अदालत ने अपने फैसले में सजा का आधार जिन चीजों को माना है वो देश  के किसी भी पत्रकार समाजसेवी के झोले की चीजें हो सकती हैं. बिनायक सेन चिकित्सक हैं अन्यथा  पुलिस एक कट्टा ,कारतूस या फिर एके -४७ दिखाकर और कुछ एक हत्याओं में वांछित दिखाकर उन्हें फांसी पर चढवा देती.देश में माओवाद के नाम पर जिनती भी गिरफ्तारियां या हत्याएं हो रही हैं चाहे वो सीमा आजाद की गिरफ्तारी हो या हेमचंद की हत्या सबमे छल ,कपट और सत्ता की साजिशें मौजूद थी.

साजिशों के बदौलत सत्ता हासिल करने और फिर साजिश करके उस सत्ता को कायम रखने का ये शगल अब नंगा हो चुका है.माओवादियों के द्वारा की जाने वाली हत्याएं जितनी निंदनीय हैं उनसे ज्यादा निंदनीय फर्जी मुठभेड़ें और बेकसूरों की गिरफ्तारियां हैं क्यूंकि इनमे साजिशें और घात भी शामिल हैं.बिनायक सेन एक चिकित्सक हैं वो भी बच्चों के चिकित्सक ,देश में पूरी तरह से जीर्ण शीर्ण हो चुकी बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं को पुनर्स्थापित करने को लेकर उनके जो उन्होंने कभी नक्सली हिंसा का सर्थन नहीं किया पर हाँ,वो राज्य समर्थित हिंसा के भी हमेशा खिलाफ रहे ,चाहे वो सलवा जुडूम हो या फिर छतीसगढ़ के जंगलों में चलाया जा रहा अघोषित युद्ध.

बिनायक खुद कहते हैं "माओवादियों और राज्य ने खुद को अलग अलग कोनों पर खड़ा कर दिया है,बीच में वो लाखों जनता हैं जिसकी जिंदगी दोजख बन चुकी है.ऐसे में एक चिक्तिसक होने के नाते मुझे गुस्सा आता है जब इन दो चक्कियों के बीच फंसा कोई बच्चा कुपोषित होता है या किसी माँ का बेटा उसके गर्भ में ही दम तोड़ देता है ,क्या ऐसे में जरुरी नहीं है कि हिंसा चाहे इधर की हो या उधर की रोक दी जाए,और एक सुन्दर और सबकी दुनिया ,सबका गाँव सबका समाज बनाया जाए".

कम से कम एक मुद्दा ऐसा है जिस पर देश के सभी राजनैतिक दल एकमत हैं वो है नक्सली उन्मूलन के नाम पर वन,वनवासियों और आम आदमी के विरुद्ध छेड़ा गया युद्ध.भाजपा और कांग्रेस जो अब किसी राजनैतिक दल से ज्यादा कार्पोरेट फर्म नजर आती हैं,निस्संदेह इसकी आड़ में बड़े औद्योगिक घरानों के लिए लाबिंग कर रही हैं. वहीँ वामपंथी दलों के लिए उनके हाशिये पर चले जाने का एक दशक पुराना खतरा अब नहीं तब उनके अंतिम संस्कार का रूप लेता नजर आ रहा है.  ये पार्टियाँ भूल जा रही है कि देश में बड़े पैमाने पर एक गृह युद्ध की शुरुआत हो चुकी है, भले ही वो वैचारिक स्तर पर क्यूँ न लड़ा जा रहा हो.


विश्वविद्यालों की कक्षाओं से लेकर ,कपडा लत्ता बेचकर चलाये जाने वाले अख़बारों,पत्रिकाओं और इंटरनेट पर ही नहीं निपढ निरीह आदिवासी गरीब,शोषित जनता के जागते सोते देखे जाने वाले सपनों में भी ये युद्ध लड़ा जा रहा है.हम बार बार गिरते हैं और फिर उठ खड़े होते हैं. हाँ ,ये सच है, विनायक सेन जैसों के साथ लोकतंत्र की अदालतों का इस किस्म का गैर लोकतान्त्रिक फैसला रगों में दौड़ते खून की रफ़्तार को बढ़ा देता हैं,ये युद्ध आजादी के पहले भी जारी थी और आज भी है



 
पत्रकार  आवेश तिवारी  network6.com  वेबसाइट  के  संचालक हैं ,उनसे  awesh29@gmail.com  पर संपर्क किया जा सकता है।
 
 
 
 
 

Dec 24, 2010

लोग बीमार हैं,चलो डाक्टर को छुड़ा लायें !


विनायक सेन की पहली गिरफ्तारी पर  बगरुमनाला स्वास्थ्य   केंद्र पर मिली   शांति  बाई ने रोते हुए कहा था 'डॉक्टर साहब की गिरफ्तारी के बाद न जाने कितने सौ मरीज लौटकर चले गये। मेरा दिल कहता है अगर हम लोग डॉक्टर को नहीं बचा सके तो अपने बच्चों को भी नहीं बचा पायेंगे।'

अजय प्रकाश

डॉक्टर विनायक सेन, शिशुरोग विशेषज्ञ अब  छत्तीसगढ़ में अपने अस्पताल बगरूमवाला में नहीं रायपुर केंद्रीय कारागार में मिलते हैं। जहां मरीज नहीं,बल्कि डॉक्टर सेन को जेल से मुक्त कराने में प्रयासरत वकील,बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्त्ता  और दो बेटियां एवं पत्नी इलिना  सेन पहुंचती हैं.

छत्तीसगढ़ सरकार की निगाह में विनायक सेन देशद्रोही हैं और अब कोर्ट ने भी कह दिया है.यह सजा उन्हें  इसलिए दी गयी है कि उन्होंने डॉक्टरी के साथ-साथ एक जागरूक नागरिक के बतौर सामाजिक कार्यकर्त्ता  की भी भूमिका निभायी है। विनायक सेन को राजद्रोह,छत्तीसगढ़ विशेष जनसुरक्षा कानून 2005 और गैरकानूनी गतिविधि (निवारक) कानून जैसी संगीन धाराओं के तहत गिरफ्तार किया गया है और अब अदालत ने भी आजीवन कारावास की सजा मुकर्रर कर दी है.
 

बगरुमनाला स्वास्थ्य केंद्र पर डॉ  विनायक

डॉक्टर विनायक पीयूसीएल के छत्तीसगढ़ इकाई के महासचिव और राष्ट्रीय उपाध्यक्ष से नक्सलियों के मास्टरमाइंड  उस समय हो गये जब रायपुर रेलवे स्टेशन से गिरफ्तार पीयूष गुहा ने यह बताया कि उनसे जब्त तीनों चिट्ठियां (दो अंग्रेजी, एक बंग्ला) नक्सली कमाण्डर को सुपुर्द  करने के लिये थीं. मगर उसमें यह तथ्य नहीं है कि चिट्ठियां विनायक सेन से प्राप्त हुयीं। दूसरी बात जिसे कई बार कोर्ट में  पीयूष गुहा ने कहा भी है कि उसे एक मई को गिरफ्तार किया गया,जबकि एफआईआऱ छह मई को दर्ज  हुयी।

मतलब साफ है कि पुलिस ने पीयूष गुहा  को छह दिन अवैध हिरासत में रखा। पुलिस को पीयूष गुहा के बयान के अलावा और कोई भी पुख्ता सुबूत विनायक सेन के खिलाफ नहीं मिल सका। विनायक सेन कि गिरफ्तारी का आधार पुलिस ने बुजुर्ग  नक्सली नेता नारायण सन्याल से तैंतीस बार मिलने  तथा उन चिट्ठियों को ही बनाया जो नारायण ने जेल में मुलाकात के दौरान विनायक को सौंपी थी। हालांकि विनायक सेन के घर से प्राप्त हुईं इन सभी चिट्ठियों पर जेल प्रशासन  की मुहर थी और जेलर ने पत्र को अग्रसारित किया था।

पहली बार गिरफ्तारी के समय विनायक सेन के पदार्फाश  की कुछ उम्मीद पुलिस को उनके घर से जब्त सीडी से बंधी थी, लेकिन वह भी मददगार साबित न हो सकी। यही नहीं, सनसनीखेज सुबूत का दावा तब किया गया जब सेन के कम्प्यूटर को पुलिस उठा लायी। इसके अलावा नक्सली सहयोगी होने के प्रमाण के तौर पर उनके घर से जो सामग्री और स्टेशनरी जो जब्त की गयी थी, उस आधार पर देश के लाखों बुद्धिजीवियों और करोंड़ों नागरिकों को सरकार गिरफ्तार कर सकती है।

विनायक सेन की गिरफ्तारी को जायज ठहराने में लगा पुलिस बल सुबूतों को जुटाने के मामलों में मूर्खताओं की हदें पार कर गया था। पीपुल्स मार्च (अब प्रतिबंधित) पत्रिका की  एक प्रति, एक अन्य वामपंथी पत्रिका, अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ अंग्रेजी में लिखा गया हस्तलिखित पर्चा, साम्यवादी नेता लेनिन की पत्नी क्रुप्स्काया  द्वारा लिखित पुस्तक 'लेनिन',रायपुर जेन में सजायाफ्ता माओवादी मदनलाल का पत्र जिसमें उसने जेल को अराजकताओं-अनियमितताओं को उजागर किया तथा कल्पना कन्नावीरम का इपीडब्ल्यू (इकॉनोमिकल एण्ड पोलिटिकल वीकली) में छपे लेखों  को भी पुलिस ने जब्त किया था। जाहिर है इन सबूतों कि बिना पर कोई सजा नहीं बनती, मगर सत्र न्यायाधीश पी. बी. वर्मा ने विनायक सेन को आजीवन कारावास की सजा सुनाई है. इससे आहत हो विनायक सेन की पत्नी इलिना सेन ने शुक्रवार 24 दिसम्बर 2010 को हुए फैसले को लोकतंत्र का काला दिन  कहा है.
 

विनायक सेन : देश के लिए देशद्रोही


बहरहाल, पहली गिरफ्तारी१६ मई २००७ के समय विनायक सेन के खिलाफ ढीले पड़ते सुबूतों के मद्देनजर पुलिस ने कुछ नये तथ्य भी कोर्ट  को बताये थे, जिसमें राजनादगांव और दंतेवाड़ा के पुलिस अधीक्षकों ने नक्सलियों से ऐसा साहित्य बरामद किया  जिसमें विनायक सेन  की चर्चा थी. यानी कल   को माओवादियों के साहित्य या राजनीतिक   पुस्तकों में किसी साहित्यकार,इतिहासकार या सामाजिक  आन्दोलनों से जुड़े लोगों की चर्चा हो तो वे आतंकवाद निरोधक कानूनों के तहत गिरफ्तार किये जा सकते हैं।

विनायक देश के पहले ऐसे नागरिक हैं जिन्होंने छत्तीसगढ़ राज्य द्वारा चलाये जा रहे दमनकारी अभियान सलवा जुडूम का विरोध किया था। इतना ही नहीं राष्ट्रीय स्तर पर फैक्ट फाइडिंग टीम गठित कर दुनियाभर को इत्तला किया कि यह नक्सलवादियों के खिलाफ आदिवासियों  का स्वतः स्फूर्त  आंदोलन नहीं बल्कि टाटा, एस्सार, टेक्सास आदि  के लिये जल, जंगल, जमीनों को खाली कराना है, जिसपर कि माओवादियों के कारण साम्राज्यवादियों का कब्जा नहीं हो सका है।


माओवादी हथियारबंद हो जनता को गोलबंद किये हुये हैं इसलिये सरकार के लिये संभव ही नहीं है कि उनके आधार इलाकों मे कत्लेआम मचाये बिना कब्जा कर ले। खासकर, तब जब जनता भी अपने संसाधनो को देने से पहले अंतिम दम तक लड़ने के लिये तैयार है। दमनकारी हुजूम यानी 'सलवा जुडूम'की नंगी सच्चाई के सामने आने से राज्य सरकार तिलमिला गयी। जिसके ठीक बाद बस्तर क्षेत्र के तत्कालीन डीजीपी सवर्गीय  राठौर ने कहा था कि 'मैं विनायक सेन और पीयूसीएल  दोनों को देख लूंगा।''

यहां तक कि इलिना (विनायक सेन की पत्नी) पर भी पुलिस ने आरोप लगाया कि उन्होंने अनिता श्रीवास्तव नामक फरार नक्सली महिला की मदद की। यह सब चल ही रहा था कि इसी बीच विनायक सेन पर छत्तीसगढ़ के विलासपुर इलाके में काम कर रहे धर्मसेना  नाम के एक हिन्दू संगठन ने  धर्मान्तरण  का आरोप मढ़ना शुरू कर दिया। धर्मसेना के इस कुत्सा प्रचार का वहां  के दर्जनों गांवों के हजारों नागरिकों ने विरोध किया।

छत्तीसगढ़ के मजदूर नेता शंकर गुहा नियोगी के अनुभवों और अपनी वर्गीय  दृष्टि की ऊर्जा को झोंककर जो संस्थाएं  विनायक सेन ने खड़ी की, वह उदाहरणीय हैं। कहना गलत न होगा कि विनायक सेन नेता नहीं हैं, मगर जनता के आदमी हैं। वह इसलिए कि छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से लगभग 150किलोमीटर दूर धमतरी जिले के बगरुमनाला और कुछ अन्य गांवों में विनायक आदिवासियों की सेवा में निस्वर्ट भाव से लगे रहे.

डॉ. सेन देश के दूसरे नम्बर के बड़े आयुविर्ज्ञान संस्थान सीएमसी वेल्लुर से एमडी, डीसीएच हैं। चिकित्सा के क्षेत्र में दिये जाने वाले विश्व स्तर के पुरस्कार पॉल हैरिसन पुरस्कार और जोनाथन मैन अवार्ड  से वे नवाजे जा चुके हैं। वर्ष 1992से धमतरी जिले के बागरूमवाला गांव में सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र संचालित करने वाले विनायक सेन ने सामान्तर सामुदायिक शिक्षा केन्द्रों की स्थापना की। डॉक्टर को यह साहस और अनुभव छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के संस्थापक स्वर्गीय शंकर गुहा नियोगी से मिला। गौरतलब है कि डॉक्टर सेन इस क्षेत्र में १९७८ से कम कर रहे हैं.

सवाल उठता है कि क्या यह सब करते हुये विनायक सेन अपने डॉक्टरी कर्तव्य को भी बखूबी निभा पाये। बगरुमनाला के स्वस्थ्य  केंद्र की  पिछले बारह वर्षों से देखरेख कर रहीं शांतिबाई ने कहती हैं कि 'डॉक्टर साहब को चौदह साल से जानती हूं। उन्होंने हमलोगों के लिए अपनी जिंदगी लगा दी.हम अकेली नहीं हूं जो डॉक्टर साहब के बारे में ऐसा मानती हूं। यहां से तीन दिन पैदल चलकर जिन गांव-घरों में आप पहुंच सकते हैं उनसे पूछिये डॉक्टर साहब कैसा आदमी है,बगरूमनाला के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में कैसा इलाज होता है.'

विनायक सेन की पहली गिरफ़्तारी के बाद हुई मुलाकात में शांतिबाई ने रोते हुए कहा था 'डॉक्टर साहब की गिरफ्तारी के बाद न जाने कितने सौ मरीज लौटकर चले गये। मेरा दिल कहता है अगर हम लोग डॉक्टर को नहीं बचा सके तो अपने बच्चों को भी नहीं बचा पायेंगे।'


देश के लिए देशद्रोही


माओवादी नेता नारायण सान्याल से मुलाकातों को लेकर वह हमेशा कहते रहे हैं कि मैं इसे गुनाह नहीं मानता। एक डॉक्टर और मानवाधिकार कार्यकर्ता होने के नाते मेरा फर्ज है कि मैं कानून की सहायता चाहने वालों और अस्वस्थ्य लोगों से मिलूं...


जनज्वार टीमसामाजिक कार्यकर्ता डॉक्टर विनायक सेन को छत्तीसगढ़ की एक कोर्ट ने देशद्रोह का अपराधी बताते हुए शुक्रवार को आजीवन कारावास की सजा सुनायी है। विनायक सेन के साथ सीपीआइ(माओवादी)के बुजूर्ग नेता नारायण सान्याल और पीयूष गुहा को भी उम्रकैद की सजा हुई है। इन सभी पर आइपीसी की धारा 124ए,124बी और छत्तीसगढ़ जनसुरक्षा अधिनियम के तहत मुकदमा दर्ज है।

विनायक सेन को यह सजा जेल में बंद माओवादी नेता नारायण सान्याल की चिट्ठयां जेल से बाहर ले जाने, चिट्ठियां भूमिगत माओवादियों तक पहुंचाने और इन चिट्ठियों के जरिये माओवादी आधार क्षेत्रों का विस्तार किये जाने के अपराध में दी गयी है। नारायन सान्याल माओवादी पार्टी के पोलित ब्यूरो सदस्य हैं और उनकी उम्र करीब 80 वर्ष है।
विनायक सेन : हार की जीत                          फोटो -शैलेन्द्र

मुकदमें की सुनवाई करते हुए जिला और सत्र न्यायधीश बीपी वर्मा ने इन सभी को षड़यंत्र और देशद्रोह का अभियुक्त माना है। अदालत ने नारायण सान्याल और पीयूष गुहा को माओवादी होने के नाते आजीवन कारावास की सजा मुकर्रर की है। विनायक सेन अदालत में नारायण सान्याल और पीयूष गुहा के साथ ही उपस्थित हुए थे।

डॉक्टर विनायक सेन गिरफ्तारी 14 मई 2007 को बिलासपुर में हुई थी। जेल में दो वर्ष की सजा काटने के बाद 58 वर्षीय विनायक सेन को सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद मई 2009 में स्वास्थ्य कारणों से छोड़ दिया गया था जिन्हें फिर एक बार छत्तीसगढ़ पुलिस ने हिरासत में ले लिया है।

विनायक सेन सरकार के आरोपों अब सजा मुकर्रर होने की प्रक्रिया को मनगढंत और मानवाधिकार के खिलाफ साजिश मानते हैं। पेशे से डॉक्टर विनायक सेन छत्तीसगढ़ में उस समय चर्चा में आये थे जब उन्होंने माओवादियों से निपटने के बहाने छत्तीसगढ़ के आदिवासियों को सलवा जुडूम अभियान के बहाने तबाह-बर्बाद किया जा रहा था।

विनायक देश के पहले शख्सियत थे जिन्होंने सलवा-जुडूम के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक अभियान चलाया था। उसी अभियान का असर रहा कि उसे सर्वोच्च न्यायालय ने छत्तीसगढ़ सरकार को बंद करने का आदेश दिया था। विनायक सेन का कहना है कि ‘यह सजा सरकार के अत्याचारों के खिलाफ मुखर होने का प्रतिफल है।’माओवादी नेता नारायण सान्याल से मुलाकातों को लेकर वह हमेशा कहते रहे हैं कि ‘मैं इसे गुनाह नहीं मानता। एक डॉक्टर और मानवाधिकार कार्यकर्ता होने के नाते मेरा फर्ज है कि मैं कानून की सहायता चाहने वालों और अस्वस्थ्य लोगों से मिलूं। नारायण सान्याल से हुई मेरी मुलाकातें भी इन्हीं संदर्भों में हुई थीं।’

 
विनायक सेन के साथ नारायण सान्याल

जहां तक चिट्ठयों को जेल से बाहर ले जाने का सवाल है तो इस बारे में विनायक सेन कहते रहे हैं कि ‘मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल का पदाधिकारी होने के नाते मैं यह क्यों नहीं कर सकता था?जेल से नारायण सान्याल के लिखे जो भी पत्र मैं ले गया हूं उन सब पर जेल प्रशासन की मूहर है।’

प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता और शिक्षक इलीना सेन ने इसे लोकतंत्र का काला दिन कहा। इलीना सेन विनायक सेन की पत्नी हैं और गांधी हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा में डीन हैं। उन्होंने पति की गिरफ्तारी पर कहा कि ‘देश में गुंडे खुलेआम घूमते हैं और आदिवासियों और गरीबों के बीच जीवन गुजार देने वाले विनायक सेन को देशद्रोही करार दिया जाता है।’इलीना ने कहा कि जिला और सत्र न्यायालय के इस फैसले के खिलाफ उच्च न्यायालय में अपील करेंगी।

विनायक सेन की स्वास्थ्य के क्षेत्र में की गयी सेवाओं की दुनिया भर में बेहद कद्र है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वास्थ्य और मानवाधिकार क्षेत्र में काम के लिए उन्हें जोनाथन मैन सम्मान और पॉल हैरिसन पुरस्कार से नवाजा गया है। छत्तीसगढ़ के श्रमिक नेता शंकर   गुहानी योगी के साथ सामाजिक कामों की शुरूआत करने वाले विनायक सेन दल्ली राजहरा स्थित अस्पताल के प्रमुख डाक्टरों में रहे हैं और वे बाद में मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बने. गौरतलब है कि जब वे गिरफ्तार किये गए तो वह उपाध्यक्ष थे.  

छत्तीसगढ़  सरकार की निगाह में देशद्रोही और माओवादियों के शुभचिन्तक करार दिए गए विनायक सेन जब जेल से बाहर थे तब राज्य सरकार की सलाहकार समिति के सदस्य थे.सलाहकार रहने के दौरान उन्होंने छत्तीसगढ़ में गरीबों की बेहतर स्वस्थ सेवा के लिए जो सुझाव दिए थे बाद में उसी आधार पर सरकार ने वहां बहुचर्चित और सफल स्वस्थ सेवा 'मितानिन ' शुरू किया था. 

विनायक सेन डॉक्टरों की उस परंपरा से आते हैं जो सिर्फ दवा देना ही अपना कर्तव्य नहीं मानते बल्कि सामाजिक-आर्थिक हालात बदलने पर भी जोर देते हैं। यही वजह रही कि छत्तीसगढ़ में जब सलवा जुडूम के बहाने आदिवासियों के खिलाफ कॉरपोरेट और सरकारी साजिश शुरू हुई तो उन्होंने मुकम्मिल विरोध को सर्वाधिक बुलंदी के साथ राष्ट्रीय स्तर पर उठाया, जिसका खामियाजा उन्हें आज भूगतना पड़ रहा है।

राजा आज सीबीआइ से क्या कहेंगे !

विकास के नाम पर कॉरपोरेट को मुनाफा पहुंचा कर   मंत्रालय की उपलब्धि बताने के अलावे कोई दूसरा रास्ता मनमोहन इकनॉमिक्‍स में नहीं है।

पुण्य प्रसून बाजपेयी


सीबीआई के दरबार में ए.राजा आज (शुक्रवार)पेश होंगे। पूछताछ में ईडी और इन्कम टैक्स के अधिकारी समेत गृह मंत्रालय और आईबी के अधिकारी भी मौजूद होंगे। चूंकि छापों के बाद नौकरशाहों और कॉरपोरेट लॉबिस्ट नीरा राडिया से पूछताछ में यह सवाल खुल कर सामने आया है कि 2जी स्पेक्ट्रम के लाइसेंस जिन्हें बांटे गये उनके जरिये अफ्रीका, नार्वें, रुस, मलेशिया और यूएई के कंपनियों से तार जुडे। और हवाला रैकेट के जरिये ही करोड़ों के वारे-न्यारे महज छह महीने से एक साल के भीतर कर दिये गये।

जाहिर है ऐसे में सीबीआई उस सिरे को ही पकड़ना चाहेगी कि कहीं पूर्व टेलीकॉम मंत्री की भूमिका लाईसेंस के जरिये हवाला रैकेट में तो कुछ नहीं थी। क्योंकि यही सिरा राजा की गिरफ्तारी करवा सकता है और सीबीआई 90दिनों में ऐसी चार्जशीट दाखिल कर सकती है जिसमें 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला प्रधानमंत्री के हद से बाहर निकल कर सीधे हवाला रैकेट से जुड़ता दिखायी दे। और समूची जांच की दिशा ही देशी-बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उस खेल को पकड़ने में लग जाये जो देश में आर्थिक सुधार के साथ मनमोहन इकनॉमिक्‍स के जरिये विदेशी पूंजी की आवाजाही से शुरू हुआ।

लेकिन ए.राजा अगर स्पेक्ट्रम घोटाले के तार कॉरपोरेट संघर्ष की मुनाफाखोरी से जोड़कर उसमें राजनीति का तडका लगा देते हैं,तब क्या होगा। क्या तब यह सवाल खड़ा होगा कि टाटा या मुकेश अंबानी के लिये जो रास्ता नीरा राडिया मंत्रालयो में घूम-घूम कर बना रही थी उसके सामानांतर सुनील मित्तल या अनिल अंबानी के लिये कोई रास्ता बन नहीं पा रहा था।


इसलिये स्पेक्ट्रम का खेल बिगड़ा। और अगर स्पेक्ट्रम लाइसेंस के जरिये किसी कॉरपोरेट घराने को लाभ हुआ तो, जिसे घाटा हुआ उसने अदालत का दरवाजा क्यों नहीं खटखटाया। या फिर किसी भी कंपनी ने 2007-2009के दौर में अदालत जाकर यह सवाल क्यों खड़ा नहीं किया कि जिन कंपनियों ने कभी टेलीकॉम के क्षेत्र में कोई काम नहीं किया उन्‍हें स्‍पेक्‍ट्रम का आबंटन क्‍यों किया गया। फिर कैसे लाख टके में कंपनी बना कर एक झटके में करोड़ों का वारे-न्यारे स्पेक्ट्रम लाइसेंस पाते ही कर लिया। असल में अर्थव्यवस्था के सामने सरकार कैसे नतमस्तक होती चली गयी है। और कॉरपोरेट घरानों के मुनाफे में ही देश की चकाचौंध या देश की बदहाली सिमटती जा रही है। यह भी सरकार की आर्थिक नीतियों से ही समझा जा सकता है जिसके दायरे में राजा या राडिया महज प्यादे नजर आते हैं।

अगर राडिया देश के लिये खतरनाक है जैसा कि सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दायर अपने बताया है ,तो इसका जबाब कौन देगा कि जिन कंपनियों के लिये राडिया काम कर रही थी उनके मुनाफे के आधारों को क्या ईडी टोटलने की स्थिति में है। मुश्किल है। यह मुश्किल क्यों है इसे समझने से पहले जरा सरकार और कॉरपोरेट के संबंधों को समझना भी जरुरी है।

वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी खुद कहते है कि वह अंबानी बंधुओं को आज से नहीं बचपन से जानते हैं। यानी राजीव गांधी के दौर में जब धीरुभाई अंबानी मुश्किल में थे तब प्रणव मुखर्जी की कितनी करीबी धीरुभाई अंबानी से थी यह कांग्रेस की राजनीति का खुला पन्ना है। लेकिन नयी परिस्थिति में देश के तेल-गैस मंत्री मुरली देवडा मुकेश अंबानी के कितने करीबी हैं और देश के गृहमंत्री पी. चिदबरंम अनिल अंबानी से कितने करीबी हैं यह भी राजनीतिक गलियारे में किसी से छुपा नहीं है।

दस  जनपथ से अनिल अंबानी की दूरी भी किसी से छुपी नहीं है और अनिल अंबानी के मुनाफे के लिये मुलायम सिंह ने समाजवादी राजनीति को कैसे हाशिये पर ढकेल दिया यह भी किसी से छुपा नहीं है। लेकिन मनमोहन की इकनॉमी में जब संसदीय राजनीति ही हाशिये पर है तो फिर सरकार से ऊपर कॉरपोरेट हो इससे इंकार कैसे किया जा सकता है।

हो सकता है ए.राजा सीबीआई को खुल्लम-खुल्ला यही कह दें कि सुनील मित्तल और अनिल आंबानी की लॉबी स्पेक्ट्रम लाईसेंस में नहीं चली इसलिये उन्हें बली का बकरा बनाया जा रहा है। या फिर सरकार में जब कामकाज का तरीका ही जब यही बना दिया गया है कि लॉबिस्टों के जरिये कॉरपोरेट काम करें और लॉबिस्टों को कॉरपोरेट का नुमाइंदा मानकर सरकार नीतियों को अमल में लाये,क्योंकि हर कॉरपोरेट से मंत्रियों के तार जुड़े हैं तो सीबीआई क्या करेगी। 

मनमोहन इकनॉमिक्‍स में तो नीरा राडिया सरीखे लॉबिस्टो को भी बकायदा मंत्रालयों में काम करने का लाइसेंस दिया जाता है। और 2008 में जब पहली बार नीरा राडिया को ब्लैकलिस्ट में डाला गया तो उस वक्त कुल 74 लॉबिस्ट काम कर रहे थे जिसमें ब्लैक लिस्ट के नाम में सिर्फ नीरा राडिया नहीं बल्कि 28 दूसरे लॉबिस्टो के भी नाम थे।

यह भी हो सकता है राजा सरकार के अलग अलग मंत्रालयों की उस पूरी भूमिका को लेकर चर्चा छेड़ दें कि कैसे मुंबई एयरपोर्ट के लिये अनिल अंबानी का नाम भी शॉर्टलिस्ट किया गया था,लेकिन आखिरी प्रक्रिया में इसे सुब्बीरामी रेड्डे के बेटे जीवीके रेड्डी को दे दिया गया। हो सकता है ए.राजा ऊर्जा मंत्रालय के जरिये बांटे जा रहे थर्मल पावर प्रोजेक्ट का कच्चा-चिट्टा देकर सवाल खडा करें कि लाइसेंस देने के लिये घूसखोरी तो एक कानूनी प्रक्रिया है। जैसे एनटीपीसी ने बीएचईएल को छत्तीसगढ़ में कितनी रकम लेकर पावर प्रोजेक्ट लगाने की इजाजत दी। और जो सवाल सुप्रीम कोर्ट ने यह कह कर उठाये हैं कि आखिर राष्ट्रीयकृत बैंकों ने भी कैसे स्पेक्ट्रम लाईसेंस के नाम पर टटपूंजिया कंपनियों को 10-10हजार करोड़ रुपये लोन दे दिये।

हो सकता है ए.राजा सीबीआई को वह पूरी प्रक्रिया ही समझाने लगें कि कैसे विकास के नाम पर देश में अब कॉरपोरेट घराने ऐसे-ऐसे प्रोजेक्ट पर सरकार से हरी झंडी ले चुके हैं जिनका कोई बेंच मार्क ही किसी को पता नहीं है। जैसे दस साल पहले पावर प्रोजेक्ट लगाने के नाम पर सरकार से लाईसेंस लेकर बैकों से कितनी भी उधारी ले ली जाती थी और पावर प्रोजेक्ट का लाईसेंस पाने वाली कंपनी का अपना टर्नओवर चंद लाख का होता था।

लेकिन देश में बिजली चाहिये और बिना उसके विकास अधूरा है तो ऊर्जा मंत्री की उपलब्धि भी जब यह होती कि उसके जरिये कितने पावर प्रोजेक्ट आ सकते है तो फिर लेन-देन कितने का हो रहा है। बैंक कितना लोन किस एवज में दे रहा है,इसकी ठौर तो आज भी नहीं ली जाती है। अब सरकार की तरफ से सिर्फ इतना ही किया गया है कि पावर प्रोजेक्ट लगाने वाली कंपनी से पूछा जा रहा है कि वह प्रति यूनिट बिजली बेचेगी कितने में। जिसका आश्वासन आज भी कोई पावर प्रोजेक्ट कंपनी नहीं दे रही है।

हो सकता है राजा स्पेक्ट्रम लाइसेंस के बंटवारे के दौर में एसईजेड के लाइसेंस के बंदर बांट का किस्सा भी छेड़ दें और बताने लगें कि कैसे राडिया एसईजेड को लेकर भी किस-किस कॉरपोरट के लिये किस-किस मंत्रालय में घूम-घूम कर लॉबिग कर रही थी। और कैसे निखिल गांधी जब सबसे पहले एसईजेड के प्रपोजल के साथ सरकार के दरवाजे पर पहुंचे थे,तो मुकेश अंबानी ने उस प्रपोजल को ही रुकवा कर सात सौ करोड़ में निखिल गांधी से एसईजेड का ब्लू-प्रिंट ही खरीद लिया था।

यानी कब,कैसे किस-किस कॉरपोरेट घराने की तूती सरकार और मंत्री से गठजोड कर चलती रही है और विकास के नाम पर कॉरपोरेट को मुनाफा पहुंचा कर मंत्रालय की उपलब्धि बताने के अलावे कोई दूसरा रास्ता भी मनमोहन इकनॉमिक्‍स में नहीं है। क्योंकि नार्थ-साउथ ब्‍लॉक के बीच दुनिया की सबसे खूबसूरत रायसीना हिल्स पर अगर रेड कारपेट किसी के लिये बिछी है तो वह कॉरपोरेट के लिये।

तो आज ए.राजा सीबीआई से पूछताछ में क्या कहेंगे जानना सभी यही चाहेगें। लेकिन हो सकता है कि सरकार ना चाहे कि राजा बहकें और फिर  सीबीआई राजा को पूछताछ के साथ गिरफ्तार कर फिलहाल 90दिनो के लिये स्पेक्ट्रम घोटाले का केस लाक कर दें। तो इंतजार कीजिये।


पुण्य प्रसून बाजपेयी ज़ी न्यूज़ में प्राइम टाइम एंकर और सम्पादक हैं। प्रसून देश के इकलौते ऐसे पत्रकार हैं,जिन्हें टीवी पत्रकारिता में बेहतरीन कार्य के लिए वर्ष २००५ का ‘इंडियन एक्सप्रेस गोयनका अवार्ड फ़ॉर एक्सिलेंस’और प्रिंट मीडिया में बेहतरीन रिपोर्ट के लिए 2007का रामनाथ गोयनका अवॉर्ड मिला। उनसे punyaprasun@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.यह लेख उनके ब्लॉग http://prasunbajpai.itzmyblog.com  से साभार लिया जा रहा है.