Sep 10, 2010

हिंदी अख़बारों की लघुपत्रिका में, सिरमौर बनी अंग्रेजी की उतरन


लोगों से दूर होती पत्रकारिता के बीच-बहस में कई दफा ऐसा हुआ जब हमने मृणाल को उन चिंताओं को सुनते और  साझा करते देखा.देखकर लगा कि संभव है मृणाल बदली होंगी.एक दीदी की याद में अख़बारों की लघुपत्रिका में उन्होंने जो फलसफा लिखा था उसके मर्म को बूझी होंगी और किसी के सामने भले नहीं, लेकिन खुद से उस जवाबदेही के प्रति गंभीर हुई होंगी,जिसकी वजह से उनकी दीदी का घर कुछ दिनों के लिए बेतरतीब हो गया था. 

मगर यह तो हमारा सोचना था, जो उन्हें पत्रकार मानते हैं. मृणाल तो पत्रकारिता को कभी दोस्तों की सुनवाई में तो कभी अंग्रेजियत की सरपरस्ती में कुर्बान किये देती हैं और लोग हैं जो  कहते हैं,लिखने के लिए कभी दिल्ली से दूर तो जाइये.'लाल क्रांति के सपने की कालिमा' लेख में मृणाल ने माओवादी पार्टी के नेताओं पर जो आरोप लगायें हैं और  जिन भटकावों की ओर इशारा किया है उसका आधार किसी एक पीड़िता से मुलाकात के बाद का भी होता तो लेख पर गौर किया जा सकता था.  लेकिन यहाँ तो अंग्रेजी के उतरन को ऐसे परोसा जा रहा है मानों जनसत्ता की कोई विशिष्ट खोज हो.
इन्ही प्रश्नों के जवाब  के लिए सरोकारी लेखकों को  जनज्वार आमंत्रित करता है.

लाल क्रांति के सपने की कालिमा

मृणाल वल्लरी

‘वे बलात्कारी हैं। यहां आते ही मैं समझ गयी थी कि अब कभी वापस नहीं जा पाऊंगी।’ मुंह पर लाल गमछा लपेटे उमा एक अंग्रेजी अखबार के पत्रकार को बताती है। उमा कोई निरीह और बेचारी लड़की नहीं है। वह एक माओवादी है। कई मिशनों पर बुर्जुआ तंत्र के पोषक सिपाहियों और लाल क्रांति के वर्ग शत्रुओं को मौत के घाट उतारने के कारण सरकार ने उस पर इनाम भी घोषित किया, लेकिन अपने लाल दुर्ग के अंदर उमा की भी वही हालत है, जो बुर्जुआ समाज में गरीब और दलित महिलाओं की।

बकौल उमा,माओवादी शिविरों में महिलाओं का दैहिक शोषण आम बात है। वह जब झारखंड के जंगलों में एक कैंप में ड्यूटी पर थी, तो भाकपा (माओवादी) ‘स्टेट मिलिटरी कमीशन’ के प्रमुख ने उसके साथ बलात्कार किया। उसने उमा को धमकी दी कि वह इस बारे में किसी को न बताये, लेकिन उमा ने यह बात किशनजी के करीबी और एक बड़े माओवादी नेता को बतायी। उमा के मुताबिक इस नेता की पत्नी किशनजी के साथ रहती है। लेकिन उमा की शिकायत पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। उसे इस मामले में चुप्पी बरतने की सलाह दी गयी।

नक्सल शिविरों में यह रवैया कोई अजूबा नहीं है। कई महिला कॉमरेडों को उमा जैसे हालात से गुजरना पड़ा। अपने दैहिक शोषण के खिलाफ मुखर हुई महिला कॉमरेडों को शिविर में अलग-थलग कर दिया जाता है। यानी क्रांतिकारी पार्टी में उनका राजनीतिक कॅरिअर खत्म। कॉमरेडों की सेना में शामिल होने के लिए महिलाओं को अपना घर-परिवार छोड़ने के साथ निजता का भी मोह छोड़ना पड़ता है।

उमा बताती है कि नक्सल शिविरों में बड़े रैंक का नेता छोटे रैंक की महिला लड़ाकों का दैहिक शोषण करता है। अगर महिला गर्भवती हो जाती है,तो उसके पास गर्भपात के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता। क्योंकि गर्भवती कॉमरेड क्रांति के लिए एक मुसीबत होगी। यानी देह के साथ उसका अपने गर्भ पर भी अधिकार नहीं। वह चाह कर भी अपने गर्भ को फलने-फूलने नहीं दे सकती। महिला कॉमरेड का गर्भ जब नक्सल शिविरों की जिम्मेदारी नहीं तो फिर बच्चे की बात ही छोड़ दें। शायद शिविर के अंदर कोई कॉमरेड पैदा नहीं होगा! उसे शोषित बुर्जुआ समाज से ही खींच कर लाना होगा। जैसे उमा को लाया गया था। उसे अपने बीमार पिता के इलाज में मदद के एवज में माओवादी शिविर में जाना पड़ा था।

माओवादियों की विचारधारा का आधार भी कार्ल मार्क्स हैं। उमा को पार्टी की सदस्यता लेने से पहले ‘लाल किताब’ यानी कम्युनिज्म का सिद्धांत पढ़ाया गया होगा। एक क्रांतिकारी पार्टी का सदस्य होने के नाते उम्मीद की जाती है कि नक्सल लड़ाकों को भी पार्टी कार्यक्रम की शिक्षा दी गयी होगी। उन्हें कम्युनिस्ट शासन में परिवार और समाज की अवधारणा बतायी गयी होगी। यों भी,पार्टी शिक्षण क्रांतिकारी पार्टियों की कार्यशैली का अहम हिस्सा होता है और होना चाहिए।

मार्क्सवादी-माओवादी लड़ाकों के लिए ‘कम्युनिस्ट घोषणा-पत्र’बालपोथी की तरह है,जिसमें मार्क्स ने कहा है – ‘परिवार का उन्मूलन! कम्युनिस्टों के इस ‘कलंकपूर्ण’ प्रस्ताव से आमूल परिवर्तनवादी भी भड़क उठते हैं। मौजूदा परिवार, बुर्जुआ परिवार, किस बुनियाद पर आधारित है? पूंजी पर, अपने निजी लाभ पर। अपने पूर्णत: विकसित रूप में इस तरह का परिवार केवल बुर्जुआ वर्ग के बीच पाया जाता है। लेकिन यह स्थिति अपना संपूरक सर्वहाराओं में परिवार के वस्तुत: अभाव और खुली वेश्यावृत्ति में पाती है। अपने संपूरक के मिट जाने के साथ-साथ बुर्जुआ परिवार भी कुदरती तौर पर मिट जाएगा, और पूंजी के मिटने के साथ-साथ ये दोनों मिट जाएंगे।’

एक कम्युनिस्ट व्यवस्था का परिवार पर क्या प्रभाव पड़ेगा? एंगेल्स कहते हैं कि ‘वह स्त्री और पुरुष के बीच संबंधों को शुद्धत: निजी मामला बना देगी, जिसका केवल संबंधित व्यक्तियों से सरोकार होता है और जो समाज से किसी भी तरह के हस्तक्षेप की अपेक्षा नहीं करता। वह ऐसा कर सकती है, क्योंकि वह निजी स्वामित्व का उन्मूलन कर देती है और बच्चों की शिक्षा को सामुदायिक बना देती है। और इस तरह से अब तक मौजूद विवाह की दोनों आधारशिलाओं को निजी स्वामित्व द्वारा निर्धारित पत्नी की अपने पति पर और बच्चों की माता-पिता पर निर्भरता – को नष्ट कर देती है। पत्नियों के कम्युनिस्ट समाजीकरण के खिलाफ नैतिकता का उपदेश झाड़ने वाले कूपमंडूकों की चिल्ल-पों का यह उत्तर है। पत्नियों का समाजीकरण एक ऐसा व्यापार है जो पूरी तरह से बुर्जुआ समाज का लक्षण है और आज वेश्यावृत्ति की शक्ल में आदर्श रूप में विद्यमान है। हालांकि वेश्यावृत्ति की जड़ें तो निजी स्वामित्व में हैं, और वे उसके साथ ही ढह जाएंगी। इसलिए कम्युनिस्ट ढंग का संगठन पत्नियों के समाजीकरण की स्थापना के बजाय उसका अंत ही करेगा।’

बुर्जुआ समाज साम्यवादियों की अवधारणा पर व्यंग्य करता है और मार्क्स भी उसका जवाब व्यंग्य में देते हैं। मार्क्स के मुताबिक,बुर्जुआ समाज में औरतों का इस्तेमाल एक वस्तु की तरह होता है। निजी संपत्ति की रक्षा के लिए राज्य आया और इसी निजी संपत्ति का उत्तराधिकारी हासिल करने के लिए विवाह। विवाह जैसे बंधन के कारण स्त्री निजी संपत्ति हो गयी। लेकिन उसी बुर्जुआ समाज में अपने फायदे के लिए औरतों का सार्वजनिक इस्तेमाल भी होता है। वह चाहे सामंतवादी राज्य हो या पूंजीवादी, सभी में औरत उपभोग की ही वस्तु रही। एक कॅमोडिटी।

आखिर कम्युनिस्ट शासन में परिवार कैसा होगा?इस शासन में निजी संपत्ति का नाश हो जाएगा, इसलिए संबंध भी निजी होंगे। कम्युनिस्ट शासन औरत और मर्द दोनों को निजता का अधिकार देता है। इन निजी संबंधों से पैदा बच्चों की परवरिश राज्य करेगा, इसलिए यह कोई समस्या नहीं होगी।

उमा की बातों को सच मानें तो कम्युनिज्म की यह अवधारणा नक्सल शिविरों में क्यों नहीं है?क्या मुकम्मल राजनीतिक शिक्षण के बिना पार्टी में कॉमरेडों की भर्ती हो जाती है?सोच के स्तर पर वे इतने अपरिपक्व क्यों हैं कि महिला कॉमरेडों के साथ व्यवहार के मामले में बुर्जुआ समाज से अलग नहीं होते। कम से कम नक्सल शिविरों में तो आदर्श कम्युनिस्ट शासन का माहौल दिखना चाहिए! लेकिन यहां तो महिला कॉमरेड एक ‘सार्वजनिक संपत्ति’ के रूप में देखी जा रही है।

कहीं भी एक ही प्रकार का शोषण अपने अलग-अलग आयामों के साथ अपनी मौजूदगी सुनिश्चित कर लेता है। उमा के मुताबिक अगर किसी बड़े कॉमरेड ने किसी महिला को ‘अपनी’घोषित कर दिया है तो फिर वह ‘महफूज’है। यानी उसकी निजता की सीमा उसके घोषित संबंध पर जाकर खत्म हो जाती है। अब उसके साथ एक पत्नी की तरह व्यवहार होगा। जो किसी की पत्नी नहीं,वह सभी कॉमरेडों की सामाजिक संपत्ति!

जंगल के बाहर के जिस समाज को अपना वर्ग-शत्रु मान कर माओवादी आंदोलन चल रहा है, क्या वहां महिला या देह के संबंध उसी बुर्जुआ समाज की तर्ज पर संचालित हो रहे हैं,जिससे मुक्ति की कामना के साथ यह आंदोलन खड़ा हुआ है?जबकि एंगेल्स कम्युनिस्ट शासन में इस स्थिति के खात्मे की बात करते हैं। लेकिन कॉमरेडों ने शायद किसी रटंतू तरह एंगेल्स का भाषण याद किया और भूल गये।

वहीं आधुनिक बुर्जुआ समाज में महिलाओं की निजता के अधिकार की सुरक्षा के लिए कई उपाय किये गये हैं। यह दूसरी बात है कि व्यावहारिक स्तर पर ये अधिकार कुछ लड़ाकू महिलाएं ही हासिल कर पाती हैं। लेकिन इसी समाज में अब वैवाहिक संबंधों में भी बलात्कार का प्रश्न उठाया गया है। यानी विवाह जैसे सामाजिक बंधन में भी निजता का अधिकार दिया गया है। एक ब्याहता भी अपनी मर्जी के बिना बनाये गये शारीरिक संबंधों के खिलाफ अदालत में जा सकती है। कार्यस्थलों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए यौन हिंसा की बाबत कई कानून बनाये गये हैं।

यहां बुर्जुआ समाज का व्यवहार जनवादी दिखता है। लेकिन गौर करने की बात यह है कि पूंजीवादी समाज में भी महिलाओं को अपने शरीर से संबंधित ये अधिकार खैरात में नहीं मिले हैं। पश्चिमी देशों में चले लंबे महिला आंदोलनों के बाद ही स्त्रियों के अधिकारों को तवज्जो दी गयी। यह भी सही है कि महिला अधिकारों के कानून बनते ही सब कुछ जादुई तरीके से नहीं बदल गया। अभी इन अधिकारों के लिए समाज में ठीक से जागरूकता भी नहीं पैदा हो सकी है कि अतिरेक मान कर इन कानूनों का विरोध किया जाने लगा है। दहेज, घरेलू हिंसा या यौन शोषण के खिलाफ बने कानूनों को समाज के अस्तित्व के लिए खतरा बताया जाने लगा है। देश की अदालतों में माननीय जजों को भी इन अधिकारों के दुरुपयोग का खौफ सताने लगा है। इस चिंता में घुलने वाले चिंतक महिलाओं के शोषण का घिनौना इतिहास और वर्तमान भूल जाते हैं।

जनवादी महिला आंदोलनों ने ही भारत में स्त्री अधिकारों की लड़ाई की बुनियाद रखी। यहां जब स्त्री के हकों को कुचलने की कोशिश की जाती है तो जनवादी पार्टियां ही उनकी हिफाजत के आंदोलन की अगुआई करती हैं। लेकिन अति जनवाद का झंडा लहराते माओवादी शिविरों में महिला लड़ाकों की देह सामंतवादी रवैये की शिकार क्यों है?उमा ने यह भी बताया कि राज्य समिति का एक सचिव अक्सर गांवों में जिन घरों में शरण लेता था,वहां की महिलाओं के साथ बलात्कार करता था और इसके लिए उसे सजा भी दी गयी थी।

सवालों को टालने के लिए इसे एक कुदरती जरूरत मानने वालों की कमी नहीं होगी। लेकिन फिर कश्मीर,अफगानिस्तान या दुनिया के किसी भी हिस्से में सैन्य अभियानों के दौरान महिलाओं के साथ होने वाले बलात्कार सहित तमाम अत्याचारों के बारे में क्या राय होगी? यहां यह तर्क भी मान लेने की गुंजाइश नहीं है कि ऐसी अराजकता निचले स्तर के माओवादी कार्यकर्ताओं के बीच है जो कम प्रशिक्षित हैं। यहां तो सवाल शीर्ष स्तर के माओवादी नेताओं के व्यवहार पर है।

जंगलमहल की क्रांति का जीवन पहले भी पत्रकारों और दूसरे स्रोतों से बाहर आता रहा है। अभी तक लोग क्रांति के रूमानी पहलू से रूबरू हो रहे थे कि किस तरह कठिन हालात में बच्चे-बड़े, औरत-मर्द क्रांति की तैयारी कर रहे हैं। लेकिन लाल क्रांति के अगुआ नेताओं का रवैया भी मर्दवादी सामंती संस्कारों से मुक्त नहीं हो सका।

इस बीच ताजा खबर यह है कि पश्चिम बंगाल में माओवादियों की सक्रियता वाले इलाकों में कई वैसी महिलाएं ‘लापता’ हैं, जिन्होंने माओवादी दस्ते या उनके जुलूसों में शामिल होने से इनकार कर दिया था। इनमें से एक आंगनबाड़ी कार्यकर्ता छवि महतो के मामले का खुलासा हो पाया है,जिसे पीसीपीए के मिलीशिया उठा कर ले गये थे। उसके साथ पहले सामूहिक बलात्कार किया गया,फिर उसे जमीन में जिंदा गाड़ दिया गया।

क्रांति का समय तो तय नहीं किया जा सकता। लेकिन जो तस्वीरें दिख पा रही हैं,उनके मद्देनजर मार्क्सवादी-माओवादी कॉमरेडों से अभी ही यह सवाल क्यों न किया जाए कि भावी क्रांति के बाद कैसा होगा उनका आदर्श शासन?मार्क्स और एंगेल्स के विचारों की बुनियाद पर खड़े कॉमरेडों के कंधों पर लटकती बंदूकों के खौफ से किस सपने का जन्म हो रहा है?
(जनसत्ता  से  साभार )
 
 
 

हिंसा का बौद्धिक समापन


माओवादियों से मध्यस्तता के मामले में गृहमंत्री से मिले पत्र को लेकर हर जगह 'सूक्ति वचन' के तौर पर  पढ़ने वाले स्वामी अग्निवेश की यह कला नयी नहीं है.शम्सुल इस्लाम ने अपने पत्र में 2002के गुजरात नरसंहार के बाद स्वामी अग्निवेश पर सांप्रदायिक होने के जो तथ्य गिनाएं   हैं, वह हतप्रभ करने वाला है.

हालाँकि स्वामी अग्निवेश की चालाकी और सत्तानिष्ठा  की आलोचना के बरख्स  उनको चाहने वाले कुछ  लोगों ने जनज्वार को कहा कि शांति यात्रा में शामिल बाकि को जब चिदंबरम ने बुलाया ही नहीं और चिठ्ठी स्वामीजी को दी तो  इसमें स्वामी जी का क्या दोष.हालाँकि अब इस मामले में स्वामीजी को सीधे जवाब देना चाहिए और इस मुगालते से निकल लेना चाहिए कि सवाल पूछने वालों की औकात क्या है बजाय की गलतियों को सुधारें ?बहरहाल हम उनके द्वारा हासिल किये गए दो पत्रों को एक साथ प्रकाशित कर रहे हैं जिससे कि सबको पता चल सके कि स्वामी जी के पत्र हासिल करने की कला नयी नहीं है, और  न ही राजसत्ता के भीतर पैदा हुई विकट स्थिति में  सत्ताधारी पार्टियों के साथ गलबहियां होने की बात नयी.

अपने को शांति और अहिंसा का दूत कहने वाले स्वामी अग्निवेश ने अपने साथियों और विश्वास करने वालों पर जो आघात किया है,उस हिंसा को सरोकारी जनता हमेशा याद रखेगी क्योंकि राजसत्ता के हिंसा का यह बौद्धिक समापन है.


माओवादियों से वार्ता के सन्दर्भ  में गृहमंत्री का पत्र और गुजरात दंगे के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का पत्र अग्निवेश के नाम



Sep 9, 2010

गुजरात नरसंहार के बाद भी उठा था सवाल

भाग - १
माओवादियों और सरकार के बीच शांतिवार्ता में  स्वामी अग्निवेश की भूमिका पर  उनके साथियों ने ही जो सवाल उठाये हैं  (शांति दूत की जगह चुनावी एजेंट बने अग्निवेश !) , वह साफ कर देता है कि स्वामी जी  की शांतिवार्ता नायकत्व की चालाकी थी.स्वामी अग्निवेश की इस चालाकी से निराश वह लोग जो उन्हें पहले से एक प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष शख्सियत मानते रहे हैं,उन्हें तब और निराशा होती है जब २००२ के गुजरात नरसंहार को लेकर  प्रो.शम्सुल इस्लाम, स्वामी अग्निवेश की गतिविधियों को केंद्र में रख एक हिन्दू सांप्रदायिक नेता के बतौर  विश्लेषित एक खुला पत्र जारी करते हैं. 

यह पत्र उन सभी लोगों को हतप्रभ कर देने वाला है जो स्वामी जी को धर्मनिरपेक्ष मानते हैं और उन वामपंथियों के लिए ककहरा है जो स्वामी जी से लाल सलाम सुनकर लहालोट हुए जा रहे हैं.शम्सुल इस्लाम द्वारा लिखित यह पत्र गांधीवादी नेता स्व.निर्मला देश पाण्डेय और स्वामी अग्निवेश को संबोधित है.याद होगा कि अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के भारत आगमन पर जब पुरे देश में जबरदस्त विरोध हो रहा था,तो जो पांच सामाजिक कार्यकर्त्ता बुश के स्वागत में मिलने गए थे उनमें स्वामी अग्निवेश और देशपांडे भी शामिल थीं.  


मनमोहन सिंह का मुखड़ा लिए शम्सुल: विरोध दर्ज कराया
शम्सुल इस्लाम 


निर्मला दीदी और स्वामी जी,

आप दोनों की आत्मा पवित्र है और हममें से कई मानते हैं कि आप दोनों सच के आलंबरदार हैं!इसके बावजूद, अप्रैल 1 से 4 2002 के दौरान गुजरात में ‘करुणा की तीर्थयात्रा’ (पीओसी) नामक कार्यक्रम के दौरान आपके व्यवहार से हमें गहरी निराशा हुई है और हमारे दिल को चोट पहुंची है.अगर आप सचमुच वैसे ही हैं जैसा कि आप दावा करते हैं तो हमारी मांग है कि आप हमारे कुछ सवालों का जवाब दीजिए!

इन सवालों को आप ये कहकर खारिज नहीं कर सकते कि निशांत नाट्य मंच भी उस भीड़ का हिस्सा था जो पीओसी (पीस  कमिटी )में शामिल था  और हम कैसे आपसे सवाल करने की जुर्रत कर सकते हैं? निश्चित तौर पर हम सब पीओसी के अछूत हैं,लेकिन इस देश के अछूतों को भी आप जैसी पवित्र आत्माओं की मंशा जानने का हक है.हम आपको बताना चाहते हैं कि ये मुद्दा इसलिए नहीं उठा रहे हैं कि हम व्यक्तिगत रूप से आहत हैं,बल्कि उस जरूरी वजह से उठा रहे हैं जिससे धार्मिक असहिष्णुता के खिलाफ संघर्ष कमजोर पड़ रहा है.ये फासीवादी ताकतों की मजबूती की वजह से नहीं हो रहा है,बल्कि उन गद्दारों की गुप्त मंशाओं के कारण हो रहा है जो लोकतांत्रिक और सहिष्णु होने का चेहरा चिपकाए घूमते हैं.

आप इस तथ्य से भलीभांति अवगत हैं कि यहां पर उठाए जा रहे बहुत से मुद्दे पीओसी के दौरान हर दिन आपके संज्ञान में लाए गए हैं.तब आपसे से ये अनुरोध किया गया था कि इन मुद्दों पर पूरे ग्रुप के सामने चर्चा होनी चाहिए,लेकिन आपने उन बातों को तवज्जो नहीं दी और पीओसी को बपौती की तरह इस्तेमाल किया.

हमारे सवाल कुछ इस तरह हैं- 

1. क्या यह सच है कि ‘केन्द्रीय आर्य युवक परिषद’, दिल्ली के बैनर तले मुस्लिम विरोधी और दलित विरोधी दो पेज का पर्चा बांटा गया था?ये वही संगठन है जो पीओसी को एक अप्रैल को नई दिल्ली रेलवे स्टेशन तक विदा करने आया था.पीओसी के सदस्यों ने जब इस बारे में स्पष्टीकरण मांगा तो उनसे क्या कहा गया था? क्या आपने इस तरह का फासीवादी पर्चा बांटने वालों के खिलाफ कहीं एफआईआर दर्ज कराई थी?इस तरह के पर्चे देश के एक खास समुदाय के खिलाफ जहर फैलाने का काम कर रहे थे और ये भारतीय दंड संहिता का सरेआम उल्लंघन हैं?

2. ट्रेन (फ्रंटियर मेल) के अंदर हिंदी के जिस पर्चे को बांटा गया था उसे यहां फिर से दोबारा छपवाया गया.निश्चित तौर पर आपके पास इस पर्चे की मूल कॉपी होगी.और अगर नहीं है तो हम इसकी फोटोकॉपी आपको भेज सकते हैं.जिस संगठन के लोग पर्चे बांट रहे थे उसका नेतृत्व अनिल आर्य नाम का आदमी कर रहा था.ये वही अनिल है जिसने न केवल स्वामी जी और निर्मला दीदी का फूलों का हार पहना कर स्वागत किया था,बल्कि पूरे कार्यक्रम की फोटोग्राफी भी की थी.ये फोटोग्राफ दिल्ली के कई अखबारों में प्रकाशित हुए थे और जांच के लिए अभी भी उपलब्ध हैं.

 अनिल आर्य ने मार्च 31,2002को 'गुजरात दंगों की सच्चाई क्या है?'शीर्षक से जो पर्चा बांटा था उसका एक नमूना देखें...

 ये (गुजरात दंगे)सांप्रदायिक नहीं थे,बल्कि ये पाकिस्तान और पश्चिमी देशों द्वारा भारत के खिलाफ भड़काया गया (एक किस्म)गृहयुद्ध था.पाकिस्तान की आईएसआई और मुस्लिम एजेंट गुजरात के गांव-गांव तक पहुंच चुके हैं. हमने मुस्लिम कार्यकर्ताओं के साथ लंबी बातचीत की. बातचीत के दौरान उन लोगों ने हमें बताया कि माधव सिंह सोलंकी और अमर सिंह चौधरी के राज में हुए दंगों के दौरान हिंदुओं के खिलाफ लड़ते हुए औऱ लोगों की हत्या करते हुए उन्होंने इसका लंबा अनुभव प्राप्त कर लिया है.मुसलमानों की पुरानी और नई पीढ़ी लड़ाई में माहिर हो चुकी है.परिस्थिति के मुताबिक उनके पास हेलीकॉप्टर और हवाई जहाज उड़ाने की क्षमता है.सिमी के कई कार्यकर्ताओं ने हमें बताया कि उनका मकसद हिंदू बहुल इलाकों में बम गिराना है,आतंक फैलाना है और इन इलाकों को अपने कब्जे में लेना है.अहमदाबाद, पुरानी दिल्ली,है दराबाद और अजमेर को इसके उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है.

गले में गमछा लटकाए अनिल आर्य, स्वामी अग्निवेश के साथ
आज स्थिति ये है कि गुजरात के हर हाईवे के नजदीक पाकिस्तानी एजेंटों ने अपनी कॉलोनी बना ली है.बड़े-बड़े घर,हॉल और आधुनिक सुख-सुविधाओं और तहखानों से सजी-धजी हजारों मस्जिदों का निर्माण किया गया है.मुस्लिम गुंडों और आपराधिक गैंगों की उपस्थिति से आतंक फैल रहा है.हिंदू लड़कियों को प्रेम के जाल में फंसाकर उनसे शादी करना और फिर उनका धर्म परिवर्तन कराना आम बात हो चुकी है. आतंक फैलाकर हिंदू कॉलोनियों को खाली कराया जा रहा है.
{ हस्ताक्षर- मित्र महेश आर्य (अध्यक्ष आर्य केन्द्रीय सभा, अहमादाबाद), शरद चंद्र आर्य (मंत्री आर्य केन्द्रीय सभा, अहमदाबाद), अनिल आर्य (अध्यक्ष, केन्द्रीय आर्य युवक परिषद, दिल्ली) 

3. क्या यह सच है कि पीओसी के अधिकांश सदस्य गांधी आश्रम द्वारा संचालित एक दलित स्कूल में ठहरे थे और इस स्कूल के लड़के और लड़कियों (उम्र- 5 साल से 12 के बीच) को पानी भरने, बिस्तर सजाने और सफाई करने के काम में लगाया गया था? क्या ये सच है कि इन बच्चों को रात के 2 बजे उठा दिया जाता था और अगले दिन का खाना बनवाया जाता था? क्या वहां ऐसे लोग भी मौजूद जिन्होंने इस तरह की अमानवीय स्थितियों का विरोध किया था और खाने से इंकार किया था?

4. क्या ये सच है कि पीओसी के सदस्यों को गैरमुस्लिम इलाकों में जाने और शाति का संदेश प्रसारित करने की इजाजत नहीं दी गई?ऐसा क्यों हुआ कि हममें से कुछ लोगों ने जब पर्चा बांटने की कोशिश की तो उनको ऐसा करने से मना कर दिया गया.ऐसा क्यों हो रहा था कि केवल मुस्लिम राहत शिविरों में तो हम पीओसी का बैनर लगाते थे,लेकिन जब दूसरे इलाकों में होते थे तो इसे छिपाकर रखते थे?क्या आप ये मानते थे कि गैर मुस्लिम इलाकों में शांति का संदेश प्रसारित करने की कोई जरूरत नहीं,ये केवल मुसलमानों की समस्या है?क्या आपको वड़ोदरा की वो घटना याद है जहां धर्मनिरपेक्ष लोगों के एक स्थानीय समूह ने आपको सड़क पर उतरने के लिए बाध्य कर दिया था और निशांत नाट्य मंच ने हिंदुओं के बीच सांप्रदायिकता के मसले पर जोरदार हस्तक्षेप किया था.

5. देलोल गांव में जो हुआ क्या आपको उस बारे में शर्म आती है? हो सकता है आप इसे भूल गए होंगे, लेकिन हम उन घटनाओं को एक बार फिर सिलसिलेवार तरीके से आपके सामने रखना चाहते हैं?यह गांव वड़ोदरा और गोधरा हाईवे के बीच में है और दुर्भाग्य से मुसलमानों के संपूर्ण सफाये की वजह से सुर्खियों में है.मुसलमानों की संपत्तियों को यहां पूरी तरह से नष्ट कर दिया गया है और करीब 30 लोगों की हत्या की गई है. जब हम लोग गोधरा में थे तो इस गांव के कई मुसलमानों ने दीदी और स्वामीजी से अनुरोध किया वो इस गांव का दौरा करें.

गोधरा में इस बात का ऐलान किया गया था कि हमारी यात्रा इसी गांव में जाकर समाप्त होगी. हम दो बसों में सवार होकर इस गांव में पहुंचे.वहां पहुंचने पर हमने देखा कि जिन दो बसों में आप लोग सवार थे उसे वहां पार्क कर दिया गया है.स्वाभाविक तौर पर निशांत के लोग गांव में गए और उन्होने वहां भगत सिंह,रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाकुल्ला और चंद्रशेखर आजाद की तस्वीरों के साथ सांप्रदायिक सौहार्द के गीत गाने शुरु किए.इन गीतों में कहा गया था कि हम सबके शहीद एक हैं, हमारी विरासत एक है इसलिए धार्मिक पहचान के आधार पर लड़ाई व्यर्थ है.

गांव की सभी औरतें, बूढ़े, और बच्चे जो कि हिंदू थे बड़ी तन्मयता के साथ इन गीतों को सुन रहे थे. हम करीब 30 -35 मिनट तक गांव में थे तभी विश्व हिंदू परिषद के लोग 20-25 युवकों के साथ मारने-पीटने के मकसद के साथ गालियों की बौछार करते हुए हमारी तरफ बढ़े. हम गीत सुनते रहे, जबकि वो लोग हाथापाई पर उतर आये.गांव के लोगों ने बीचबचाव किया और उनसे चले जाने के लिए कहा.तभी अचानक पुलिस की एक जीप वहां प्रकट हुई और पुलिस अधिकारी हमें ये कहते हुए डांटने लगा कि जब आपके नेताओं ने वहां जाने की हिम्मत नहीं की तो आप यहाँ कैसे हैं? तब तक हमें ये नहीं मालूम था कि आप दोनों ने बस में ही रहने का फैसला किया था और पुलिस को भी ये बात मालूम थी.हम लोग अभी भी इस बात से व्यथित हैं कि आपने खुले तौर पर हमसे ये बात साझा नहीं की.

आखिर में हम ये जानना चाहते हैं कि अगर आपने इस गांव में नहीं जाने का फैसला किया था तो फिर गांव के बाहर अपनी बस क्यों पार्क की?क्या आप इस बात का इंतजार कर रहे थे कि हममें से किसी को पीट दिया जाए?

(पत्र का शेष भाग अगली पोस्ट में देखें  )

अनुवाद - विडी 



फिर मोदी सरकार के खिलौना बने ?

 
भाग- 2
 

6. आपको हमें ये बताना ही होगा कि अहमदाबाद के जहांपुर राहत शिविर में जहां दंगा पीड़ित हजारों मुसलमान अमानवीय परिस्थितियों में रह रहे थे, क्या हुआ था? ऐसा क्यों हुआ कि स्वामीजी के भाषण के बाद उनमें से सैकड़ों की तादात में औरतें, बड़े-बूढ़े और जवान हमारा पीछा कर रहे थे? क्या आपने कभी ये समझने की कोशिश की थी कि स्वामीजी के अमानवीय और असंवेदनशील भाषण ने उनको दुख पहुंचाया या कोई और वजह है?क्या आपको हमारे सदस्यों द्वारा विश्व हिंदू परिषद के गुंडों की तर्ज पर भगवा गमछा और बैंड बांधना याद है?क्यों दो बूढ़ी महिलाओं ने स्वामी जी को वहां से भाग जाने के लिए कहा था?आपको ये भी बताना होगा कि भागते वक्त सारे वाहनों के ले जाने से भीड़ और उत्तेजित हो गई थी.(निर्मला दीदी वहां नहीं आई थीं क्योंकि वो सरकारी अधिकारियों के साथ बातचीत में व्यस्त थीं. ...ऐसा दीदी के दो सहायकों ने बताया था) क्या आपने भागते वक्त निशांत के दूसरे साथियों के बारे में भी सोचा था. जॉन दयाल, उतिराज और दो बौद्ध साथियों के भीड़ के बीच फंस जाने के बारे में क्या आपने सोचा था? क्या आपको मालूम है कि हमारे ग्रुप का एक साथी गुस्साई भीड़ को समझाने के मकसद से सूमो के ऊपर चढ़ गया था,ताकि लोगों को ये समझा सके कि विश्व हिंदू परिषद या हत्यारे मोदी से हमारा कोई संबंध नहीं है? क्या आपने अपनी कायरता और मूर्खता के परिणाम के बारे में सोचा था?

निर्मला देश पांडे : कई छवियाँ
7. ऐसा क्यों हुआ कि पीओसी के सदस्यों द्वारा इकट्ठा किया गया राहत चंदा प्रभावितों तक नहीं पहुंचा और उसे दानदाताओं को वापस करना पड़ा?ये तथ्य है कि गोधरा के राहत शिविर की दयनीय हालात सुनकर पीओसी की एक महिला सदस्य इस कदर व्यथित हुई कि उसने प्रस्ताव रखा था हमें तुरत-फुरत पैसा इकट्ठा करना चाहिए,ताकि इसे जल्दी से जल्दी पीड़ितों तक पहुंचाया जा सके. एक घंटे के अंदर करीब 4500 रुपए इकट्ठा किए गए थे. यह प्रस्ताव भी रखा गया था कि ये चंदा उस एजेंसी को सौप देना चाहिए जिससे केड्रिक प्रकाश और तीस्ता सीतलवाड़ जुड़े हुए थे और जो सांप्रदायिक मुद्दों पर काम कर रहे थे.यहां पर भी स्वामीजी ने सलाह दी कि इसे हिंदू और मुसलमान पीड़ितों के बीच बांट देना चाहिए.इसीलिए इसे दो हिस्सों में विभाजित कर हिंदू और मुसलमान पीड़ितों में बांट दिया गया था.लेकिन थोड़ी ही देर बाद ये साफ हो गया था कि विश्व हिंदू परिषद इस पैसे को लेकर नाराज हो गया था और उसने इसे वापस कर दिया था.इस परिस्थिति में ये पैसा उन लोगों को दिया जाना चाहिए था जिनको इसकी जरूरत थी.आपको हमें ये बताना होगा कि पैसा चंदा देने वालों को वापस क्यों कर दिया गया था?

8. हमें ये जानने का हक है कि ये पीओसी किसने आयोजित की थी? हम लोग ये मान रहे थे कि इसे दिल्ली के लोगों ने आयोजित किया था और गुजरात जाने का असली मकसद नरसंहार के पीछे की ताकतों का पर्दाफाश करना था.मगर अचानक हमने आपको अटल बिहारी बाजपेयी का हस्ताक्षरित पत्र लहराते हुए देखा,जिसमें अटल बिहारी बाजपेई ने इस यात्रा को आशीर्वाद दिया था.अटल बिहारी बाजपेई का ये खत नैनीताल के उनके बेस ऑफिस से लिखा गया था.आपको किसी नेता से ये पत्र लिखवाने या हासिल करने की इजाजात किसने दी थी?

9. ज्यादातर सदस्यों को 700 रुपए प्रति व्यक्ति के हिसाब से दिए गए, लेकिन हमें शक है कि आपने दूसरे स्रोतों से भी रुपया इकट्ठा किया था. क्या आप हमें पीओसी की बैलेंस शीट दिखा सकते हैं?

10. ऐसा क्यों हुआ कि हमारी हर दिन की मांग के बावजूद किसी सदस्य के साथ कोई बातचीत नहीं की गई? हमने दो वजहों से इस मांग पर जोर दिया.नंबर एक-अभियान की दिशा के बारे में पता लगाना और मुसलिम पीड़ितों के पास विश्व हिंदू परिषद जैसे भगवा झंडे लेकर जाने जैसे मुद्दों पर राय जानना. जुरूपुरा के राहत शिविर में इस तरह के आपराधिक दिखावे पर क्या प्रतिक्रिया हुई ये हम सबको पता है.दूसरा-पीओसी के सदस्यों को सांप्रदायिकता विरोधी अभियान के बारे में समझाना था,क्योंकि उनमें से अधिकतर उग्र सांप्रदायिक थे और फासीवादी हिंदू विचारों से ओतप्रोत थे.जैसे –मध्यप्रदेश के एक युवा स्वामीजी बस में किसी को बता रहे थे कि मुसलमानों ने सदियों से हमारी औरतों की हत्या की है और उनके साथ बलात्कार किया है.अब जबकि हिंदू कुछ सप्ताह के लिए कुछ ऐसा कर रहे हैं तो हमें विरोध क्यों करना चाहिए?हमें अभियान के दौरान क्यों कहा जा रहा था कि वीएचपी-बीजेपी-मोदी-अटल-बजरंग दल का नाम नहीं लेना है?क्यों कहा जा रहा था कि विश्व हिंदू परिषद के सदस्यों की भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचानी है?

पहुँच हर जगह, पकड़ हर मोर्चे पर
11 . क्या आप सांप्रदायिक-फासीवादी मोदी सरकार के हाथ का खिलौना नहीं बने?क्या आपने मोदी सरकार का अनुचर बनकर हमें जान बचाने के लिए भागने पर मजबूर नहीं कर दिया?आपको भलीभांति मालूम है कि जुरूपुरा के कैंप की शर्मनाक घटना के बाद हम लोगों ने आपके छिपे हुए मंतव्य को ताड़ते हुए आपके साथ न जाने का फैसला किया था और हम अहमदाबाद के ईश्वर भवन में ही रुक गए थे, जहां हम पिछली रात से रुके हुए थे. शाम को दो बौद्ध साथी एक ऑटो रिक्शा में भागते हुए आए और हमें बताया कि आपकी मार्फत उनको जानकारी मिली है कि पीओसी के मुसलिम सदस्यों की जान खतरे में है,क्योंकि विश्व हिंदू परिषद के सदस्यों ने उन पर हमला करने की धमकी दी है.यह एक बेहद दिलचस्प वाकया था.इसके पहले विश्व हिंदू परिषद के गुंडों ने शांति के काम रहे हर संगठन पर हमला किया था, बिना किसी धार्मिक भेदभाव के. सात अप्रैल को उन्होंने साबरमती आश्रम में बिला किसी भेदभाव के इसे फिर से अंजाम दिया.वास्तव में वो हिंदू कार्यकर्ताओं पर ज्यादा गुस्सा थे.हालांकि इस बार वो पीओसी के हिंदू कार्यकर्ताओं को जाने देने के लिए तैयार थे और केवल मुसलिम कार्यकर्ताओं पर हमला करने वाले थे.

हम इस बात को पक्के तौर पर मानते हैं कि मोदी सरकार और इसकी गुप्तचर एंजेसियों के साथ सांठगांठ करके आप दोनों ने इस तरह का सीन तैयार किया कि हमें ईश्वर भवन जैसे सुरक्षित जगह को खाली करना पड़े. ये सब इसलिए किया गया क्योंकि हममें से दो सदस्य मुसलमान थे.ईश्वर भवन के एक कर्मचारी ने बताया कि वो हमें भवन से इसलिए बाहर करना चाहते थे क्योंकि स्वामीजी और मैडम हमें अपने ग्रुप के साथ रखने के लिए तैयार नहीं थे. उसने ये भी बताया कि आप और गुजरात की गुप्तचर एंजेसियां इस बात के लिए परेशान थीं कि निशांत के लोग 4अप्रैल को सांप्रदायिकता विरोधी प्रदर्शन कर सकते हैं. उस दिन प्रधानमंत्री को अहमदाबाद आना था. दीदी और स्वामीजी! बताइए कि आपने हमें इस खतरे के बारे में क्यों नहीं बताया, जबकि हममें से दो मुसलमान थे? क्या आपने इस खतरे के खिलाफ कोई एफआईआर दायर की थी?

सामाजिक काम का जलवा:  बस तू ही तू
12. आपने पीओसी के दौरान महात्मा गांधी की तस्वीर ले चलने से क्यों इंकार दिया था? हम आपको याद दिलाना चाहते हैं कि हम लोगों ने आप दोनों को महात्मा गांधी की तस्वीर ले चलने की सलाह दी थी,क्योंकि गुजराती लोग महात्मा गांधी की शांति और सांप्रदायिक सदभाव के मसीहा के रूप में पूजा करते हैं.महात्मा गांधी की तस्वीर साथ लेने से ये संदेश भी साफ हो जाता कि जिन लोगों ने महात्मा गांधी की हत्या की थी वो एक बार फिर गुजरात को नष्ट करने पर आमादा हैं.आपने ये कहते हुए इस सलाह को खारिज कर दिया कि इससे समस्या बढ़ सकती है.

कृपया इन सवालों का जवाब देने में कुछ वक्त जाया कीजिए.हम इस बहस को उन मित्रों तक तक ले जाना चाहते हैं जो फासीवाद, धार्मिक असहिष्णुता और मानवता के प्रति संवेदनशील हैं.ये बहस उन (छिपे हुए)गद्दारों के बारे में हमें और जानकारी मुहैया कराएगी जो हिंदू  फासीवादियों के काम को और आसान बनाते हैं.

स्वयंभू लोकतांत्रिक और महान धर्मनिरपेक्ष स्वामी अग्निवेश से कुछ और सवाल -

1. स्वामीजी के नेतृत्व में चलने वाले 'बंधुआ मुक्ति मोर्चा' द्वारा आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेसों को वर्ष1998-2004 के दौरान आरएसएस और बीजेपी के नेताओं ने कितनी बार संबोधित किया?
2. क्या ये सच है कि आप सन 2000 में आर्य समाजियों का एक प्रतिनिधि मंडल लेकर प्रधानमंत्री बाजपेयी के निवास स्थान पर गए थे और आपने व्यक्तिगत तौर पर उन्हे केसरिया रंग की पगड़ी पहनाई थी?
3. क्या ये सच है कि आपने सन 2000 में बीजेपी के पक्ष में प्रचार किया था?
4. वर्ष 1998-2004 के दौरान जब स्वामीजी को ऑल इंडिया रेडियो में स्लॉट दिया गया तो उस वक्त मंत्री कौन था?
 
आपके जवाब के इंतजार में,

शमशुल इस्लाम, नीलिमा शर्मा, ब्रह्म यादव, जावेद अख्तर
मार्च 2002

Sep 8, 2010

सत्ता को प्रिय है अग्निवेश की मध्यस्तता


याद कीजिये स्वामी अग्निवेश बाल मज़दूरी के सवाल पर भी काफ़ी आन्दोलन कर चुके हैं और बाल मज़दूरी के विरोध के लाभ भी उठा चुके हैं जबकि बाल मज़दूरी के आंकड़े लगातार बढ़ते गये...



नीलाभ

जनज्वार ब्लॉग पर हाल में बिहार की घटनाओं पर टिप्पणियां और साई बाबा का जवाब और फिर स्वामी अग्निवेश के स्वघोषित शान्ति दूत की भूमिका में उतरने के बारे में लिखी गयी टिप्पणी देखी.इन में कई बातें गड्ड-मड्ड हो गयी हैं.हालांकि इन टिप्पणियों पर एक मुकम्मल, सुविचारित टिप्पणी की अपेक्षा है, मैं इस वक़्त अपने को तैयार नहीं पा रहा हूं, तो भी कुछ विचारणीय बिन्दुओं का ज़िक्र कर रहा हूं.

हां,मुझे भी माओवादियों द्वारा लुकास टेटे की हत्या पर ऐतराज़ है.मेरे खयाल में यह न केवल रणनीति की दृष्टि से भूल है,बल्कि अपहृत व्यक्ति को मार डालना उन तमाम लोगों को अस्वस्ति और असुविधा की स्थिति में ला खड़ा करता है,जो नागरिक और सार्वजनिक मंचों पर माओवादियों की सही मांगों की पुरज़ोर हिमायत करते आये हैं और वह भी एक ऐसे समय जब माओवादियों के साथ-साथ उन्हें भी लानत-मलामत का निशाना बनाया जा रहा है.दूसरी तरफ़ बिहार,दिल्ली और अन्य प्रान्तों में अनेक ऐसे परिवर्तनकामी साथी जेल में ठूंस दिये गये हैं जिनके नाम कोई नहीं लेता.

सात महीनों से इलाहाबाद की नैनी जेल में "दस्तक" पत्रिका की सम्पादक और उनके पति विश्वविजय रिमांड पर क़ैद चल रहे हैं.इतना ही अर्सा दिल्ली की ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता अनु और उन के पति को तिहार में रिमांड पर क़ैद भुगतते हो गया. क्या किसी ने इनका भी नाम लिया ? या इन्हें छुड़ाने के सिलसिले में कुछ किया? मैं ने अपनी मित्र अरुन्धती राय और अनेक लोगों को इसकी सूचना दे कर क़दम उठाने की अपील की थी,पर शायद वे कम नामी लोगों की पक्षधरता में यक़ीन नहीं रखते.

आज तक सार्वजनिक रूप से क्या किसी ने "आम लोगों की पार्टी"के आम कार्यकर्ताओं के हक़ में आवाज़ उठाई है ?क्या यह भी उसी प्रक्रिया के तहत हो रहा है जिसके तहत 1947से पहले तथाकथित आज़ादी के हिमायतियों ने अनाम लोगों को अक्सर विस्मृति के अंधेरों के हवाले किया था ?दूर नहीं,सफ़दर हाशिमी के साथ जो राम बहादुर नाम का मज़दूर 1989 में कांग्रेसियों द्वारा मारा गया था, उसका कोई स्मारक बना ? उसे कोई याद भी रखता है ?

तीसरी बात यह कि लोकस टेटे की हत्या पर हाय-तोबा मचाने वालों से,ख़ास तौर पर मीडिया वालों से यह ज़रूर पूछा जाना चाहिए कि झूठी मुठ्भेड़ में आज़ाद और हेमचन्द्र पाण्डे की हत्या पर खामोशी क्यों रही?सारे सरकारी और निजी मीडिया तन्त्र ने उस पर ऐसा सात्विक रोष क्यों प्रकट नहीं किया?मेरे कहने का यह मतलब नहीं है कि लोकस  टेटे को मार डालना उचित था. पर बात यहीं ख़त्म नहीं की जा सकती. कारण यह कि पिछले साठ बरसों से हमारे हुक्मरानों और उनके तन्त्र की हिंसा का कोई हिसाब-किताब और जवाब-तलबी नहीं की गयी है.

सीमा और विश्वविजय
 मैं जेसिका लाल और नितीश कटारा या शिवानी भटनागर की हत्याओं सरीखे मामलों से आगे बढ़ कर पुलिस हिरासतों और फ़र्ज़ी मुठभेड़ों में मारे गये हज़ारों लोगों का ज़िक्र कर रहा हुं.मैं ज़िक्र कर रहा हूं कश्मीर में बरसों से चल रहे दमन और उत्पीड़न का, मैं ज़िक्र कर रहा हूं छत्तीसगढ़, ऊड़ीसा, झारखण्ड, आन्ध्र, महाराष्ट्र और बंगाल में बेरहमी से मारे गये आदिवासियों और उनकी ओर से आवाज़ उठाने और लड़ने वाले लोगों की गिरफ़्तारियों और हत्याओं की.

क्या लोकस  टेटे की नावाजिब हत्या पर शोर मचाने वालों --सरकारी और विपक्षी नेताओं,चन्दन मित्रा और अर्णब गोस्वामी और बरखा दत्त जैसे पत्रकारों,सभी मीडिया चैनलों,के.पी.एस.गिल जैसे हिंसक पुलिस अफ़सरों और स्वामी अग्निवेश जैसे स्वार्थ साधकों --ने कभी इतनी ही सात्विक दु:ख और आक्रोश भरे स्वर ऊपर उल्लिखित हिंसा के अनगिनत मामलों में व्यक्त किये हैं ?

निश्चय ही अरुन्धती राय और मेधा पाटकर और गौतम नौलखा को मैं स्वामी अग्निवेश की कोटि में नहीं रखना चाहता, गो उनकी सारी बातों से मैं सहमत नहीं हूं, पर स्वामी अग्निवेश जैसे मध्यस्थ सत्ता को बहुत भाते हैं क्योंकि इनकी आड़ में सरकारी हिंसा को अंजाम देना आसान होता जिसके बाद सरकार और मध्यस्थ,दोनों की राजनीति के चमकने के रास्ते खुल जाते हैं जैसा हम सभी ममता बनर्जी के मामले में देख आये हैं और अब स्वामी अग्निवेश के मामले में देख रहे हैं.याद कीजिये स्वामी अग्निवेश बाल मज़दूरी के सवाल पर भी काफ़ी आन्दोलन कर चुके हैं और बाल मज़दूरी के विरोध के लाभ भी उठा चुके हैं जबकि बाल मज़दूरी के आंकड़े लगातार बढ़ते गये हैं.

अहिंसा का राग अलापने पर ही अपने कर्तव्य की भरपाई करने वालों को याद रखना चाहिए कि छत्तीसगढ़ में 1975 में बाबा आम्टे जैसे अहिंसावादी वहां बाक़ायदा आश्रम खोलने के बाद और अपनी सारी सद्भावना के बावजूद आदिवासियों को न्याय नहीं दिला पाये.स्वामी अग्निवेश तो अभी उन इलाकों में गये भी नहीं हैं जहां हर बाशिन्दे के दिलो-दिमाग़ पर ज़ुल्मो-सितम के गहरे और कभी न मिटने वाले निशान हैं.

यही नहीं, पानी पी-पी कर माओवादियों को कोसने वालों को यह भी याद रखना चाहिए कि इस पूरे इलाके में दमन और उत्पीड़न के प्रतिरोध का इतिहास माओ से तो बहुत पुराना है ही वह बिर्सा मुण्डा से भी बहुत पुराना है.उसके सूत्र उन जातीय संघर्षों में छिपे हुए हैं जिनकी परिणति जन्मेजय के नाग यग्य जैसे नरसंहार में हुई थी.

सत्ता जिसकी हो उसके प्रिय हैं अग्निवेश: अब प्रतिरोध के हुए
चुनांचे दोस्तो,मामला जैसा कि मैंने कहा काफ़ी पेचीदा है.अपराध और हिंसा को किसी भी युग में सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक स्थितियों से और सत्ताधारियों के शोषण से अलग कर के नहीं देखा जा सकता.फ़्रांस के महान लेखक विक्टर ह्यूगो ने अपनी अमर कृति "अभागे लोग"में इसी समस्या को उठाया है.

अन्त में इतना ही कि जैसे-जैसे समय आगे बढ़ा है वैसे-वैसे यह साफ़ होता चल रहा है कि 1947में इतने ख़ून-ख़राबे और इतनी मानवीय पीड़ा के बाद हमने जो हासिल की थी वह आज़ादी नहीं, बल्कि गोरे लुटेरों के बदले काले लुटेरों की सल्तनत थी जिसकी आशंका सरदार भगत सिंह ने खुले शब्दों में व्यक्त की थी.अंग्रेज़ हिन्दुस्तानी सिपाहियों से हिन्दुस्तानी लोगों पर क़हर नाज़िल करते थे, जलियांवाला बाग़ के हत्या काण्ड को अंजाम देते थे, अब पी. चिदम्बरम जैसे हुक्काम महेन्द्र करमा जैसे स्थानीय गुर्गों की मदद से छत्तीसगढ़ में सलवा जुडूम सरीखी घृणित कार्रवाई करते हैं. उद्देश्य लूट-पाट ही है चाहे मैनचेस्टर और बकिंघम पैलेस के लिये हो या फिर वेदान्त, टाटा और पोस्को  के लिए हो.

जब तक इस सारी जद्दो-जेहद को उसकी जड़ों तक जा कर नहीं देखा जायेगा और इसका समतामूलक हल नहीं निकाला जायेगा और तब तक हिंसा को रोकने के सभी ऊपरी उपाय विफल होते रहेंगे. अच्छी बात यही है कि धीरे-धीरे आम जनता इस हक़ीक़त से वाक़िफ़ हो चली है.




Sep 6, 2010

शांति दूत की जगह चुनावी एजेंट बने अग्निवेश !


छत्तीसगढ़ के चिंतलनार क्षेत्र में माओवादियों और पुलिस के बीच संघर्ष में 6अप्रैल को अर्धसैनिक बलों के 76 जवान मारे गये थे। माओवादियों के हाथों सरकार के सबसे काबिल और सुसज्जित सुरक्षा बलों का इतनी बड़ी संख्या में मारा जाना जहां राज्य मशीनरी के लिए एक नयी चुनौती बना,वहीं ऐसी स्थिति न चाहने वालों के लिए सरोकार का गंभीर प्रश्न। सरोकार की इसी चाहत से शांति चाहने वालों ने एक समूह बनाकर चिंतलनार वारदात के ठीक एक महीने बाद 5से 8मई के बीच रायपुर से दंतेवाड़ा तक एक शांतियात्रा की। यात्रा का असर रहा और सरकार एवं माओवादियों से बातचीत की एक सुगबुगाहट भी शुरू हुई,लेकिन सुगबुगाहट से उपजी उम्मीदें आंध्र पुलिस द्वारा माओवादी पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता आजाद और उनके साथ पत्रकार हेमचन्द्र पाण्डेय की हत्या किये जाने के बाद हाशिये पर चली गयीं।
आजाद की हत्या उस समय हुई थी जब शांति यात्रा करने वालों के समूह के सदस्य स्वामी अग्निवेश सरकार और माओवादियों के बीच वार्ता के मंच को अंतिम रूप देने का दावा कर रहे थे। उसी बीच हुई आजाद ही हत्या ने न सिर्फ शांति को लेकर सरकार की चाहत पर प्रश्नचिन्ह खड़े किये,बल्कि सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश का भी तमाम तीखे सवालों से साबका हुआ। स्वामी अग्निवेश की पहलकदमी पर सवाल तो बहुतेरे उठे, लेकिन शांति यात्रा के सदस्यों ने जो सवाल एक पत्र के माध्यम से खड़े किये हैं वह कुछ नये भटकावों,मौकापरस्ती और नेतृत्व करने की आतुरता को पाठकों के सामने सरेआम कर देते हैं। पत्र इस मायने में महत्वपूर्ण है कि सवाल करने वाले उनके अपने साथी हैं जिसका जवाब स्वामी अग्निवेश को अब उन्हीं सार्वजनिक मंचों पर आकर देना चाहिए जहां वह शांतिवार्ता के नायक के तौर पर अब तक स्थापित होते रहे हैं।
शांति और न्याय के लिए एक अभियान में शामिल पदयात्रियों का अग्निवेश के नाम  पत्र...

प्रिय अग्निवेश जी,
                                                                                                                             
हमलोग यह पत्र मई 2010में छत्तीसगढ़ शांति और न्याय यात्रा के उन सदस्यों की ओर से लिख रहे हैं जो इस अभियान में शामिल थे। हमलोग इस मसले पर अपना मत सार्वजनिक नहीं करना चाह रहे थे,लेकिन शांतिवार्ता में शामिल सदस्यों का दबाव था कि सच्चाई सामने आनी चाहिए। इसलिए हमें लगता है कि यह सही वक्त है जब बात कह दी जानी चाहिए। अब हम सीधे मुद्दे पर आते हैं और साफ-साफ कहना चाहते हैं कि आपने पूरे मामले को हथियाने की कोशिश की। विभिन्न क्षेत्रों में महारत प्राप्त वैज्ञानिक,शिक्षाविद,गांधीवादी और सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा शुरू की गयी इस पहल को आपने न सिर्फ रास्ते से भटकाया (आजाद और हेमचंद्र पांडे के संदर्भ में)बल्कि अंततः ममता बनर्जी जैसे नेताओं की राजनीतिक झोली में डाल दिया।

कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना : राजनीति में यही उसूल  
इतना ही नहीं आपने खुद को शांति और न्याय यात्रा का स्वघोषित नेता मान लिया और गृहमंत्री पी.चिदंबरम से सांठगांठ में  लगे रहे। हम सभी जानते हैं कि शांति और न्याय यात्रा के बाद 11मई को गृहमंत्री ने आपको संबोधित एक पत्र में लिखा था  कि ‘मुझे पता चला  है रायपुर   से  दंतेवाड़ा   तक सामाजिक कार्यकर्ताओं के एक समूह का शांति यात्रा में नेतृत्व करते हुए आप रायपुर से दंतेवाड़ा गये...’

आप नेता कैसे बन सकते हैं जबकि आप शांति यात्रा के ऐसे पहले सदस्य थे जिन्होंने जगदलपुर के एक लॉन में बैठकर 6मई को बीजेपी और कांग्रेस के गुंडों के प्रदर्शन के बाद कहा था कि 'हम लोग यहां शहीद होने के लिए नहीं आए हैं. विरोध–प्रदर्शन बंद कर देना चाहिए और कल ही यहां से वापस चले जाना चाहिए.'


हमारे एक सदस्य डॉ. बनवारी लाल शर्मा के फोन करने और चेतावनी देने के बावजूद आपने गुपचुप तरीके से कदम उठाते रहे.उदाहरण के तौर पर थॉमस कोचरी ने एक सलाह दी थी कि इस अभियान से जुड़े कुछ सदस्यों को जेल में बंद माओवादी नेताओं से मुलाकात करनी चाहिए. कई दूसरे सदस्यों समेत नारायण देसाई ने इसका समर्थन किया था. डॉ शर्मा ने आपसे अनुरोध किया था कि आपको इस बाबत गृह मंत्रालय से अनुमति लेनी चाहिए क्योंकि आप वहां जा चुके थे.


अभियान के प्रमुख लोग: उभरे अग्निवेश
बजाय इसके कि आप हमारे अभियान के लिए इसकी इजाजत लेते,आपने गुपचुप तरीके से रायपुर और दिल्ली के  तिहाड़ जेल में जाकर माओवादी नेताओं से मुलाकात कर ली.इसके अलावा आपने राजगोपाल के साथ मिलकर दिल्ली में 9जुलाई को एक राउंड टेबल आयोजित करने का ऐलान कर दिया,जबकि राजगोपाल हमारे ग्रुप में पहले से नहीं शामिल थे.


जब हमें ये पता चला तब हम लोगों ने इसमें हस्तक्षेप किया.इस मीटिंग में वरिष्ठ गांधीवादी नेता राधा भट्ट और डॉ शर्मा मौजूद थे.इसी मीटिंग में आपने खुलासा किया कि आपके पास आजाद (माओवादी प्रवक्ता)का भेजा गया वो पत्र है जिसे उन्होंने चिदंबरम के पत्र के जवाब में भेजा था.हालांकि आपने ये पत्र हमें दिखाने से इंकार कर दिया था,जबकि ये पत्र पहले ही सार्वजनिक हो चुका था और हमारे पास भी मौजूद था.जब आप पर अभियान के सदस्यों ने ये जानने के लिए दबाव डाला कि 'आजाद ने बातचीत के लिए क्या शर्ते रखी हैं?'तब आपने केवल कुछ संकेत दिए.

हमने तब जोर देकर कहा कि जब तक सरकार माओवादियों की कुछ मांगों को स्वीकार करके गंभीरता का परिचय नहीं देती,तब तक माओवादियों से राउंड टेबल बातचीत का कोई मतलब नहीं.डॉ शर्मा के साथ लंबी बातचीत के दौरान आपने उन्हें विश्वास दिलाने की कोशिश की कि सबकुछ ठीक है, लेकिन ये साफ हो चुका है कि कुछ भी ठीक नहीं था.आपने खुद स्वीकार किया था कि चीजें ठीक दिशा में नहीं जा रही और आप इस प्रक्रिया से बाहर होना चाहते हैं.(हालांकि किसी ने आपसे इस प्रक्रिया में शामिल होने के लिए कहा भी नहीं था).चिदंबरम और कुछ दोस्त जिनके साथ आप माओवादियों के प्रतिनिधि के तौर पर व्यवहार कर रहे थे,से झटका खाने के बाद आपने उनसे 25 जून को फोन पर हुई बातचीत के दौरान ये बात कही थी.


इन साथियों ने आपसे आजाद के पत्र को सार्वजनिक करने का दवाब डाला.जबकि आप चिदंबरम के पत्र को पहले ही सार्वजनिक कर चुके थे. (आपने इस पत्र की स्कैन कॉपी ई-मेल से भेजी थी). आपने 19 जून को दोपहर तीन बजे दिल्ली में प्रेस कांफ्रेंस कर आजाद के खत को सार्वजनिक करने का फैसला लिया था और इसका ऐलान भी कर दिया था,लेकिन चिदंबरम के आदेश पर आपने आखिरी वक्त में प्रेस कांफ्रेंस को स्थगित कर दिया.


शांतिवार्ता की प्रक्रिया में यह लोग क्यों नहीं रहे?
बातचीत की प्रक्रिया से अलग होने के बाद भी आपने आजाद को पत्र लिखा और इसका भयानक परिणाम सबके सामने है.केवल आजाद ही नहीं, हेमचंद्र भी मारे गए. और इसी के साथ शांति प्रकिया की भी हत्या हो गई.


आप हमें ये कहने की इजाजत दें कि आप इस देश के स्वतंत्र नागरिक हैं और अपनी मनमर्जी के मुताबिक काम करने के लिए स्वतंत्र हैं.लेकिन हमें अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि सचेत नागरिकों के कठिन प्रयास से निकला एक ‘शांति दूत’चुनावी एजेंट में बदल चुका है,जिसने 9अगस्त को लालगढ़ में एक जोरदार चुनावी भाषण दिया है.आपकी उस बहुप्रचारित ‘शांति यात्रा’का क्या हुआ जिसे 9से 15 अगस्त के दौरान कोलकाता से लालगढ़ जाना था और जिसमें मेधा पाटकर समेत कई सामाजिक संगठनों को शामिल होना था?जिसके नेता आप और मेधा थे और धारा144 को तोड़ते हुए लालगढ़ में आपको 15 अगस्त के दिन तिरंगा फहराना था?


आपने ‘शांति प्रक्रिया’को राजनीति की विषयवस्तु बना दिया है.हमें अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि आपने निजी राजनीतिक महत्वाकाक्षांओं के लिए शांति-न्याय मार्च के 60सदस्यों के साथ धोखा किया है. हम कहना चाहते हैं कि आपकी गलतियों के लिए हम कहीं से भी जिम्मेदार नहीं हैं.

शांति  मार्च  के भागीदारों का मूल अंग्रेजी में लिखा पत्र  

आपने शांति प्रकिया का बहुत नुकसान किया है.बावजूद इसके,शांति और न्याय के लिए हमारी मुहिम जारी है.हमारा प्रयास है कि देश में हिंसा की समाप्ति और हिंसा के लिए जिम्मेदार मूलभूत कारणों को समाप्त करने के लिए जनमत बनाया जा सके.

भवदीय
अगस्त 19, 2010
थॉमस कोचरी अमरनाथ भाई,राधा भट्ट, डॉ वी एन शर्मा, गौतम बंदोपाध्याय, जनक लाल ठाकुर, राजीव लोचन शाह, नीरच जैन, विवेकानंद माथने, डॉ बनवारी लाल शर्मा, मनोज त्यागी, डॉ मिथिलेश डांगी की ओर से जारी पत्र...


अनुवाद : विडी




माओवादी कहलाना पसंद करूँगा !


जनज्वार  में छपे  लेख ‘लखीसराय फिल्म की सफलता और टीवी शो के बुद्धिजीवी' के कुछ अंशों  पर जीएन साईबाबा ने ऐतराज करते हुए एक टिप्पणी लिखी है,जो इस प्रकार से है...
जनज्वार के प्रिय साथियों,

जनज्वार ने मुझ पर आरोप लगाया गया है कि बिहार में माओवादियों द्वारा बंधक बनाए गए पुलिसकर्मियों में से एक  लोकस टेटे की हत्या पर मैंने अरुंधती  राय,स्वामी अग्निवेश और मेधा पाटेकर के खेद जताने के बाद खेद जताया.मेरे ऊपर लगाया गया यह आरोप आधारहीन है.मैंने दो सितंबर को लोकस टेटे की हत्या से पहले ही बीबीसी (हिंदी)और कुछ टीवी चैनलों से हुई बातचीत में माओवादियों से बंधक बनाए गए चारों पुलिसकर्मियों की हत्या न करने की अपील की थी.

मैंने इस बात पर अपनी राय जाहिर की थी कि माओवादियों को उनकी हत्या क्यों नहीं करनी चाहिए.

लोकस टेटे की हत्या की खबर मिलने के दो घंटे बाद ही मैंने बयान जारी करना शुरू कर दिया था,मुझे जो भी मिला मैंने उसे अपना बयान दिया.

‘जनज्वार’ ने मुझे माओवादियों का एक समर्थक बताने की कोशिश की है, लेकिन मुझे समर्थक शब्द से नफरत है. पत्रकार अर्नव  गोस्वामी को भी मुझे और बहुत से अन्य लोगों को माओवादियों को समर्थक बताना  अच्छा लगता है. लेकिन मैं एक ‘समर्थक’ होने की जगह ‘माओवादी’ होना ज्यादा पसंद करुंगा है.  समर्थक कहने से ऐसा लगता है कि कोई मुझे दलाल, टहलुआ या बिचौलिया कहकर बुला रहा है.

मुझे उदारवादी बुद्धिजीवियों से  जो कि आज के समाज के बारे में अच्छी समझ रखते हैं,उनकी अपील से भाकपा (माओवादी) अगर सबक लेती है तो  इसमें कोई समस्या नजर नहीं आती है. खासकर उन बुद्धिजिवियों की तुलना में जो कि महान मार्क्सवादी होने का दंभ तो भरते हैं लेकिन आज के समय की समस्याओं के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं निभाते हैं.

शुभकामनाओं के साथ

जीएन साईबाबा

Sep 5, 2010

‘लखीसराय’ फिल्म की सफलता और टीवी शो के बुद्धिजीवी


पिछले छह दिनों से बंधक बनाये तीन पुलिसकर्मियों को सही-सलामत उनके परिजनों को सौंपने का फैसला कर  माओवादियों ने इतिहास नहीं रचा है बल्कि  पार्टी परंपरा को ही जारी रखा है.

अजय प्रकाश

एक सप्ताह पहले कजरा के जंगलों से रिलीज हुई सस्पेंस,रोमांस और मारधाड़ से भरपूर दिल को छू देने वाली फिल्म ‘लखीसराय’इस हफ्ते टीवी चैनलों के बक्से पर सबसे ज्यादा हिट रही। हिट कराने का सारा श्रेय माओवादियों को जाता है, जिन्होंने खबरहीन हो चुके चैनलों की टीआरपी बरकरार रखने में महती भूमिका अदा की।

पुलिसकर्मी अभय प्रसाद यादव की पत्नी से खगड़िया जिले में राखी बंधवाकर किशन नाम के एक माओवादी ने भाई-बहन के प्रेम को अमर करने का इतिहास रचा है और इस प्रकार यह प्रहसन अंत की ओर है।किशन से  बदले में बहन के पति के महकमे को नौ ग्रामीणों की माओवादी होने के आरोप में गिरफ्तारी का उपहार भी मिला है। हालांकि प्रवक्ता अविनाश इन गिरफ्तारियों के बारे में बॉक्स ऑफिस पर लगातार फोन कर बता रहे हैं कि वह निर्दोष ग्रामीण हैं,लेकिन थोड़ी देर पहले तक काकचेष्टा लगाये मीडिया उनकी बात सुन संवैधानिक कानूनों की याद दिला रहा है।

माओवादी   पार्टी गठन से पहले जारी पर्चे का एक अंश
इधर बिहार से आ रही खबरों के मुताबिक बंगाल वाले किशन जी और बिहार वाले में बस इतना ही फर्क दिखा कि वह चेहरे पर हरा लपेटते हैं इसने भगवा लपेटा था। वह चेहरा नहीं एके 47 दिखाते हैं, यह झलक दिखा गया। उनके सामने से मीडियाकर्मी जाते हैं,यहां वह खुद गया। यानी अपना बिहार वाला किशन जी बंगाल वाले से साहसी निकला कि चिलमन से बाहर तो झांका।

इन जानकारियों को साझा करने के बाद अब पाठकों से विनम्र आग्रह है कि कृपया यह न पूछें कि चौथे स्तंभ पर जांनिसार माओवादियों को टीवी के बक्से पर इतना ऐतबार क्यों है?अगर इसका जवाब पाठकों को मिल भी गया तो वह फिर भी बाज न आयेंगे और पूछ बैठेंगे कि झारखण्ड निवासी आदिवासी हवलदार लुकास टेटे की हत्या माओवादियों ने की या फिर टीवी चैनलों ने 'इमोशनल अत्याचार' करके करवायी।

फिर भी आप एक बेसब्र पाठक हैं तो कृपया बॉक्स ऑफिस पर संपर्क कर प्रवक्ता का नंबर लें। समय हो तो मेरी तरफ से भी सवाल पूछ लें कि माओवादियों ने चुनकर एक आदिवासी पुलिसकर्मी की हत्या क्यों की? यादव, सिन्हा और खान साहब संयोग से नहीं मारे गये कि बिहारी होने का आरक्षण मिला। या फिर इससे भी दो कदम आगे बढ़कर यह कोई नयी ‘टैकटिक्स’थी कि इससे बिहार में काम करने में दिक्कत आयेगी।

बंधक पुलिस कर्मियों के परिजन: नौकरी ही गुनाह
उन्हें न सूझे तो माओवादी पार्टी के केंद्रीय समिति सदस्यों से पूछना,जो एक आदिवासी की हत्या करने के बाद बाकियों के साथ क्या किया जाये,के विचार-विमर्श के लिए जुटे थे। साथ में यह भी पूछना कि   नामचीन बुद्धिजीवियों की राय अगर नहीं आयी होती तो क्या आप बाकी पुलिसकर्मियों को मार डालते?

बहरहाल,बिहार की राजधानी पटना में कल शाम  हुई सर्वदलीय बैठक के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने माओवादियों से बातचीत की चाहत को मीडिया में सार्वजनिक किया है। मुख्यमंत्री की चाहत का कारण कजरा के जंगलों में 29अगस्त को माओवादियों और पुलिस की मुठभेड़ में चार पुलिसकर्मियों का अगवा कर लिया जाना है,जिसमें से एक की हत्या कर माओवादियों ने तीन को अभी इस लालच में बचा रखा था कि इसके बदले वह पूर्वी बिहार की जेलों में बंद आठ माओवादियों को छुड़वायेंगे। 29अगस्त की मुठभेड़ में सात पुलिसकर्मी मारे गये थे,लेकिन उसकी चर्चा बॉक्स ऑफिस पर नहीं है क्योंकि उसमें सस्पेंस, रोमांस, ट्रेजेडी का पुट नहीं है।

पुलिस ही हत्यारी: कौन करेगा जाँच
बदले में छुड़वाने की योजना संभव न हो सकी है और माओवादियों ने बिना  शर्त  कजरा के जंगलों से पुलिसकर्मी रूपेश कुमार सिन्हा,अभय प्रसाद यादव और एहसान खान को अपने कब्जे से मुक्त करने की जानकारी दी है .‘लखीसराय’फिल्म के माओवादी प्रवक्ता अविनाश ने कब्जे से मुक्त किये जाने के कारण के तौर पर ‘इन्टलेक्चुअल प्रेशर’और मानवीय आधार को जिम्मेदार बताया है। हालाँकि यह प्रेशर वामपंथ की नर्सरी कहे जाने वाले बिहार से नहीं,मेट्रो शहर दिल्ली से अग्रसारित हुआ है।

प्रवक्ता को यह प्रेशर उस समय महसूस हुआ जब लेखिका अरुंधती  राय,सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश और मेधा पाटकर ने माओवादियों की इस कार्यवाही की भर्त्सना की। गौरतलब है कि इन तीनों बुद्धिजीवियों में कोई मार्क्सवादी  नहीं है और न ही किसी का वर्ग संघर्ष की राजनीति में कोई भरोसा है। फिर भी माओवादियों ने इनके सुझावों की कद्र की। यह
 माओवादियों का बड़प्पन है या छुटपन यह तो वही जानें,लेकिन दिल्ली में माओवादियों के पक्ष में मीडिया के सामने अक्सर बयान देने वाले जीएन साईंबाबा का भी बयान इन गैर मार्क्सवादियों  की राय के बाद ही प्रकाश में आया कि 'माओवादियों की इस कार्यवाही को उचित नहीं कहा जा सकता।’
तो फिर फोन करने वाले पाठको!प्रवक्ता से यह भी पूछना कि पार्टी से लेकर माओवादी बुद्धिजीवी तक बयान देने के लिए क्या उन्हीं सुधारवादी और मानवतावादियों का मुंह ताकते रहते हैं जो माओवादी राजनीति का लोहा मानते हुए भारतीय समाज में संघर्ष और प्रतिरोध को सबसे मुकम्मिल धारा मान चुके हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि यह माओवादियों की असफलता है या चंद लखीसराय टाइप प्रवक्ताओं की,जिनको कि माओवादियों ने जिम्मेदारी सौंप रखी है।

सबसे महत्वपूर्ण सवाल है कि माओवादी पार्टी का सुरक्षाबलों के प्रति क्या नजरिया है,यह इस पूरे घटनाक्रम के बीच क्यों नदारद रहा?ऐसा क्यों हुआ कि सुरक्षाबलों के प्रति तय रणनीति के खिलाफ माओवादियों ने हवलदार लुकास टेटे की हत्या की?यह बात जीएन साईंबाबा जैसे बुद्धिजीवियों को क्यों नहीं समझ में आयी और अरुंधती की जुबान खुलने पर बयान देने की दरकार महसूस हुई कि 'अगवा कर  मारना उतना ही बड़ा अपराध है जितना बड़ा हाल ही मारे गये आजाद और हेमचंद पाण्डेय की हत्या।'

अरुंधती : बुद्धि का साहस
क्या यह सही वक्त नहीं था जब बॉक्स ऑफिस को मुक्ति के रास्ते के तौर पर इस्तेमाल किये जाने पर आमादा बुद्धिजीवी यह पूछते कि अदिलाबाद के जंगलों में मारे गये माओवादी पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता आजाद की मां चेरूकुरी करुणा की आंखों में जो आंसू थे वे किस मायने में वे किसी पुलिसकर्मी के परिजनों से कमतर थे। आंसुओं और दुखों को राजसत्ता के नजरिये से देखने वाले मीडिया पर क्यों नहीं बरसा जाना चाहिए कि पत्रकार हेमचंद्र की बीबी बबीता के मन में सरकार के प्रति नफरत का भाव झारखण्ड में माओवादियों के हाथों मारे गये पुलिसकर्मी इंदुवार के नाबालिग बेटे से कमतर कैसे है?

अगर नहीं है तो फिर यह कैसे हुआ कि ग्यारह आदिवासियों की हत्या के बाद छत्तीसगढ़ सरकार लगातार कहती रही कि वे माओवादी थे और मुठभेड़ में मारे गये। सबको झुठलाने पर टिकी सरकार के होश ठिकाने तब आये जब सर्वोच्च न्यायालय ने सभी मृतकों के परिजनों को एक-एक लाख मुआवजा देने का आदेश दिया और मुठभेड़ को फर्जी करार दिया। अगर कमतर नहीं है तो अलीगढ़ किसान आंदोलन में मारे गये पांच किसानों की हत्या की आज तक एफआईआर दर्ज क्यों नहीं की गयी है?अगर कमतर नहीं है तो पिछले नवंबर से इस वर्ष अप्रैल के बीच छत्तीसगढ़ के बस्तर में 112आदिवासी फर्जी मुठभेड़ों में मारे गये,लेकिन बस्तर में माओवादियों के नाम पर हुई हत्याओं को लेकर कभी किसी पुलिसकर्मी के खिलाफ मुकदमा क्यों दर्ज नहीं किया गया है?

तो फिर सवाल उठता है कि बुद्धिजीवियों को सबसे ज्यादा पसरने का मौका देने वाला टीवी का बॉक्स ऑफिस कभी इन सरकारी हत्याओं को सवाल क्यों नहीं बना सका?आजाद और हेमचंद पांडे की पोस्टमार्टम रिपोर्ट आ चुकी है। प्रबुद्धजनों की फैक्ट फाइंडिंग टीम लौटकर रिपोर्ट जारी कर चुकी है कि यह मुठभेड़ नहीं हत्या है। फिर भी केंद्रीय गृह सचिव कहते हैं-‘आजाद मुठभेड़ मामले में कोई अलग से जांच नहीं होगी।’क्या कोई बुद्धिजीवी या बॉक्स ऑफिस का एंकर है जो सरकार पर दबाव बनाकर कहे कि वह माओवादियों से संघर्ष में संयुक्त राष्ट्र संघ के तय मानकों का ख्याल करे।