Mar 23, 2010
मैं चाहता हूँ, बेटा इस्लामिक स्कूल में पढ़े !
पाकिस्तान के एक प्रसिद्ध अंग्रेजी दैनिक "डान" में हर बुधवार को 'स्मोकर्स कार्नर' के नाम से नदीम एफ़ पारचा कॉलम लिखते हैं. इस बार बुधवार को उन्होंने एक बेहद जरूरी मसले को बड़े नायाब तरीके से पेश किया है. हमें उम्मीद है कि मसला और उसे बताने का तरीका दोनों ही आप सबको पसंद आएगा.
नदीम एफ़ पारचा
कुछ दिन पहले की बात है, मैं ट्रैफिक सिग्नल पर लाल बत्ती के हरा होने का इंतजार कर रहा था। तभी एक बच्चा मुझे एक पर्चा पकड़ा गया। आम तौर पर ऐसे पर्चों को मैं फेक दिया करता हूं लेकिन उस दिन मैंने यह सोच कर रख लिया कि देखता हूं इसमें छपा क्या है।
पर्चा एक मान्टेसरी स्कूल ‘मॉडल इस्लामिक मॉन्टेसरी’ के दाखिले के विज्ञापन का था। घर पहुंचकर मैंने तय किया कि क्यों न इसके प्रिंसिपल से बात की जाये और जाना जाये कि यह किस तरह का स्कूल है।
मैंने प्रिंसिपल को फोन लगाया और कहा ‘हेलो, अस्सलामालेकुम’।
सामने से किसी महिला ने जवाब दिया-‘वालेकुमअस्सलाम’।
मैने पूछा, ‘क्या मैं मॉडल इस्लामिक मान्टेसरी की प्रिंसीपल से बात कर रहा हूं।’
‘जी हां, बोल रही हूं, क्या मदद कर सकती हूं।’
‘मेरा एक तीन साल का बेटा है जिसका मैं आपके स्कूल में दाखिला दिलाना चाहता हूं।’ - मैंने कहा
‘जी हां, उसका स्वागत है’- उन्होंने जवाब दिया।
फिर मैंने कहा, ‘लेकिन मेरे कुछ सवाल हैं’।
‘जरूर, आप हमसे कुछ भी पूछ सकते हैं’- प्रिंसिपल ने कहा।
मैंने सवाल किया, ‘आपका स्कूल गैर-इस्लामिक स्कूलों से अलग कैसे है?’
‘क्या मतलब?’- उन्होंने पूछा।
यही कि आपका स्कूल एक इस्लामिक मॉन्टेसरी है न ?- मैंने पूछा
कुछ हिचकते हुए उन्होंने जवाब दिया, ‘जी हां।’
‘तो हमें आप ये बतायें कि एक इस्लामिक मॉन्टेसरी, गैर इस्लामिक मॉन्टेसरी से अलग कैसे है’ - मैंने जानना चाहा।
‘हां, हमारे यहां इस्लाम की परंपरा और तहजीब जैसे कि रोजा, सलात आदि की शिक्षा दी जाती है।’
मैंने प्रिंसिपल की बात काटते हुए पूछा कि ‘आप नमाज की बात कर रही हैं।’
‘जी.....नमाज.....एक ही बात है’- उन्होंने समझाया।
‘अच्छा ठीक है, लेकिन ये बतायें कि आप लोग बच्चों और क्या-क्या पढ़ाते क्या हैं’- मैंने पूछा।
उनका जवाब था, ‘हम बच्चों को अच्छी आदतें सिखाते हैं.....।’
मैं उन्हें बीच में रोककर पूछ पड़ा, ‘इस्लामिक आचरण’।
‘जी........बिल्कुल’- प्रिंसिपल दुबारा हिचकीचाते हुए बोलीं।
‘बहुत अच्छा। मगर आप ये बतायें कि क्या इस्लामिक आचरण, गैर इस्लामिक आचरण के मुकाबले ज्यादा अच्छा और सभ्य है?’
इतना सुनते ही प्रिंसिपल ने बहुत विनम्र होकर पूछा, -‘सर.......मैं आपसे क्या एक सवाल कर सकती हूं।’
‘जरूर.... मैडम।’
‘आखिर आप इस्लामिक-गैर इस्लामिक बहस में क्यों उलझ रहे हैं’- उन्होंने ऐतराज उठाया।
मैंने जवाब में कहा,- ‘मैं चाहता हूं कि मेरा बेटा इस्लामिक स्कूल में पढ़े। इसलिए संतुष्ट हो लेना चाहता हूं कि आपका ‘मॉडल इस्लामिक मॉन्टेसरी’ दूसरे इस्लामिक स्कूलों जैसा तो नहीं।’
तब उन्होंने पूछा- ‘आपका बेटा कितने साल का है।’
‘तीन साल का’
‘तो फिर आप खुद स्कूल में ही आकर सबकुछ क्यों नहीं देख लेते’- उन्होंने राय दी।
‘क्या आप उन्हें अल्लाह के लिए गाये जाने वाले गीत (नात) सिखाती हैं- मैंने पूछा
उन्होंने कहा, ‘जी हां, क्यों नहीं?’
‘तो आप बच्चों को अंग्रेजी के वे बालगीत सिखाती हैं जिसमें यहूदीवाद के क्रुर सन्देश दिये होते हैं? - मैंने पूछा
हल्के अंदाज में हंसते हुए प्रधानाध्यापिका बोलीं, ‘सर इस बारे में मैं नहीं जानती, लेकिन शिक्षकों को हम जरूर इसकी मनाही करते हैं कि ऐसी कविताएं नर्सरी में न पढ़ायी जायें।’
‘इस बारे में आपका ऐसा सोचना अच्छा लगा,....... बतायेंगी कि कव्वाली के बारे में आपका क्या ख्याल है।’ वैसे मुझे तो कव्वालियां बेहद पसंद हैं। इतना कहने के साथ मैं गुनगुनाने लगा- 'भर दो झोली मेरी।’
मुझे रोकते हुए उन्होंने कहा, ‘नहीं सर..........यह सब नहीं.....सिर्फ इस्लामियत की बुनियादी चीजें।’
‘लेकिन क्या बच्चे आमतौर पर एक गैर इस्लामी स्कूल में भी यह सब नहीं सीखते। फिर आपका स्कूल इस्लामिक कैसे हुआ।’- मैंने पूछा
प्रिंसिपल ने जोर देकर आग्रह किया, ‘सर आप खुद ही स्कूल में आकर क्यों नहीं देख लेते। हमें विश्वास है कि हमारे सांस्कृतिक परिवेश से आप जरूर प्रभावित होंगे। आपको बता दूं कि शहर का यह इकलौता मॉन्टेसरी है जहां छोटी लड़कियां भी हिजाब करती हैं और लड़के परंपरागत इस्लामिक ड्रेस पहनते हैं।’
मैंने खुशी जाहिर करते हुए कहा, ‘लेकिन ये बताइये लड़कियां तो हिजाब में आती है मगर लड़के।’
‘उन्हें स्कूल में सिर्फ शलवार-कमीज और इस्लामी टोपी पहनकर आने की ही इजाजत है।’- उन्होंने कहा
‘मगर शलवार-कमीज तो हमारे मुल्क का राश्ट्रीय पहनावा है, न कि इस्लामी पोशाक। आप ऐसा करें कि लड़कों को अरबी चोगा पहनायें। मैं आपको भरोसा दिलाता हूं उनमें से एक मेरा बेटा भी होगा।’
तभी उन्होंने बात बदलते हुए पूछा- आपके बेटे का नाम क्या है?’ ‘पॉल नील फर्नांडिस जूनियर’- बेटे का नाम बताते ही फोन की दूसरी तरफ चुप्पी छा गयी।
‘हेलो....हेलो.......प्रिंसिपल साहिबा ....आप हैं.........।’- उधर से सख्त आवाज आयी,.....‘आप मजाक कर रहे हैं क्या.....।’
‘नहीं साहिबा.......मैं गंभीरता से कह रहा हूं’- मैंने जवाब दिया
‘लेकिन आप तो क्रिष्चियन हैं। फिर क्यों चाहते हैं कि आपके बेटे का नाम इस्लामिक स्कूल में दर्ज किया जाये।’- उन्होंने पूछा
‘सीधी सी बात है। ऐसा में इसीलिए चाहता हूं कि मैं एक इस्लामिक गणतंत्र का क्रिश्चियन हूं। साहिबा क्या आप जानती हैं कि एक इस्लामिक गणतंत्र में धार्मिक अल्पसंख्यक होने का एहसास क्या होता है।’
फिर चुप्पी......... मैं अपनी बात जारी रखते हुए कहता हूं, ‘इसलिए मैं चाहता हूं कि मेरा बेटा सभी इस्लामिक कायदे सीखे जिससे कि वह समाज में बेमेल होने से बच सके।’
‘तो फिर आप धर्म परिवर्तन क्यों नहीं कर लेते’- उधर से यह ठोस सुझाव मुझे सुनायी दिया।
तो मैंने पूछा, ‘मैं ही क्यों?’
‘इसलिए कि आप ऐसा महसूस कर रहे हैं’- उन्होंने कहा।
‘लेकिन आप ही क्यों नहीं बदल जातीं’- मैंने जानना चाहा।
‘हम बदल जायें?’- इसमें जवाब और सवाल दोनों मिलाजुला था।
मैंने कहा, ‘हां जो सलूक हमारे साथ यहां होता है कभी आप भी महसूस किजीए।’
‘देखिये सर, मैं इस झंझट में नहीं पड़ना चाहती। रही बात आपके बच्चे का हमारे यहां प्रवेश पाने की तो, यह संभव नहीं लगता।’- प्रिंसिपल ने कहा।
मैंने पूछा,- ‘सिर्फ इसलिए कि वह क्रिश्चियन है।’
‘ऐसा ही लगता है’- उधर से जवाब मिला।
मैने विरोध किया, ‘लेकिन पाकिस्तानी मुसलमानों के तमाम बच्चे क्रिश्चियन स्कूलों में पढ़ते हैं। तो फिर मेरे बच्चे के साथ भी आप एक पाकिस्तानी की तरह क्यों नहीं व्यवहार कर रही हैं। मैं तो चाहता हूं कि आप इससे भी आगे बढ़कर एक इंसान के तौर पर पेश आयें।’
मेरे इस सवाल पर प्रधानाध्यापिका ने कहा, ‘सर माफ कीजिए, हम आपकी कोई मदद नहीं कर सकते।’
मैंने उन्हें सुझाया, - ‘अगर मैं आपको स्कूल की फीस दोगुनी दूं तो आप मेरे बेटे को दाखिला देंगी?’
उनका जवाब था-‘सर....यह तो घुसखोरी मानी जायेगी।’
फिर मैंने सुझाव दिया, ‘अरे नहीं, इसे जजिया मानकर रख लिजियेगा।’
अनुवाद- अजय प्रकाश
Mar 20, 2010
बर्फ में नौ सौ किलोमीटर
दुनिया की सबसे ठंढी जगह अंटार्टिका के दक्षिणी पोल पर पहुंचने वाली भारत की पहली महिला रीना कौशल धर्मसत्तु से अजय प्रकाश की बातचीत
आप भारत की पहली महिला हैं जो बर्फीले रास्तों पर नौसौ किलोमीटर की यात्रा कर अंटार्कटिका पहुंची , उस अनुभव को आप कैसे साझा करना चाहेंगी?
हजारों मील तक फैली बर्फ की चादरों के बीच जहां किसी और का कोई अस्तित्व नहीं दिखता, उस ठंढ के विस्तार को महसूसने के लिए जब कभी मैं आंख मुंदती हूं तो मेरा दिल मगन हो गाने लगता है। वहां पहुंचने के बाद एकबारगी लगता है कि दुनिया के बाकी रंग न हों, तो भी प्रकृति ने बर्फ को जिस सफेद रंग की नेमत से संवारा है, उसकी स्वच्छता एक खुबसूरत संसार रच सकती है। अंटार्कटिका के दक्षिणी पोल पर पहुंचकर कीर्तिमान बनाने के रिकॉर्ड के साथ मैं अपनी जिंदगी में एक नयापन लेकर लौटी हूं और खुश हूं।
इस नये कीर्तिमान को छूने के लिए भारत से अंटार्कटिका आप कैसे पहुंचीं?
यह कोई मेरा बहुत बड़ा सपना तो नहीं था लेकिन मैं स्की करने के रोमांच को जीना चाहती थी। मैं पर्वतारोहण की प्रशिक्षक हूं मगर स्की करने का मेरा यह पहला मौका था। संयोग से अगस्त 2008 के एक अखबार में छपे विज्ञापन पर मेरी निगाह पड़ी और मैंने इंटरनेट के जरिये आवेदन कर दिया। देश भर से 130 लड़कियों द्वारा किये गये आवेदन में से दिल्ली स्थित ब्रिटीष काउंसिल में 10 को बुलाया गया जिसमें से मुझे और पश्चिम बंगाल की अपर्णा को चुना गया। राश्टमंडल के आठ देश न्यूजीलैंड, सिंगापुर, भारत, ब्रिटेन, साइप्रस, बु्रनै, घाना और जमैका से दो-दो लोगों को चुनकर नार्वे प्रशिक्षण के लिए ले जाया गया। वहां हमें दो हफ्ते का प्रषिक्षण मिला और आखिरकार सभी देषों से एक-एक प्रतियोगियों को अंटार्कटिका यात्रा के लिए चुना गया। उसके बाद हम सभी अपने देष लौट आये और नार्वे कैंप मिले प्रषिक्षण हिदायतों के हिसाब से तैयारियों में जुट गये।
भारत में आपने किस तरह की तैयारी की और सरकार से आपको क्या मदद मिली?
सारी तैयारी शारीरिक चुस्ती-फुर्ती से जुड़ी थी जिसको हमने पूरे लगन से किया। लेकिन हमारे सपने को पूरा होने में सबसे बड़ा रोड़ा प्रायोजक का मिलना था। खेल मंत्रालय के मुताबिक ‘रोमांच का खेल-स्की’ किसी तय कटगरी में नहीं आता इसलिए उसने आर्थिक मदद देने से इंकार कर दिया। उसके बाद मैंने बहुत से कॉरपोरेट घरानों से संपर्क किया मगर वह भी नहीं तैयार हुए। सिर्फ भारतीय पर्वतारोहण संस्थान ‘आइएमएफ’ और बजाज ग्रुप ने मदद की। लेकिन यात्रा को प्रायोजित करने की पूरी जिम्मेदारी रूस की एक एंटीवायरस कंपनी ‘कैस्पर्सकी’ ने ‘कैस्पर्सकी कॉमनवेल्थ अंटार्कटिका एक्सपेडिषन’ योजना के तहत उठायी। अब जबकि मैं अंटार्कटिका के दक्षिणी पोल पर झंडा फहरा कर आ चुकी हूं मगर फिर भी किसी सरकार ने न तो हमसे संपर्क किया और न ही आर्थिक मदद मिली। एक उम्मीद जरूर है कि सरकार बढ़ते रूझान को देख तवज्जो देना शुरू करेगी।
पर्वतारोहण जैसे रोमांचकारी खेल में आपकी दिलचस्पी कैसे बनी, उस बारे में कुछ बताइये?
हमारे पापा द्वारका नाथ कौषल फौज में थे और उनका तबादला होता रहता था। रिटायर होने के बाद वह दार्जीलिंग में बस गये। मेरा जन्म तो उत्तर प्रदेष के बरेली में हुआ लेकिन दार्जीलिंग के पहाड़ों के बीच पली-बढ़ी। दार्जीलिंग से मेरा एक भावनात्मक लगाव भी था। मुझे बचपन से ही पहाड़, उनकी उचाइयां और दूर तक का उनका फैलाव अपनी ओर आकर्षित करता था। सामने खड़ी कंचनजंघा की बर्फ से ढकी चोटियों को देख उस पर चढ़ने का मन करता था।
दार्जीलिंग के लॉरेटो कान्वेंट स्कूल से बारहवीं पास कर मैंने वहीं के सेंट जोसेफ कॉलेज से बीकाम किया। फिर मेरे जीवन की असली तैयारी षुरू हई और मैंने पवर्तारोहण में ‘हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान’ से प्रषिक्षक तक षिक्षा हासिल की। षादी के बाद मेरे पति लवराज सिंह धर्मसक्तु से काफी मदद मिली। लवराज मुझसे बड़े पर्वतारोही हैं और आप कह सकते हैं कि हमदोनों का साथ पेषे और जीवन साथी दोनों के तौर पर एक सफल जोड़ी का है। उसके बाद हर साल मैं एक न एक पर्वत चढ़ती ही रही।
अंटार्कटिका में स्की यानी बर्फीली यात्रा आपलोगों ने कैसे पूरी की?
नवंबर 21 को रोनी आइस सेल्फ नामक स्थान से हम आठ लोगों को दक्षिणी पोल के लिए रवाना कर दिया गया। हवाई जहाज से मेसनर्स स्टार्ट तक पहुंचने तक हममें से एक साथी को स्वास्थ कारणों से वापस होना पड़ा। अब हम सात ही थे जिन्होंने मेसनर्स स्टार्ट जो कि विख्यात पवर्तारोही रोनाल्ड मसनर्स के नाम पर बनाया गया बेस है, जहां से स्की करने के लिए चल पड़े। और इस तरह मेसनर्स स्टार्ट से साउथपोल की नौसौ किलोमीटर की बर्फीली यात्रा को हमने 40 दिनों में पूरा किया। पूरे सफर के दौरान इंसानों की कौन कहे कोई जानवर भी रास्ते में नहीं मिला।
इन चालीस दिनों के बीच हमने बर्फीले तुफान, थोड़ा भय और शुन्य से तीस डिग्री नीचे तक का ठंढा मौसम झेला। मगर साहस और सहनषक्ति भी प्रकृति के उन महान दृष्यों से ही मिला जिसे आज भी हम याद कर आह भरते हैं।
खाने,पहनने और बचाव के लिए आपलोग क्या ले गये थे?
हममें से हरेक के पास साठ किलो का सामान का था जिसमें टेंट, पेटोल, स्टोव, खाना, दवा, रेडियो टांसमीटर और ट्वायलेट किट्स थे। सामान हमलोग पीठ पर नहीं बल्कि अपने से पीछे की ओर बांधकर खिंचते रहते थे। हमलोगों में जबर्दस्त टीम भावना थी इसलिए कभी कोई दिक्कत ही नहीं हुई। रोज कमसे कम दस घंटे बर्फीले रास्तों पर स्की कर आगे बढ़ते जाना था। एक बार में डेढ़ घंटा चलकर सात मिनट का आराम करते।
किसी के पैर छाले पड़ गये या किसी को पैरों या कहीं तनाव रहा तो हमलोग आराम के दौरान एक दूसरे की मालिश कर आगे बढ़ लेते। प्रतिदिन हमलोंगो को साढ़े चार हजार कैलारी खाना होता था जो कि आम आदमी के भोजन की कैलोरी से तीन गुना था। इसी तरह पानी भी कम से कम एक सदस्य को तीन लीटर पीना होता था।
लेकिन वहां बर्फ के सिवा कुछ था ही नहीं तो, पानी?
बर्फ को स्टोव पर गर्म कर पानी बनाते थे। पानी का इस्तेमाल पीने और सूखे खाने को उबालने में करते थे। चूंकि पूरे यात्रा के दौरान हम लोग एक ही कपड़ा पहने रहे और नहाने का मौका तो 54 दिन बाद मिल पाया था, इसलिए पानी की और जरूरत नहीं पड़ी।
यात्रा के दौरान जो कूड़ा निकला, उसका आप लोगों ने क्या किया?
यह जानना दिलचस्प होगा कि हम लोगों ने इस लंबी यात्रा में एक तिनका भी वहां नहीं छोड़ा। एक विषेश तरह का बैग अपने साथ ले गये थे, जिसमें अपना सारा कचरा साथ ढोकर ले आये। स्की पर जाने से पहले हमें ग्लोबल वार्मिंग और उसमें अंटार्कटिका की भूमिका के बारे में विशेष तौर पर बताया गया था।
इस यात्रा का मकसद सिर्फ दुनिया को रोमांच के बारे में बताना था या कुछ और?
रोमांच तो उस यात्रा का हिस्सा है लेकिन मकसद ग्लोबल वार्मिंग और प्रकृति से की जा रही छेड़छाड़ को लेकर समाज में जागरूकता पैदा करना था। अपने साथ साठ किलो का भार लेकर उन कठिन बर्फीले रास्तों पर आगे बढ़ना मुष्किल होता था। बावजूद इसके हम लोग वहां से ट्वायलेट तक उठा लाये। दूसरा मकसद कॉमनवेल्थ की साठवीं सालगिरह पर साउथ पोल की चढ़ाई के पीछे महिला सषक्तीकरण के संदेष को भी दुनिया भर में प्रचारित करना था।
इन चालीस दिनों में किसी दिन बर्फीले तुफान से सामना नहीं हुआ?
दूसरे दिन स्की करने के बाद जब हम लोग टेंट में सो रहे थे तो हमारे साथियों का टेंट झोंके से उड़ गया। बहुत डरावना था सब कुछ। उतनी ठंढ में अगर किसी को चोट लग जाये या जैकेट षरीर से हट जाये तो बचना मुष्किल होता है। लेकिन सुविधा यह थी कि वहां कभी रात नहीं होती थी इसलिए हमारे लिए देख पाना संभव था। बहरहाल, पूरी रात सातों लोग एक ही टेंट के पायों को मजबूती से थामकर बैठे रहे लेकिन वह भी सूबह होते-होत फट गया।
सुबह तो वहां होती नहीं थी। घड़ी ने जब चीले देष के हिसाब से सुबह होना बताया, तब तक तुफान थम चुका था। दूसरा खतरा खाइयों से गिरने या बर्फीली तेज हवाओं से उठती-गिरती बर्फ की लहरों से भी होता है। संयोग कहिए हमारी टीम इससे बचकर साउथ पोल पर झंडा फहरायी, जहां अमेरिका का अनुसंधान केंद्र है। हम बहुत खुष हुए थे जब चालीस दिनों बाद हमने सात के अलावा आठवां इंसान देखा था।
यात्रा में सबसे यादगार लम्हा?
बर्फीली लहरें और रात का न होना। हम सोच भी नहीं सकते कि वहां रात नहीं होती होगी और बर्फ की भी लहरें हवाओं के साथ उठती-गिरती होंगी। दूसरी यादगार है क्रिसमस पर अपने घरवालों से बातचीत क्योंकि इस बीच सिर्फ एक बार क्रिसमस के रोज अपने घर फोन करने का मौका मिला.
courtesy - The Public Agenda
आप भारत की पहली महिला हैं जो बर्फीले रास्तों पर नौसौ किलोमीटर की यात्रा कर अंटार्कटिका पहुंची , उस अनुभव को आप कैसे साझा करना चाहेंगी?
हजारों मील तक फैली बर्फ की चादरों के बीच जहां किसी और का कोई अस्तित्व नहीं दिखता, उस ठंढ के विस्तार को महसूसने के लिए जब कभी मैं आंख मुंदती हूं तो मेरा दिल मगन हो गाने लगता है। वहां पहुंचने के बाद एकबारगी लगता है कि दुनिया के बाकी रंग न हों, तो भी प्रकृति ने बर्फ को जिस सफेद रंग की नेमत से संवारा है, उसकी स्वच्छता एक खुबसूरत संसार रच सकती है। अंटार्कटिका के दक्षिणी पोल पर पहुंचकर कीर्तिमान बनाने के रिकॉर्ड के साथ मैं अपनी जिंदगी में एक नयापन लेकर लौटी हूं और खुश हूं।
इस नये कीर्तिमान को छूने के लिए भारत से अंटार्कटिका आप कैसे पहुंचीं?
यह कोई मेरा बहुत बड़ा सपना तो नहीं था लेकिन मैं स्की करने के रोमांच को जीना चाहती थी। मैं पर्वतारोहण की प्रशिक्षक हूं मगर स्की करने का मेरा यह पहला मौका था। संयोग से अगस्त 2008 के एक अखबार में छपे विज्ञापन पर मेरी निगाह पड़ी और मैंने इंटरनेट के जरिये आवेदन कर दिया। देश भर से 130 लड़कियों द्वारा किये गये आवेदन में से दिल्ली स्थित ब्रिटीष काउंसिल में 10 को बुलाया गया जिसमें से मुझे और पश्चिम बंगाल की अपर्णा को चुना गया। राश्टमंडल के आठ देश न्यूजीलैंड, सिंगापुर, भारत, ब्रिटेन, साइप्रस, बु्रनै, घाना और जमैका से दो-दो लोगों को चुनकर नार्वे प्रशिक्षण के लिए ले जाया गया। वहां हमें दो हफ्ते का प्रषिक्षण मिला और आखिरकार सभी देषों से एक-एक प्रतियोगियों को अंटार्कटिका यात्रा के लिए चुना गया। उसके बाद हम सभी अपने देष लौट आये और नार्वे कैंप मिले प्रषिक्षण हिदायतों के हिसाब से तैयारियों में जुट गये।
भारत में आपने किस तरह की तैयारी की और सरकार से आपको क्या मदद मिली?
सारी तैयारी शारीरिक चुस्ती-फुर्ती से जुड़ी थी जिसको हमने पूरे लगन से किया। लेकिन हमारे सपने को पूरा होने में सबसे बड़ा रोड़ा प्रायोजक का मिलना था। खेल मंत्रालय के मुताबिक ‘रोमांच का खेल-स्की’ किसी तय कटगरी में नहीं आता इसलिए उसने आर्थिक मदद देने से इंकार कर दिया। उसके बाद मैंने बहुत से कॉरपोरेट घरानों से संपर्क किया मगर वह भी नहीं तैयार हुए। सिर्फ भारतीय पर्वतारोहण संस्थान ‘आइएमएफ’ और बजाज ग्रुप ने मदद की। लेकिन यात्रा को प्रायोजित करने की पूरी जिम्मेदारी रूस की एक एंटीवायरस कंपनी ‘कैस्पर्सकी’ ने ‘कैस्पर्सकी कॉमनवेल्थ अंटार्कटिका एक्सपेडिषन’ योजना के तहत उठायी। अब जबकि मैं अंटार्कटिका के दक्षिणी पोल पर झंडा फहरा कर आ चुकी हूं मगर फिर भी किसी सरकार ने न तो हमसे संपर्क किया और न ही आर्थिक मदद मिली। एक उम्मीद जरूर है कि सरकार बढ़ते रूझान को देख तवज्जो देना शुरू करेगी।
पर्वतारोहण जैसे रोमांचकारी खेल में आपकी दिलचस्पी कैसे बनी, उस बारे में कुछ बताइये?
हमारे पापा द्वारका नाथ कौषल फौज में थे और उनका तबादला होता रहता था। रिटायर होने के बाद वह दार्जीलिंग में बस गये। मेरा जन्म तो उत्तर प्रदेष के बरेली में हुआ लेकिन दार्जीलिंग के पहाड़ों के बीच पली-बढ़ी। दार्जीलिंग से मेरा एक भावनात्मक लगाव भी था। मुझे बचपन से ही पहाड़, उनकी उचाइयां और दूर तक का उनका फैलाव अपनी ओर आकर्षित करता था। सामने खड़ी कंचनजंघा की बर्फ से ढकी चोटियों को देख उस पर चढ़ने का मन करता था।
दार्जीलिंग के लॉरेटो कान्वेंट स्कूल से बारहवीं पास कर मैंने वहीं के सेंट जोसेफ कॉलेज से बीकाम किया। फिर मेरे जीवन की असली तैयारी षुरू हई और मैंने पवर्तारोहण में ‘हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान’ से प्रषिक्षक तक षिक्षा हासिल की। षादी के बाद मेरे पति लवराज सिंह धर्मसक्तु से काफी मदद मिली। लवराज मुझसे बड़े पर्वतारोही हैं और आप कह सकते हैं कि हमदोनों का साथ पेषे और जीवन साथी दोनों के तौर पर एक सफल जोड़ी का है। उसके बाद हर साल मैं एक न एक पर्वत चढ़ती ही रही।
अंटार्कटिका में स्की यानी बर्फीली यात्रा आपलोगों ने कैसे पूरी की?
नवंबर 21 को रोनी आइस सेल्फ नामक स्थान से हम आठ लोगों को दक्षिणी पोल के लिए रवाना कर दिया गया। हवाई जहाज से मेसनर्स स्टार्ट तक पहुंचने तक हममें से एक साथी को स्वास्थ कारणों से वापस होना पड़ा। अब हम सात ही थे जिन्होंने मेसनर्स स्टार्ट जो कि विख्यात पवर्तारोही रोनाल्ड मसनर्स के नाम पर बनाया गया बेस है, जहां से स्की करने के लिए चल पड़े। और इस तरह मेसनर्स स्टार्ट से साउथपोल की नौसौ किलोमीटर की बर्फीली यात्रा को हमने 40 दिनों में पूरा किया। पूरे सफर के दौरान इंसानों की कौन कहे कोई जानवर भी रास्ते में नहीं मिला।
इन चालीस दिनों के बीच हमने बर्फीले तुफान, थोड़ा भय और शुन्य से तीस डिग्री नीचे तक का ठंढा मौसम झेला। मगर साहस और सहनषक्ति भी प्रकृति के उन महान दृष्यों से ही मिला जिसे आज भी हम याद कर आह भरते हैं।
खाने,पहनने और बचाव के लिए आपलोग क्या ले गये थे?
हममें से हरेक के पास साठ किलो का सामान का था जिसमें टेंट, पेटोल, स्टोव, खाना, दवा, रेडियो टांसमीटर और ट्वायलेट किट्स थे। सामान हमलोग पीठ पर नहीं बल्कि अपने से पीछे की ओर बांधकर खिंचते रहते थे। हमलोगों में जबर्दस्त टीम भावना थी इसलिए कभी कोई दिक्कत ही नहीं हुई। रोज कमसे कम दस घंटे बर्फीले रास्तों पर स्की कर आगे बढ़ते जाना था। एक बार में डेढ़ घंटा चलकर सात मिनट का आराम करते।
किसी के पैर छाले पड़ गये या किसी को पैरों या कहीं तनाव रहा तो हमलोग आराम के दौरान एक दूसरे की मालिश कर आगे बढ़ लेते। प्रतिदिन हमलोंगो को साढ़े चार हजार कैलारी खाना होता था जो कि आम आदमी के भोजन की कैलोरी से तीन गुना था। इसी तरह पानी भी कम से कम एक सदस्य को तीन लीटर पीना होता था।
लेकिन वहां बर्फ के सिवा कुछ था ही नहीं तो, पानी?
बर्फ को स्टोव पर गर्म कर पानी बनाते थे। पानी का इस्तेमाल पीने और सूखे खाने को उबालने में करते थे। चूंकि पूरे यात्रा के दौरान हम लोग एक ही कपड़ा पहने रहे और नहाने का मौका तो 54 दिन बाद मिल पाया था, इसलिए पानी की और जरूरत नहीं पड़ी।
यात्रा के दौरान जो कूड़ा निकला, उसका आप लोगों ने क्या किया?
यह जानना दिलचस्प होगा कि हम लोगों ने इस लंबी यात्रा में एक तिनका भी वहां नहीं छोड़ा। एक विषेश तरह का बैग अपने साथ ले गये थे, जिसमें अपना सारा कचरा साथ ढोकर ले आये। स्की पर जाने से पहले हमें ग्लोबल वार्मिंग और उसमें अंटार्कटिका की भूमिका के बारे में विशेष तौर पर बताया गया था।
इस यात्रा का मकसद सिर्फ दुनिया को रोमांच के बारे में बताना था या कुछ और?
रोमांच तो उस यात्रा का हिस्सा है लेकिन मकसद ग्लोबल वार्मिंग और प्रकृति से की जा रही छेड़छाड़ को लेकर समाज में जागरूकता पैदा करना था। अपने साथ साठ किलो का भार लेकर उन कठिन बर्फीले रास्तों पर आगे बढ़ना मुष्किल होता था। बावजूद इसके हम लोग वहां से ट्वायलेट तक उठा लाये। दूसरा मकसद कॉमनवेल्थ की साठवीं सालगिरह पर साउथ पोल की चढ़ाई के पीछे महिला सषक्तीकरण के संदेष को भी दुनिया भर में प्रचारित करना था।
इन चालीस दिनों में किसी दिन बर्फीले तुफान से सामना नहीं हुआ?
दूसरे दिन स्की करने के बाद जब हम लोग टेंट में सो रहे थे तो हमारे साथियों का टेंट झोंके से उड़ गया। बहुत डरावना था सब कुछ। उतनी ठंढ में अगर किसी को चोट लग जाये या जैकेट षरीर से हट जाये तो बचना मुष्किल होता है। लेकिन सुविधा यह थी कि वहां कभी रात नहीं होती थी इसलिए हमारे लिए देख पाना संभव था। बहरहाल, पूरी रात सातों लोग एक ही टेंट के पायों को मजबूती से थामकर बैठे रहे लेकिन वह भी सूबह होते-होत फट गया।
सुबह तो वहां होती नहीं थी। घड़ी ने जब चीले देष के हिसाब से सुबह होना बताया, तब तक तुफान थम चुका था। दूसरा खतरा खाइयों से गिरने या बर्फीली तेज हवाओं से उठती-गिरती बर्फ की लहरों से भी होता है। संयोग कहिए हमारी टीम इससे बचकर साउथ पोल पर झंडा फहरायी, जहां अमेरिका का अनुसंधान केंद्र है। हम बहुत खुष हुए थे जब चालीस दिनों बाद हमने सात के अलावा आठवां इंसान देखा था।
यात्रा में सबसे यादगार लम्हा?
बर्फीली लहरें और रात का न होना। हम सोच भी नहीं सकते कि वहां रात नहीं होती होगी और बर्फ की भी लहरें हवाओं के साथ उठती-गिरती होंगी। दूसरी यादगार है क्रिसमस पर अपने घरवालों से बातचीत क्योंकि इस बीच सिर्फ एक बार क्रिसमस के रोज अपने घर फोन करने का मौका मिला.
courtesy - The Public Agenda
Mar 18, 2010
यहाँ भूखों को भक्त कहा जाता है
मनगढ के कृपालुजी महाराज के आश्रम में मची भगदड़ के बाद 63 जाने गयीं. मरने वालों में ज्यादातर दलित और पिछड़ी जाति के लोग हैं और गरीब घरों से ताल्लुक रखते हैं.वैसे में न्याय कितना हो पायेगा यह लोग अनुभवों से जानते हैं.रही सही कसर प्रसाशन ने कृपालुजी महाराज को इस पुरे मामले में दोषियों की सूची से बाहर कर पूरी कर दी है. हालांकि पहले से कुछ आपराधिक मामलों में बाबा नामज़द रहे हैं,लेकिन इससे उनकी शान में कभी कोई कमी नहीं आयी, जो इस बार भी नहीं आनी है.
हम यहाँ कुछ तस्वीरों को चिपका रहे हैं. उम्मीद है कि ये तस्वीरें हम सबको एहसास कराती रहेंगी कि भक्ति में भीख और भूख का प्रतिशत कितना जबरदस्त है.
सभी फोटो - अजय प्रकाश
पिसती है नमक मिर्च तो चलती है नाड़ी : सावित्री के दो बच्चे और सास इससे बेहतर कि तलाश में भगदड़ में मारे गए
देखें तो चप्पल, समझें तो लाश: इसका भी कोई म्यूजियम बनेगा. भक्तिधाम आश्रम के कार्यकर्ताओं द्वारा पानी का बौछार करने से ४ मार्च को भगदड़ मची थी जिसमें ६३ लोगों कि मौत हो हुई.
रामकृपाल तिवारी उर्फ़ कृपालुजी महाराज की पत्नी पद्मा देवी : सांसारिक राग से कितनी दूर.
इन्ही की याद में भंडारा हुआ था जिसमें भगदड़ मची.
मियां का पुरवा गाँव : इसके पास अब मां नहीं है.
सुबह काम पर जाते वक्त मैंने मां से कहा था मनगढ आश्रम मत जाना, लेकिन नहीं मानी. शाम को आया तो वह रोज की तरह दरवाजे पर इंतज़ार नहीं कर रही थी, कफ़न से ढंकी थी.
मौज में बाबा : कल भी और आज भी
आखिर पीड़ित कहाँ जाएँ, किससे कहें कि गुनहगार मौज में है और हमारा जीवन दोजख में.
गुनहगार भी और सुरक्षा के हकदार भी: लोकतंत्र में यह रिवाज़ बड़ी आम है .
भगदड़ की अगली सुबह के पहले से ही PAC पुलिस बल के चार ट्रक बाबा के आश्रम की सुरक्षा में तैनात हैं.
Mar 11, 2010
आजमगढ़ का नायक
अजय प्रकाश
खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले/खुदा बंदे से खुद पूछे, बता तेरी रजा क्या है।' अल्लामा इकबाल के इस शेर का इस्तेमाल अमूमन खास लोगों की हौसला-आफजाई के लिए होता है। यही शेर लाहीडिहां बाजार भटवां की मस्जिद में भी एक पान की दुकान पर सुनने को मिला। तभी सुनने वालों में से ही किसी ने पूछ लिया- इसका कद्रदां कौन है? सुनाने वाले ने भी देरी नहीं की और एक सामान्य कद-काठी के दाढ़ी वाले बंदे को पकड़ लाया और बोला-ये हैं शेर के असली कद्रदां-तोआं गांव के शकील भाई।
तोआं आजमगढ़ जिले के सरायमीर थाने का एक गांव है। सरायमीर का जिक्र पिछले कुछ वर्षों में राष्ट्रीय स्तर पर इस रूप में होता रहा है कि यहां बम धमाकों के सबसे ज्यादा आरोपी पकड़े गये हैं। भटवां की मस्जिद पर मिले लोग कहते भी हैं कि 'आजमगढ़ में आतंक की तो चर्चा सब जगह है, लेकिन इसी जिले में शकील भाई ने अकेले दम पर एक पुल का निर्माण, दूसरे के आधे से अधिक का काम पूरा कर और तीसरे की बनाने की योजना तैयार कर जो साहस दिखाया है उसकी चर्चा न तो मीडिया कर रही है और न ही सरकार प्रोत्साहित करने में दिलचस्पी दिखा रही है।'
बगैर किसी सरकारी सहायता के सिर्फ चंदा मांगकर पिछले दस वर्षों के अकथ प्रयास से शकील भाई ने जो कर दिखाया है, उसे सुनकर एक दफा आश्चर्य लगता है। चंदा मांग कर धार्मिक स्थल और स्कूल बनाने की परंपरा तो रही है लेकिन पुल भी चंदा मांग कर बन सकता है, ऐसा सोचना मुश्किल लगता है। इसमें दो राय नहीं कि प्रदेश के सांप्रदायिक सौहार्द वाले जिलों में हमेशा अव्वल रहे आजमगढ़ में फिर एक बार गंगा-जमुनी संस्कृति को हंगामा मचाये बिना ही शकील भाई ने समृध्द किया है।
जिला मुख्यालय से मात्र 40 किलोमीटर की दूरी पर मगही नदी पर बने इस पुल को शकील सामाजिक सहयोग की देन मानते हैं। लगभग 50 गांवों को आपस में जोड़ने वाले इस पुल ने दर्जन भर गांवों की जिला मुख्यालय और थाने से दूरियों को कम किया है। पुल ही बनाने की योजना शकील ने क्यों हाथ में ली ? इसके पीछे एक दिल को छू देने वाली घटना है। लेकिन इससे पहले शकील मीडिया को लेकर शिकायत करते हैं कि 'जिला-जवार के दलालों की खबरों को तो पत्रकार बंधु तवज्जो देते हैं मगर अच्छे कामों पर एक बूंद स्याही खर्च करने में कोताही क्यों बरतते हैं। खुफिया और सरकारी बयानों को सच की तरह पेश करने वाली मीडिया ने बाहर वालों के लिए कुछ ऐसी बना दी है कि लोग मानने लगें कि यहां के मुसलमानों में ही कुछ नुक्स है।'
जिस तरह पुल अपने ऊपर से गुजरने वालों की जाति-धर्म से मतलब नहीं रखता, वैसे ही शकील भाई भी सिर्फ इंसानी पहचान के ही पैरोकार हैं। टौंस नदी पर बन रहे पुल का काम कराने में व्यस्त शकील भाई से हुई मुलाकात में पूछने पर कि आपने पुल बनाने की शुरूआत कैसे की? वे कहते हैं, 'वैसे तो यह किस्सा हर कोई बता सकता है लेकिन मेरे साथ बस इतना हुआ कि मैं उस किस्से का होकर रह गया. मैंने उससे मोहब्बत कर ली।'
बरसात का मौसम था और मगही नदी उफान पर थी। सरायमीर जाने का एकमात्र आसान रास्ता नदी पार करना ही था। साल के बाकी नौ महीनों में तो बच्चे चाह (बांस का पुल) पार कर स्कूल जाया करते थे लेकिन बरसात में पार करने का जरिया नांव ही हुआ करती थी। उस दिन भी बच्चे इस्लहा पर पढ़ने जा रहे थे। नांव में बारह बच्चे सवार थे और नांव नदी के बीचो-बीच उलट गयी। सुबह का समय होने की वजह से उसपार जाने वालों की तादाद थी इसलिए बारह में से ग्यारह बच्चे बचा लिए गये, लेकिन शकील के गांव के सैफुल्लाह को नहीं बचाया जा सका। उस समय षकील सउदी अरब में नौकरी कर रहे थे। शकील उन दिनों को याद कर बताते हैं, 'जब मैंने यह खबर सुनी तो मुझे बेचैनी छा गयी। मुझे लगता था कि कोई मुझसे हर रोज कहता है कि गांव जाते क्यों नहीं।'
बकौल शकील, 'उसके छह महीने बाद जब मैं घर आया तो मानो किसी ने कहा हो कि क्यों नहीं एक पुल ही बनवा देते, लेकिन मेरी मासिक आमदनी कुछ हजार रूपये थी और पुल बनाने के लाखों रूपये वाले काम को हाथ में लेना संभव नहीं लगा। लोगों से बात करने, सुझाव लेने और आत्मविश्वास हासिल करने में दो साल और लग गये। फिर मैंने हिम्मत जुटाकर अकेले ही चंदा मांगना शुरू किया। बहुतों ने कहा कि कमाने-खाने का धंधा है। चीटर तक कहा, लेकिन मैंने न किसी का जवाब दिया और न ही आरोपों से आहत हुआ। मुझे अपनी नियत पर भरोसा था। अल्लाह को गवाह मानकर पुल बनाने की योजना पर आगे बढ़ गया। यहां आसपास के गांवों से सहयोग लेने के बाद मुंबई, दिल्ली, गुजरात ही नहीं दुबई जाकर भी मैंने चंदा जुटाया।'
चंदा के अनुभवों को साझा करते हुए शकील से पता चला कि कुछ ने दिया तो कुछ ने दुत्कार दिया। मददगारों में सबसे अधिक मदद गुजरात के वापी शहर के रहने वाले 85 वर्षीय हाजी इसरानुलहक ने की और कर रहे हैं। शकील के शब्दों में कहें तो 'हाजी साहब को तहेदिल से शुक्रिया करता हूं जिन्होंने भावनात्मक और आर्थिक दोनों ही स्तरों पर भरपूर मदद की। साथ ही मैं इंजीनियर संजय श्रीवास्तव की चर्चा करूंगा जो कि मेरे दोस्त भी हैं, जिन्होंने एक पाई लिये बगैर हमेशा सहयोग दिया।'
शकील यह बताना नहीं भूलते कि हाजी साबह ने कभी इसको रत्तीभर भी भुनाने की कोशिश नहीं की। आग्रह करके हम गांव वालों ने उन्हीं से बन चुके पुल का शिलान्यास भी कराया और अब इरादा है कि उस पुल का नाम सैफुल्ला के नाम पर रखें, जिसकी नदी में डूबने से मौत हो गयी थी। राजापुर गांव के मतीउद्दीन बताते हैं कि 'सैफुल्ला रिश्ते में सलीम का कुछ नहीं लगता था फिर भी उसने जो संकल्प लेकर किया उससे हजारों सैफुल्लाओं के परिजन हमेशा शकील को सलाम करेंगे, दुआएं देंगे।'
सामाजिक दायरे के अलावा क्या किसी और ने मदद की? इस पर शकील हंसते हुए कहते है,'सरकारी विभागों से हमने कई दफा मदद की दरख्वास्त की। सांसदों-विधायकों के यहां गुहार लगाने गये। प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे रामनरेश यादव के यहां भी गांववाले लेकर गये, पर बात नहीं बनी। इतना ही नहीं, मेरी आर्थिक और पारिवारिक औकात जानने के बाद तो मौके पर जगहंसाई भी करते थे। समाज के संभ्रात लोगों का यह रवैया देखकर मन भारी और थका हुआ महसूस करता था। कई दफा लगा कि पीछे हट जायें। लेकिन हताशा का विचार आते ही बचपन से जवानी तक सुने साहस के किस्से-कहानियों से मुझे बल मिलता था। अपने बुजुर्गों से सुने उन साहसिक कहानियों की यादों के साथ, वह पल भी याद कर मन ख़ुशी से भर उठता था जब कहानियों के नायक या नायिका लाख मुश्किलों के बावजूद संघर्ष के मुकाम तक पहुंचते थे।'
शकील के इस उम्दा प्रयास में गौर करने लायक बात यह है कि जिस समाज ने एक समय में इन्हें दुत्कारा, उसी समाज के कुछ लोगों ने शकील भाई की मदद भी की और आगे चलकर हाथों-हाथ लिया। इसलिए शकील कहते भी हैं कि 'पुल निर्माण सामाजिक सहयोग के बदौलत ही संभव हो पाया।' लगभग 60 लाख से ऊपर धनराशी खर्च हो चुकी है। यह पूंजी एक ऐसे आदमी ने जुटायी, जिसका न कोई सामाजिक रूतबा था और न ही कोई पारिवारिक रसूख। उसके पास ढंग का रोजगार तक नहीं था।
द पब्लिक एजेंडा से साभार
विडियो देखने के लिए यहाँ क्लिक करें
http://www.youtube.com/watch?v=jkyrmNzQcxc
द पब्लिक एजेंडा से साभार
विडियो देखने के लिए यहाँ क्लिक करें
http://www.youtube.com/watch?v=jkyrmNzQcxc
Feb 20, 2010
फिर सहमा आजमगढ़
पिछले कुछ महीनों से शांत चल रहे आजमगढ़ की आबोहवा में फिर सरगर्मी है। खालिसपुर के शहजाद की इनामी आतंकवादी बताकर गिरफ्तारी, फिर पुणे धमाके में उसकी संलिप्तता का संदेह जैसे समाचार सुनकर आजमगढ़ की खौफज़दा और खिसियाई जनता पूछने लगी है, मुल्क में मुसलमानों का भी पक्ष जानने वाला कोई है या नहीं। अजय प्रकाश की रिपोर्ट
आधे हिंदुओं और आधे मुसलमानों को मिलाकर एक पूरा गांव है खालिसपुर। पहले भी क्षेत्र में इस गांव की चर्चा हुआ करती थी लेकिन अब उसने नई जमीन तलाश ली है। पहले लोग कहा करते थे कि इस गांव का नियाज अहमद एक नेक और ईमानदार आदमी था जो पंद्रह साल ग्राम प्रधान और पंद्रह साल निर्विरोध ब्लाक प्रमुख चुना गया। मगर अब पूछने पर 82 वर्षीय नियाज के घर का पता बताने से पहले चौराहे पर खड़े ग्रामीण, आतंकवादी होने के आरोप में खालिसपुर से पकड़े गये शहजाद का नाम जोड़ते हैं और कहते हैं 'अगवां जा पूछ लिहा केकरे इहां के लइकवा पकड़ाई रहे'।
पुलिस डायरी में १८ वर्षीय शहजाद ईनामी आतंकवादी था, जिसपर दिल्ली पुलिस ने पांच लाख ईनाम रखा था। मगर आश्चर्यजनक है कि घोषित ईनाम की जानकारी गिरफ्तारी के बाद हुई। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि शहजाद पिछले आठ महीनों से अपने घर खालिसपुर में रह रहा था। फिर पुलिस ने यह गिरफ्तारी दिग्विजय सिंह की यात्रा के ठीक पहले क्यों की. शहजाद अहमद नियाज अहमद का पोता है और सितंबर 2008में हुए बाटला हाउस इनकाउंटर से पहले दिल्ली के श्रृंखलाबद्ध धमाकों के आरोपियों में प्रमुख है.
पुलिस के मुताबिक यह आरोपी भी बाकियों की तरह इंडियन मुजाहिद्दीन से जुडा हुआ था। खुफिया एजेंसियों और पुलिस दावा है कि धमाकों की साजिश में शहजाद की प्रमुख भूमिका रही है और उसने बाटला हाउस इनकाउंटर में मारे गये दिल्ली पुलिस के इंस्पेक्टर मोहन चंद्र शर्मा को गोली मारी थी। बाटला हाउस मुठभेड़ के बाद शहजाद और आरिज फरार चल रहे थे जिनमें से आरिज का कुछ पता नहीं है। जबकि दो आरोपी आतिफ और साजिद मौके पर मारे गये थे और सैफ को दिल्ली में एक टीवी चैनल के दफ्तर के बाहर पुलिस ने गिरफ्तार किया गया था। बाटला हाउस इनकाउंटर के कुछ दिनों के भीतर ही सैफ की गिरफ्तारी हो गयी थी।

इस बारे में भारतीय वायुसेना के पूर्व अधिकारी विंग कमांडर प्रफुल्ल बख्शी से हुई बातचीत में पता चला कि 'पायलेट ट्रेनिंग कोर्स में प्रवेश के लिए १०+२ पास होना अनिवार्य है.' गिरफ़्तारी के अगले ही दिन उत्तर प्रदेश एसटीएफ ने शहजाद को दिल्ली पुलिस की विशेष जांच शाखा को सौंप दिया है और उसे तीसहजारी अदालत ने दुबारा रिमांड पर भेज दिया है।
खालिसपुर के लोग मानते हैं कि आठ महीने से गांव में रह रहा शहजाद अगर कोर्ट में पेश हो गया तो हमें राजनीतिक दलों के दोमुहेंपन का शिकार इस बार नहीं होना पड़ता। लेकिन ऐसा क्यों नहीं हुआ के जवाब में, प्रदेश के प्रसिद्दध सिबली कॉलेज के प्रिंसिपल इफ्तिखार आलम कहते हैं 'पुलिस ने हमेशा 18 बाटला हाउस में शहजाद उर्फ पप्पू को भगोड़ा बताया। शायद शहजाद को ये लगता रहा होगा कि मेरा नाम जब पप्पू है ही नहीं तो मैं क्यों हाजिर होउं।' शहजाद और उसके परिवारजनों के इसी आत्मविश्वास में एक बार फिर आजमगढ़ को चर्चित कर दिया है। इतना तो साफ है कि शहजाद के गांव में होने की जानकारी एटीएफ को पहले से थी, लेकिन कार्यवाही राजनीतिक जरूरत के हिसाब से हुई। सितंबर 2008 में हुए 18 बाटला हाउस मुठभेड़ के दौरान शहजाद का पासपोर्ट बरामद हुआ था जिसे पुलिस सबूत के तौर पर पेश करती रही है।
बहरहाल यह सब दिल्ली में हो रहा है लेकिन इस मसले पर सरगर्मियां आजमगढ़ में कहीं ज्यादा तेज हैं। कारण कि आजमगढ़ के अब तक 29 मुस्लिम नौजवानों को खुफिया और पुलिस एजेंसियों ने आतंकवादी घोषित कर रखा है. जिसमें से नौ भगे हुए हैं, 18 गिरफ्तार व 2 मारे गये हैं। लेकिन जिस तरह से बाटला हाउस इनकाउंटर ने ढेर सारे लूप होल छोड़े थे, जिसकी वजह से आज भी वह मुठभेड़ सवालों का सामना कर रहा है, उसी तरह शहजाद की गिरफ्तारी के आसपास जो घटनाक्रम हुए उससे जाहिर हो गया कि शहजाद की गिरफ्तारी राजनीतिक वर्चस्व में शह-मात देने के लिए की गयी है।
उत्तर प्रदेश कांग्रेस प्रभारी दिग्विजय सिंह के संजरपुर और आतंकवादी होने के आरोप में गिरफ्तारों के घर जाने के कार्यक्रम की घोषणा 30 जनवरी तक सार्वजनिक हो चुकी थी कि वह तीन तारीख को आजमगढ़ पहुंचेंगे। सवाल है कि क्या दिग्विजय सिंह के संजरपुर पहुंचने से पहले कांग्रेस के दवाब में शहजाद की गिरफ्तारी हुई या फिर वजह कहीं और है। संजरपुर मसले को उठाने में खासे सक्रिय रहे तारिक कहते हैं,' दिग्विजय सिंह के आने से एक दिन पहले शहजाद की गिरफ्तारी, फिर उनका संजरपुर जाना, लेकिन किसी पीड़ित के घर जाने या सभा को संबोधित करने की बजाय सिर्फ मीडिया से मुखातिब होना और आजमगढ़ में आयोजित प्रेस कांफ्रेंस में सरेआम एक पार्टी कार्यकर्ता को थप्पड़ मारना जैसी कई घटनाएं एक-दूसरे से ऐसे जुड़ती हैं जो जाहिर कर देती हैं कि कांग्रेस हमें न्याय दिलाने नहीं, बल्कि मुसलमानों को भरमाने के बहाने तलाशने आयी थी। इस मसले पर सिमी के पूर्व अध्यक्ष शाहिद बदर फलाही राय रखते हैं कि 'मुसलमानों को कांग्रेस मुर्गियों से अधिक की औकात में नहीं रखती। अब उसे फिर अहसास होने लगा है कि उत्तर प्रदेश की सत्ता पर अगर काबिज होना है तो दड़बे से बाहर हो चुकीं मुर्गियों को घेरकर फिर कांग्रेसी दड़बे में घुसाओ'। कांग्रेस की मुसलमानों को लेकर ऐतिहासिक रणनीति देखें तो शाहिद बदर की बात जंचती है।
दूसरी तरफ प्रदेश सरकार के अंतर्गत काम करने वाली एटीएफ द्वारा शहजाद की गिरफ्तारी से इतना तो हुआ कि लोकसभा चुनावों में प्रदेश के मुसलमानों का कांग्रेस की ओर बढ़ा रूझान को एक झटका जरूर लगा है। ऐसा होने से मुसलमान वोटों में कम ही हकदार बसपा सुप्रीमो मायावती को जरूर राहत मिली है और उन्होंने कांग्रेसी 'खेल' बिगाड़ दिया है। कांग्रेस नेतृत्व पूर्नजन्म का यह खेल प्रदेश कांग्रेस प्रभारी दिग्विजय के कंधे पर रख खेल रही है और पार्टी महासचिव राहुल गांधी के एजेंडे को दिग्गी राजा आगे बढ़ा रहे हैं,यह मुसलमान बाटला हाउस मुठभेड़ के बाद अच्छी तरह समझ चुके हैं, लेकिन दिग्गी राजा का संभवत:अपनी समझदारी पर अधिक भरोसा हो गया था इसलिए उन्होंने संजरपुर गांव से यह बयान दे दिया कि 'बाटला हाउस मुठभेड़ में मारे गये इंस्पेक्टर मोहन चंद्र शर्मा के सिर पर लगी गोली किसी इनकाउंटर में संभव नहीं है।' दिग्गी के इस बयान के मद्देनजर सरकार कोई कार्यवाही करती और आतंकवादी होने के आरोप में फंसे युवकों और परिजनों को कोई भरोसा बनता इससे पहले ही दिग्गी राजा कांग्रेस आलाकमान सोनिया गांधी से मिलने के बाद ही संजरपुर में दिये बयान से मुकर गये।
शहजाद के बाबा नियाज अहमद से पूछने पर कि 'क्या किसी पार्टी के नेता आपके पोते की गिरफ्तारी के बाद दरवाजे पर आये थे', उनका जवाब था- 'नहीं।' वह पुराने दिनों को याद कर बताते हैं कि 'एक दौर था जब हमारे दरवाजे पर इंदिरा गांधी, मोहसिना किदवई, प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री रामनरेश यादव, चौधरी चरण सिंह जैसे तमाम लोग आया करते थे। लेकिन फिलहाल तो सिवाय नातेदारों-रिश्तेदारों के झूठे मुंह भी कोई नहीं आया।' जबकि आतंकवादी होने के शक में मारे और पकड़े गये नौजवानों के गांव संजरपुर में 2008 सितंबर के बाद आनेवालों को तांता लगा रहा। एक के बाद वहां पहुंचे तोपची नेताओं की आगलगाऊ बयानबाजियों और समस्या को छू से दूर कर देने वाले आश्श्वसनो की बाढ़ आ गयी थी। जिसमें सबसे आगे थे 'बाटला हाउस' कांड के बाद पैदा हुए संगठन उलेमा काउंसिल के नेता आमिर रशादी।
आमिर रशादी के बारे में यह ख्यात है कि वह देश के इकलौते मौलवी हैं जो मंचों से विरोधियों को सरेआम गाली देते हैं। बाटला हाउस कांड के बाद अपने को निरीह मान चुकी आजमगढ़ी जनता को आमिर रशादी का यह अंदाज उत्साहित किया और मात्र छ: महीने में यह संगठन इतना व्यापक असर वाला हो गया कि लोकसभा की पांच सीटों पर उलेमा काउंसिल के प्रतिनिधि खड़े हुए। प्रतिनिधियों में से एक भी संसद तक नहीं पहुंच सका लेकिन उसने बसपा और सपा के गढ़ रहे इस क्षेत्र में ऐसी सेंध लगायी की लालगंज से उलेमा काउंसिल की वजह से लालगंज से भाजपा जीत गयी। यह संसदीय चुनाव के इतिहास में पहली बार हुआ।
रामराज्य का नारा लगाने वाले हिंदुवादी संगठनों की तरह 'नारे तकबीर-अल्लाह हो अकबर'लगाने वाली उलेमा काउंसिल ने चुनाव के वक्त भाजपा के बारे में वही सांप्रदायिक बयान दिये जो शिववसेना या बजरंगदलियों की भाषा होती है। जाहिर है फायदा फायदा भाजपा को मिला। मानवाधिकार कार्यकर्मा मसुद्दीन कहते हैं कि 'जब उलेमा काउंसिल बनी तो हमलोगों को पता चला
कि इसको पुलिस प्रशासन का संरक्षण प्राप्त है। लेकिन राजनीतिक निराशा की शिकार जनता किसी भी तरह के सेकुलर बातों पर गौर करने के लिए तैयार नहीं थी। हां आज साफ हो गया है कि किस तरह आमिर रशादी के कट्टरपंथी बयानों ने हमें व्यापक समाज से काट दिया और सांप्रदायिकता और आतंकवाद के खिलाफ व्यापक लड़ाई में समुदाय कमजोर पड़ा।' प्रसिध्द हड्डी रोग विषेशज्ञ और उलेमा काउंसिल के आजमगढ़ से संसद उम्मीदवार रह चुके डाक्टर जावेद कहते हैं कि 'पहले लोग मुझसे कहते थे लेकिन अब मैंने मान लिया है कि उलेमा काउंसिल और उसके नेताओं का तौर-तरीका एक लोकतांत्रिक देश में काम करने जैसा नहीं है। कहने के लिए मुझे काउंसिल से निकाल दिया गया है, लेकिन सच है कि छह महीने पहले ही मैं निष्क्रिय हो गया था।' उल्लेखनीय है कि डाक्टर जावेद का बेटा भी बम विस्फोट में आरोपी है और भगोड़ा घोषित है।
शहजाद की गिरफ्तारी के बाद कार्यवाही चाहे जो हो स्थानीय लोग इसे एक राजनीतिक खेल मानते हैं। साथ ही उलेमा काउंसिल की चुप्पी और बिखराव ने साफ कर दिया है कि बाटला हाउस के बाद एकाएक पैदा हुए इस मंच ने मुसलमानों की व्यापक लड़ाई को कमजोर ही किया है.
'द पब्लिक एजेंडा' से साभार
Feb 7, 2010
मानवाधिकार कार्यकर्ता समेत पुलिस ने तीन लोगों को उठाया
इलाहाबाद की पत्रकार, मानवाधिकार कार्यकर्ता व पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टिज (पीयूसीएल) की राज्य कार्यकारिणी सदस्य व संगठन मंत्री सीमा आजाद, उनके पति पूर्व छात्रनेता विश्वविजय व साथी आशा को शनिवार को पुलिस ने इलाहाबाद जंकशन रेलवे स्टेशन से बिना कोई कारण बताए उठा लिया है। ये दोनों मानवाधिकार कार्यकर्ता नई दिल्ली से विश्व पुस्तक मेले में भाग लेकर रीवांचल एक्सप्रेस से इलाहाबाद लौट रहे थे। पुलिस का कहना है की ये लोग नक्सली हैं.
पिछले दिनों इलाहाबाद व कौशाम्बी के कछारी इलाकों में बालू खनन मजदूरों पर पुलिस-बाहुबलियों के दमन के खिलाफ पीयूसीएल ने लगातार आवाज उठाई। इलाहाबाद के डीआईजी ने बाहुबलियों व राजनेताओं के दबाव में मजदूर आंदोलन के नेताओं पर कई फर्जी मुकदमें लादे हैं। डीआईजी ने यहां मजदूरों के ‘लाल सलाम’ सम्बोधन को राष्ट्रविरोधी मानते हुए, ‘लाल सलाम’ को प्रतिबंधित करार दिया था। पीयूसीएल ने लाल सलाम को कम्युनिस्ट पार्टियों का स्वाभाविक सम्बोधन बताते हुए इसे प्रतिबंधित करने की मांग की निंदा की थी। पीयूसीएल का मानना है कि 'लाल सलाम' पूरी दुनिया में मजदूरों का एक आम नारा है और ऐसे सम्बोधन पर किसी तरह का प्रतिबंध अनुचित है। इलाहाबाद-कौशाम्बी के कछारी क्षेत्र में अवैध वसूली व बालू खनन के खिलाफ संघर्षरत मजदूरों के दमन पर सवाल उठाते हुए, पिछले दिनों पीयूसीएल की संगठन मंत्री सीमा आजाद व केके राय ने कौशाम्बी के नंदा का पुरा गांव में वहां मानवाधिकार हनन पर एक रिपोर्ट जारी की थी.
नंदा के पूरा गांव में पिछले एक माह में दो बार पुलिस व पीएसी के जवानों ने ग्रामीणों पर बर्बर लाठीचार्ज किया। इसमें सैकड़ों मजदूर घायल हुए। पुलिस ने नंदा का पूरा गांव में भाकपा माले न्यू डेमोक्रेसी के स्थानीय कार्यालय को आग लगा दी. उनके नेताओं को फर्जी मुकदमों में गिरफ्तार कर कई दिनों तक जेल में रखा। इस सब के खिलाफ आवाज उठाना इलाहाबाद के डीआईजी व पुलिस को नागवार गुजर रहा था। पुलिस कत्तई नहीं चाहती की उसके क्रियाकलापों पर कोई संगठन आवाज उठाए। सीमा आजाद, उनके पति विश्वविजय व एक अन्य साथी आशा की गिरफ्तारी पुलिस ने बदले की कार्रवाई के रूप में किया है।
सीमा आजाद 'दस्तक' नाम की मासिक पत्रिका की संपादक भी हैं। उन्होंने पूर्वी उत्तर प्रदेश में मानवाधिकारों की स्थिति, मजदूर आंदोलन, सेज, मुसहर जाति की स्थिति व इन्सेफेलाइटिस बीमारी जैसे कई मसलों पर गंभीर रिपोर्टें बनाई है. सीमा आजाद के पति विश्वविजय व उनकी साथी आशा भी पिछले लम्बे समय तक इलाहाबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में छात्रनेता के रूप में सक्रिय रहे हैं। इन्होंने 'इंकलाबी छात्र मोर्चा' के बैनर तले छात्र-छात्राओं की आम समस्याओं को प्रमुखता से उठाया है। पुलिस जिन्हें नक्सली बता रही है, वो पिछले काफी समय से छात्र और मजदूरों के बीच काम कर रहे है।
उत्तर प्रदेश पुलिस पहले भी पीयूसीएल के नेताओं को मानवाधिकारों की आवाज उठाने पर धमकी दे चुकी है। 9 नवम्बर को चंदौली में कमलेश चौधरी की पुलिस मुठभेड़ में हत्या के बाद पीयूसीएल ने इस पर सवाल उठाए थे। जिसके बाद 11 नवम्बर, 09 को खुद डीजीपी बृजलाल ने एक प्रेस कांफ्रेंस में कहा था कि "पीयूसीएल के नेताओं पर भी कार्रवाई की जाएगी" (देखें 12 नवम्बर, 09 का दैनिक हिंदुस्तान ). इलाहाबाद से सीमा आजाद की गिरफ्तारी पुलिस की उसी बदले की कार्रवाई की एक कड़ी है।
पीयूसीएल मांग कर रही है कि मामले पर त्वरित कार्रवाई करते हुए पुलिसिया उत्पीड़न पर रोक लगायी जाये और सीमा आजाद तथा उनके साथिओं को तुरंत मुक्त किया जाए.
पिछले दिनों इलाहाबाद व कौशाम्बी के कछारी इलाकों में बालू खनन मजदूरों पर पुलिस-बाहुबलियों के दमन के खिलाफ पीयूसीएल ने लगातार आवाज उठाई। इलाहाबाद के डीआईजी ने बाहुबलियों व राजनेताओं के दबाव में मजदूर आंदोलन के नेताओं पर कई फर्जी मुकदमें लादे हैं। डीआईजी ने यहां मजदूरों के ‘लाल सलाम’ सम्बोधन को राष्ट्रविरोधी मानते हुए, ‘लाल सलाम’ को प्रतिबंधित करार दिया था। पीयूसीएल ने लाल सलाम को कम्युनिस्ट पार्टियों का स्वाभाविक सम्बोधन बताते हुए इसे प्रतिबंधित करने की मांग की निंदा की थी। पीयूसीएल का मानना है कि 'लाल सलाम' पूरी दुनिया में मजदूरों का एक आम नारा है और ऐसे सम्बोधन पर किसी तरह का प्रतिबंध अनुचित है। इलाहाबाद-कौशाम्बी के कछारी क्षेत्र में अवैध वसूली व बालू खनन के खिलाफ संघर्षरत मजदूरों के दमन पर सवाल उठाते हुए, पिछले दिनों पीयूसीएल की संगठन मंत्री सीमा आजाद व केके राय ने कौशाम्बी के नंदा का पुरा गांव में वहां मानवाधिकार हनन पर एक रिपोर्ट जारी की थी.
नंदा के पूरा गांव में पिछले एक माह में दो बार पुलिस व पीएसी के जवानों ने ग्रामीणों पर बर्बर लाठीचार्ज किया। इसमें सैकड़ों मजदूर घायल हुए। पुलिस ने नंदा का पूरा गांव में भाकपा माले न्यू डेमोक्रेसी के स्थानीय कार्यालय को आग लगा दी. उनके नेताओं को फर्जी मुकदमों में गिरफ्तार कर कई दिनों तक जेल में रखा। इस सब के खिलाफ आवाज उठाना इलाहाबाद के डीआईजी व पुलिस को नागवार गुजर रहा था। पुलिस कत्तई नहीं चाहती की उसके क्रियाकलापों पर कोई संगठन आवाज उठाए। सीमा आजाद, उनके पति विश्वविजय व एक अन्य साथी आशा की गिरफ्तारी पुलिस ने बदले की कार्रवाई के रूप में किया है।
सीमा आजाद 'दस्तक' नाम की मासिक पत्रिका की संपादक भी हैं। उन्होंने पूर्वी उत्तर प्रदेश में मानवाधिकारों की स्थिति, मजदूर आंदोलन, सेज, मुसहर जाति की स्थिति व इन्सेफेलाइटिस बीमारी जैसे कई मसलों पर गंभीर रिपोर्टें बनाई है. सीमा आजाद के पति विश्वविजय व उनकी साथी आशा भी पिछले लम्बे समय तक इलाहाबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में छात्रनेता के रूप में सक्रिय रहे हैं। इन्होंने 'इंकलाबी छात्र मोर्चा' के बैनर तले छात्र-छात्राओं की आम समस्याओं को प्रमुखता से उठाया है। पुलिस जिन्हें नक्सली बता रही है, वो पिछले काफी समय से छात्र और मजदूरों के बीच काम कर रहे है।
उत्तर प्रदेश पुलिस पहले भी पीयूसीएल के नेताओं को मानवाधिकारों की आवाज उठाने पर धमकी दे चुकी है। 9 नवम्बर को चंदौली में कमलेश चौधरी की पुलिस मुठभेड़ में हत्या के बाद पीयूसीएल ने इस पर सवाल उठाए थे। जिसके बाद 11 नवम्बर, 09 को खुद डीजीपी बृजलाल ने एक प्रेस कांफ्रेंस में कहा था कि "पीयूसीएल के नेताओं पर भी कार्रवाई की जाएगी" (देखें 12 नवम्बर, 09 का दैनिक हिंदुस्तान ). इलाहाबाद से सीमा आजाद की गिरफ्तारी पुलिस की उसी बदले की कार्रवाई की एक कड़ी है।
पीयूसीएल मांग कर रही है कि मामले पर त्वरित कार्रवाई करते हुए पुलिसिया उत्पीड़न पर रोक लगायी जाये और सीमा आजाद तथा उनके साथिओं को तुरंत मुक्त किया जाए.
Jan 29, 2010
अब अगले साल छाएगा कोहरा
जनज्वार में तस्वीरों को इतने बड़े फ्रेम में छापने का कोई अनुभव नहीं रहा है...........मगर तस्वीरें बोलती हैं, कुछ कहती हैं और अपनी यादों में हमें दूर तक खींच ले जाती हैं, इसे हम दिल से मानते हैं.
इस उम्मीद के साथ फोटोग्राफर आरबी यादव की हाल ही में दिल्ली के कोहरे के बीच खिंची गयी कुछ तस्वीरें हम आप सब के साथ साझा कर रहे हैं. अच्छा लगे तो अपनी टिप्पणियों के जरिये बताइये.........
Jan 25, 2010
प्रेस क्लब में नक्सली समर्थक बुद्धिजीवियों की नो एंट्री
अजय प्रकाश
नक्सलियों के खिलाफ सलवा जुडूम अभियान शुरू करने वाली छत्तीसगढ़ सरकार के पास ऐसे कई रिकार्ड हैं जो अलोकतांत्रिक कानूनों को लागू करने में उसे पहला स्थान देते हैं। लेकिन यह पहली बार है जब राज्य में प्रेस प्रतिनिधियों की एक संस्था जो कि गैर सरकारी है, वह सरकारी भाषा का वैसा ही इस्तेमाल कर रही है जैसा की सरकार पिछले कई वर्षों में लगातार करती रही है।
दंतेवाड़ा में वनवासी चेतना आश्रम में पांच जनवरी को हैदराबाद और मुंबई से आये चार लोगों और स्थानीय पत्रकारों के बीच हुई मारपीट के बाद प्रेस क्लब का यह फरमान आया। बाहर से आये चार लोगों में फिल्म निर्माता निशता जैन, लेखक-पत्रकार सत्येन बर्दलोइ, कानून के छात्र सुरेश कुमार और पत्रकार प्रियंका बोरपुजारी शामिल हैं, के खिलाफ स्थानीय पत्रकारों ने मारपीट और कैमरा छीन लिये जाने का मुकदमा स्थानीय थाने में दर्ज कराया है।
इस मामले में प्रियंका बोरपुजारी से बात हुई तो उन्होंने कहा कि ‘चूंकि हिमांशु कुमार आश्रम में नहीं थे और स्थितियां बहुत संदेहास्पद थीं, वैसे में आश्रम में आयीं चार आदिवासी महिलाओं को हम लोग अकेले छोड़कर नहीं जाना चाहते थे। लेकिन पुलिस-एसपीओ के तीस जवान जो कई घंटों से आश्रम को घेरे हुए थे, उन्हें ले जाना चाहते थे। इसको लेकर हम लोगों और उनमें कई बार तु-तु, मैं-मैं भी हुई। शाम ढलने से पहले कुछ लोग हम लोगों का फोटो खींचने लगे, वीडियो बनाने लगे। हमने विरोध किया, उनसे उनकी पहचान पूछी। फिर क्या था, वह हम लोगों से भीड़ गये और लाख जूझने के बावजूद आखिरकार मेरे हाथ से वीडियो कैमरा छीन लिया और सत्येन बर्दलोइ और सुरेश कुमार को पीटा। लेकिन हम लोग जब इस मामले में थाने गये तो पुलिस ने मुकदमा दर्ज करने से इनकार कर दिया। जाहिर तौर पर मीडियाकर्मियों ने जो हमारे साथ सुलूक किया और स्थानीय मीडिया को लेकर हमारे जो अनुभव रहे उस आधार पर हमने उन्हें बिकाऊ कहा।’
इसके बाद प्रेस क्लब के अध्यक्ष अनिल पुसदकर ने 17 जनवरी को क्लब प्रतिनिधियों की आपात बैठक में कहा कि ‘दंतेवाड़ा में स्थानीय मीडिया को बिकाऊ कहने वाले कथित बुद्धिजीवियों के खिलाफ प्रशासनिक कार्यवाही हो, नहीं तो हमारे विरोध का तरीका बदल जायेगा। साथ ही ऐसे लोगों और एनजीओ को प्रेस क्लब में किसी भी तरह के कार्यक्रम करने की अनुमति न दी जाये। इसी तरह नक्सलवाद को जाने-समझे बिना मीडिया पर आपत्तिजनक टिप्पणी करने वाले अधिवक्ता के खिलाफ कानूनी कार्यवाही की जायेगी।’ बाद में इस प्रस्ताव का प्रेस क्लब के सदस्यों ने समर्थन दिया। छत्तीसगढ़ वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन के प्रदेश अध्यक्ष नारायण शर्मा, धनवेंद्र जायसवाल, कौशल स्वर्णबेर ने भी इस मामले में ऐसे बुद्धिजीवियों के बयान की निंदा की और छत्तीसगढ़ आगमन पर कड़े विरोध की चेतावनी दी।
चेतावनी से आगे प्रेस क्लब अध्यक्ष ने इस बाबत और क्या कहा, जानने के लिए रायपुर से प्रकाशित हिंदी दैनिक ''हरिभूमि'' की कटिंग को यहां लगाया जा रहा है जिसे आप देख सकते हैं।
पिछले दिनों रायपुर यात्रा के दौरान प्रशांत भूषण ने एक अनौपचारिक बातचीत में कहा था कि ‘प्रदेश के डीजीपी विश्वरंजन राज्य में बढ़ती हिंसा और मानवाधिकारों के हनन के लिए व्यक्तिगत तौर पर जिम्मेदार हैं। अगर हालात यूं ही बदतर रहे तो कभी वह आदिवासियों के रिश्तेदारों या माओवादियों द्वारा मार दिये जायेंगे, नहीं तो जेल जायेंगे।’ रायपुर प्रेस क्लब के यह कहने पर कि वह प्रशांत भूषण जैसे वकीलों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही करेगा और मंच मुहैया नहीं करायेगा, के जवाब में प्रशांत भूषण ने कहा ‘यह गैर संवैधानिक और मूल अधिकारों का हनन है। प्रेस क्लब से पूछा जाना चाहिए कि क्या सरकार माओवादी समर्थकों को गिनने में सक्षम नहीं है, जो प्रेस क्लब यह काम अपने हाथों में ले रहा है।’ इस बारे में प्रेस क्लब के अध्यक्ष अनिल पुसदकर कहते हैं- ‘प्रेस ने गलतबयानी की है।’ जबकि ''हरिभूमि'' में छपी खबर की तफ्शीश करने पर समाचार पत्र के रायपुर संपादक से पता चला कि ‘यह खबर सभी दैनिकों में छपी है, वह अब मुकर जायें तो बात दीगर है।’
सवाल यह है कि अगर मीडिया को कोई दलाल कहता है तो क्या उसे प्रेस क्लब में आने से रोक देना उचित है? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की मांग करने वाले मीडिया के जनतांत्रिक संस्थाओं के रहनुमा ही ऐसी ऊटपटांग बातें करेंगे तो सरकार के बाकी धड़ों से हम किस नैतिकता के बल पर पारदर्शी होने की मांग करेंगे? हाल-फिलहाल की बात करें तो बिकते मीडिया को लेकर सर्वाधिक चिंता मीडियाकर्मियों की ही रही है। हमारे बीच नहीं रहे पत्रकार प्रभाष जोशी इसके सबसे सटीक उदाहरण हैं, जिन्होंने जीवन के अंतिम समय तक मीडिया की दलाली पर तीखी टिप्पणी की। उन्हीं के द्वारा उठायी गयी आवाज का असर है कि एडिटर्स गिल्ड में इस मसले पर गंभीरता से विचार करने का सिलसिला शुरू हुआ है।
प्रेस क्लब के इस निर्णय पर अध्यक्ष अनिल पुसदकर से बातचीत-
एनजीओ, बुद्धिजीवियों और वकीलों के वह कौन से लक्षण हैं जिसके आधार पर आप प्रेस क्लब उनको मंच के तौर पर इस्तेमाल नहीं करने देंगे?
हमने ऐसा नहीं कहा। बाहर से आकर जो लोग सच्चाई जाने बगैर छत्तीसगढ़ की मीडिया को बिकाऊ और दलाल कह रहे हैं उन्हें प्रेस क्लब का मंच के तौर पर इस्तेमाल नहीं करने दिया जायेगा। कुछ ही दिन पहले संदीप पाण्डेय और मेधा पाटकर क्लब में कार्यक्रम करके गये हैं लेकिन हमने उन्हें नहीं रोका। जबकि प्रेस क्लब के बाहर लोग उनके खिलाफ धरना दे रहे थे।
लेकिन आपने ये कैसे तय किया कि मेधा पाटकर और संदीप पाण्डेय नक्सली बुद्धिजीवी हैं?
आप हमारी बात नहीं समझ रहे। मेरा कहना है कि अगर ऐसे बुद्धिजीवियों को आने से रोकने का हमारा निर्णय होता तो उन्हें हम क्यों आने देते। प्रेस क्लब सबका सम्मान करता है।
किस वकील पर कानूनी कार्यवाही की बात आपने की है?
सुप्रीम कोर्ट के वकील प्रशांत भूषण को ही लीजिए। वे पेशे से वकील हैं लेकिन जिस तरह वह यहां के बारे में बोलकर गये, क्या ठीक था।
प्रशांत भूषण ने प्रेस क्लब के बारे में कुछ कहा क्या?
छत्तीसगढ के डीजीपी विश्वरंजन के बारे में की गयी प्रशांत भूषण की टिप्पणी अपमानजनक थी। हम राज्य के लोग हैं और राज्य या यहां के किसी अधिकारी के बारे में अपमानजनक टिप्पणी कैसे सहन कर सकते हैं।
रायपुर के दैनिकों में जो आपके हवाले से इस बारे में छपा है वो क्या है?
हमने वैसा नहीं कहा, जैसा उन्होंने छापा।
प्रेस ने आपको लेकर जो गलतबयानी की है इस बारे में क्लब ने कोई शिकायत दर्ज की है?
कैसे दर्ज करायें, अभी बीमार हैं।
स्थानीय मीडिया को कोई दलाल या बिकाऊ बोलेगा तो उसे क्लब को मंच नहीं बनाने देंगे, ऐसा क्यों?
जैसे दंतेवाड़ा की घटना है तो वहां के स्थानीय मीडिया को कोई कुछ कहे तो बात समझ में आती है, लेकिन कोई पूरे छत्तीसगढ़ की मीडिया को दलाल बोले तो कोई पत्रकार कैसे सहन कर सकता है? दूसरा कि जो लोग बाहर से आये थे उन्होंने स्थानीय मीडियाकर्मियों से मारपीट की और कैमरा छीन लिया।
लेकिन पता तो यह चला है कि जब मेधा पाटकर और संदीप पाण्डेय आये थे तब उन लोगों का कैमरा पुलिस ने वापस किया?
इस बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं है।
आपको अपने बयान पर खेद है?
हमने जब कहा ही नहीं तो खेद किस बात का। यह तो मीडिया की गलतबयानी है, जिसका मैं जवाब दे रहा हूं।
मामले की और बारीकी जानने के लिए यहां क्लिक करें.........
Subscribe to:
Posts (Atom)