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May 8, 2017

केजरीवाल यानी...मैं, मैं और बस मैं

उन शर्तों की आंखों देखी जो केजरीवाल की राजनीति के असल सिद्धांत बने 

केजरीवाल ने दो टूक सबको बता दिया था —  मुझे ऐसी राजनीति नहीं करनी, जहां पार्टी बनाने के बाद 10-15 साल सत्ता के लिए संघर्ष करना पड़े। सत्ता के लिए लम्बा इंतजार और स्ट्रगल, मेरे बस का नहीं, इससे बढ़िया मैं राजनीति छोड़ दूं और अपना एनजीओ चलाऊँ...

तरुण शर्मा की रिपोर्ट 


बात 2011 के बसंत के ​दिनों की है जब मैं स्वामी अग्निवेश का निजी सहयोगी हुआ करता था। दिल्ली के 7 जंतर मंतर का दफ्तर जो अन्ना आंदोलन के साथ—साथ न जाने कितने राष्ट्रीय आन्दोलनों का कैंप ऑफिस रहा। अन्ना आंदोलन का पहला फेज अभी—अभी खत्म हुआ था। केजरीवाल ने राजनीतिक पार्टी बनाने का ऐलान नहीं किया था, पर माहौल में आंदोलन को राजनीतिक पहचान देने और व्यवस्था परिवर्तन के लिए एक नई राजनीतिक पार्टी बनाने की चर्चा चारो ओर थी। 

स्वामी अग्निवेश का दफ्तर और उसका बरामदा हमेशा ऐसे आंदोलनों से जुड़े लोगों के लिए धरने के बाद थोड़ा—बहुत सुस्ताने और बहस—मुबाहिशों का केंद्र रहा है जहां एनजीओ, सामाजिक आंदोलनों और वैकल्पिक राजनीति के चाहने वाले कार्यकर्ता और छोटे, बड़े नेता अक्सर डेरा डाले रहते थे।  

अन्ना आंदोलन जिसने राष्ट्रीय स्तर पर तमाम सामाजिक संगठनों, युवाओं और जन आंदोलन के अलग—अलग संघर्षशील नेताओं को एक मंच पर लामबंद किया था। अन्ना के रालेगण सिद्धि वापिस चले जाने के बाद नई राजनीतिक पार्टी के लिए इसके नेताओं में आपसी बातचीत, सलाह मशविरा शुरू हो गया। जिसमें मोटे तौर पर ये बात सामने आई कि बिना किसी नेता के चेहरे को सामने किए पूरे भारत में  जन आंदोलन  के अगुवाओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं को इस मुद्दे को जनता के बीच लेकर जाना चाहिए और सत्ता के विकेन्द्रीकरण के आधार पर एक नेता के बजाए स्थानीय नेतृत्व के जरिए एक सामूहिक राष्ट्रीय नेतृत्व खड़ा किया जाए। 

जाहिर तौर पर इस प्रक्रिया से पार्टी बनाने में थोड़ा वक़्त लगता। पर इन सबके बीच अन्ना आंदोलन का एक ऐसा नेता था जो यह तय कर चुका था उसे हर हाल में एक ऐसी राजनीतिक पार्टी बनानी है जिसमें सिर्फ और सिर्फ वे नेता हों और पूरी पार्टी में उनके कद का कोई और नेता न हो। 

इसी को ध्यान में रखते हुए अरविंद केजरीवाल ने बड़ी चालाकी से अपने एक सत्याग्रह और अनशन का अंत अपनी खुद की एक राजनीतिक पार्टी बनाने के ऐलान के साथ किया। मैंने जंतर— मंतर पर उस समय इनकी पार्टी में शामिल होने के इच्छुक इंडिया अगेंस्ट करप्शन के कई नेताओं को आपस में बात करते हुए सुना,देखा और गवाह रहा है कि कैसे केजरीवाल सिर्फ अपने करीबी लोगों को पार्टी के नेतृत्व में चाहते हैं और जब तक वे पार्टी का मनमाफिक ऊपरी संगठन और उसके ऊपर अपनी पकड़ नहीं बना लेते किसी भी अन्य बड़े नेता को पार्टी में शामिल नहीं होने देंगे। 

मैं, मैं और बस मैं... मेरे अलावा पार्टी में कोई और नेता ना उभरे, पार्टी बनाने के समय से लेकर अब तक केजरीवाल अपना आधा दिमाग और ऊर्जा इसी पर खर्च करते हैं। खुद को लेकर इतना बड़ा मोह और उससे उपजा डर यही केजरीवाल की सबसे बड़ी कमजोरी है, जिसके चलते उन्होंने पार्टी में एक के बाद बड़ी गलतियां की हैं। 

आम आदमी पार्टी हरियाणा के एक पूर्व नेता जिनके पास हरियाणा की एक बड़ी जिम्मेवारी थी, ने खुद बताया था कि जब योगेन्द्र यादव ने आम आदमी पार्टी को अपना समर्थन दिया और पार्टी में शामिल होने की घोषणा की, उसी समय केजरीवाल ने योगेन्द्र यादव बड़ा नेता न बन पाएं उनके खिलाफ साजिशें शुरू कर दीं। योगेंद्र यादव पार्टी में आने के तुरंत बाद समान मानसिकता के ईमानदार और संघर्षशील लोगों को पार्टी से जोड़ने के लिए पूरे भारत का दौरा करना चाहते थे, जिसकी इजाजत केजरीवाल ने नहीं दी। 

योगेंद्र यादव हरियाणा में काम कर रहे थे, तब पार्टी की हरियाणा चुनाव लड़ने की योजना थी। बाकायदा एक रणनीति के तहत हरियाणा में केजरीवाल ने अपने एक करीबी नवीन जयहिंद को योगेंद्र यादव को निपटाने के लिए लगा दिया। जिन्होंने हर शहर में कांग्रेस और दूसरी पार्टियों से सिर्फ टिकट के चाहने वाले नेताओं को पार्टी में शामिल किया और उनके जरिए एक बहस भी हरियाणा में चलाई कि हरियाणा का मुख्यमंत्री कौन हो, नवीन जयहिंद या योगेंद्र यादव। 

मेरे हरियाणा के उन्हीं मित्र ने बताया कि जब उन्होंने हरियाणा की मीटिंग में योगेंद्र यादव से पार्टी नेतृत्व की कार्यशैली से नाराजगी जताते हुए सत्ता के लिए सिद्धांतों से समझौता करने की बात कही तो जवाब में योगेंद्र यादव ने कहा क्या करें केजरीवाल ने सीधे उनको जवाब दे दिया है कि मेरे को पहली ही बार चुनाव जीतकर सरकार बनानी है, उसके लिए जो भी जरूरी होगा मैं करूँगा। 

केजरीवाल ने पार्टी के सभी आदर्शवादियों, ईमानदारी व सुचिता की राजनीति के आग्रहियों को पार्टी बनाने के कुछ महीनों के भीतर ही साफ कर दिया था कि मुझे ऐसी राजनीति नहीं करनी, जहां पार्टी बनाने के बाद 10 -15 साल सत्ता के लिए संघर्ष करना पड़े। इतना लम्बा इंतजार और स्ट्रगल, मेरे बस का नहीं। इससे बढ़िया है कि मैं राजनीति ही छोड़ दूं और अपना एनजीओ चलाऊं। फिर आप अकेले करते रहना खाली सिद्धांतों की राजनीति।