Apr 15, 2017

कश्मीरियों की जान ले सकती हैं बंदूकें पर उनका दिल नहीं जीत सकतीं

श्रीनगर के हालातों पर सुनील कुमार की रिपोर्ट

जिस तरह एक कश्मीरी नौजवान को सुरक्षाबल गाड़ी के बोनट पर बांध कर घुमा रहे हैं उससे साफ है कि सरकार श्रीनगर के 7 फीसदी वोट से अभी चेती नहीं। ऐसे में सवाल यह है कि वहां के किशारों में भारत के प्रति नफरत भरने का काम सरकार खुद क्यों कर रही है? 



यह सवाल श्रीनगर में हुए उपचुनाव के बाद और महत्वपूर्ण हो गया है, क्योंकि इतना कम वोट तो उस समय भी नहीं पड़ा था जब वहां आतंकवादी गतिविधियां चरम पर थीं और अतिवादियों का जमीनी स्तर पर जनता के बीच व्यापक असर था।

कश्मीर घाटी में दो लोकसभा सीटों श्रीनगर और अनंतनाग पर उपचुनाव होना था। एक सीट महबूबा मुफ्ती के अनंतनाग सीट पर इस्तीफा देने से खाली हुई थी और दूसरी श्रीनगर बड़गाम लोकसभा की थी। श्रीनगर की सीट इसलिए खाली हुई कि सांसद तारिक हामिद कारा ने अपनी पार्टी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) और संसद सदस्यता दोनों से इस्तीफा दे दिया था। उन्होंने इस्तीफा पार्टी के जनविरोधी नीतियों से तंग आकर दिया था। 

श्रीनगर लोकसभा सीट पर 9 अप्रैल को चुनाव हुआ तथा अनंतनाग सीट पर 12 अप्रैल को चुनाव होना था। यह चुनाव इसलिए महत्वूपर्ण था कि राज्य में संयुक्त मोर्चे की सरकार को ढाई साल हो चुके हैं और कश्मीर घाटी में होने वाले प्रदर्शनों के बाद पहला चुनाव था।

एक तरह से कश्मीरी जनता और सरकार दोनों के लिये यह परीक्षा की घड़ी थी। कश्मीर में हो रहे प्रदर्शन को भारत सरकार कहती थी अलगाववादियों द्वारा राज्य में पैसे बांट कर प्रदर्शन कराये जा रहे हैं। यहां तक की नोटबंदी के दौरान उस समय के रक्षा मंत्री रहे मनोहर पार्निकर ने कह दिया कि नोटबंदी से कश्मीर में पत्थरबाजी बंद हो गई है।

लेकिन श्रीनगर लोकसभा उपचुनाव में ​​करीब 7 फीसदी ​के वाटिंग सरकार के मुंह पर करारा तमाचा है जो जनता की भावनाओं को समझ नहीं पाई। ऐसा नहीं है कि यह पहली बार हो रहा है।

श्रीनगर लोकसभा चुनाव के आंकड़े पर नजर डालें तो 1998 में 30.1 प्रतिशत, 1999 में 11.9 प्रतिशत, 2004 में 18.6 प्रतिशत, 2009 में 25.6 प्रतिशत, 2014 में 25.9 प्रतिशत ही मतदान हुये हैं यानी बहुसंख्यक जनता ने भारत के ‘लोकतंत्र’ में आस्था नहीं दिखाई है।

इस बार के उपचुनाव में भारतीय ‘लोकतंत्र’ में आस्था रखने वाले लोगों में और कमी आई है और मतदान का प्रतिशत 6.5 प्रतिशत तक सिमट कर रह गया।

इसके उलटे वहां के विधानसभा चुनाव में लोगों ने मतदान किया है 1996 के विधानसभा चुनाव में 53.9 प्रतिशत, 2002 में 45.0 प्रतिशत, 2008 में 60.6 प्रतिशत तथा 2014 के चुनाव में 65.23 प्रतिशत लोगों ने मतदान किया। इन आंकड़ों से यह पता चलता है कि दिल्ली की संसद में लोगों की उतनी दिलचस्पी नहीं है जितना उनकी अपनी विधानसभा में।

यह चुनाव राजनीतिक दलों, भारत सरकार और राज्य सरकार के लिये भी महत्वपूर्ण है जहां सरकार की तीन साल की कार्यशैली के लिये जनादेश माना जा सकता है वहीं विपक्षी पार्टी कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस के लिये भी महत्वपूर्ण था कि इन दोनों पार्टी के साझा उम्मीदवार भूतपूर्व मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला स्वयं थे; यानी जो भी भारत की संसदीय पार्टी है इस चुनाव में अपनी आस्था प्रकट किया था फिर भी करीब 12 लाख 60 हजार मतदाताओं में से करीब 80 हजार मतदाताओं ने ही वोट डाले। लोगों ने साफ संदेश देने की कोशिश की है कि बुलेट और बैलेट साथ साथ नहीं चल सकता है।

गृह मंत्रालय अभी भी समस्याओं से मुंह छिपाते हुये इस स्थिति के लिए चुनाव आयोग जिम्मेदार मान रहा है। उन गालियों, हत्याओं और सरकार के खिलाफ बनते झुकाव को नहीं।

मंत्रालय के अनुसार उपचुनाव पंचायत चुनाव के बाद किया जाना चाहिये लेकिन चुनाव आयोग ने उसके सुझाव को अनदेखी करते हुये श्रीनगर और अनंतनाग का उपचुनाव 9 और 12 अप्रैल की घोषणा कर दी। गृहमंत्रालय ने 9 अप्रैल का चुनाव सम्पन्न कराने के लिये तीस हजार, अतिरिक्त अर्धसैनिक बल दिये थे फिर भी इतने बड़े पैमाने पर हिंसा हुई जिसमें 8 लोगों की जानें गई और 150 से ज्यादा लोग घायल हुये।

गृहमंत्रालय के अुनसार 1500 मतदान केन्द्र बनाए गये थे जिसमें से 120 पोलिंग बूथ में तोड़-फोड़ हुई और 24 ईवीएम मशीन लूटी गई, 190 जगह पत्थर फेंकने की हिंसक वादरात हुई। हिंसा की वजह से 38 पोलिंग बूथ पर दुबारा 13 अप्रैल को चुनाव कराया गया जिसमें 35169 मतदाता में से 709 मतदाताओं यानी दो प्रतिशत लोगों ने ही वोट डाला।

इसका मतलब है कि 10 फीसदी से भी कम जगहों मतदाता हिंसक हुए लेकिन ज्यादातर जगहों पर लोगों ने शांतिपूर्वक तरीके से इस उपचुनाव को नकार दिया।

मिलिटेंसी के दौर में भी कश्मीर में मत प्रतिशत इतना कम नहीं रहा है। चुनाव के बाद 10 अप्रैल को भी घाटी में बाजार, स्कूल व सरकारी दफ्तरें बंद रहें। वहां तैनात एक अफसर के अनुसार पिछले पन्द्रह सालों में इतनी हिंसा की वारदात एक दिन में नहीं हुई है। पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का कहना है कि बीस साल की राजनीतिक जीवन में चुनाव की इससे बदतर हालत उन्हांने देखा है इसके साथ ही वह केन्द्र व राज्य सरकार के साथ-साथ चुनाव आयोग को फेल बताया।

श्रीनगर के उपचुनाव के हालात को देखते हुये चुनाव आयोग अनंतनाग उपचुनाव को 12 अप्रैल से टालकर 25 मई कर दिया है। यह सीट महबूबा मुफ्ती के लिये भी नाक का सवाल है, इस सीट से महबूबा के भाई तसादुक हुसैन मुफ्ती चुनाव लड़ रहे हैं और इसी के सहारे दिल्ली के पार्लियामेंट तक पहुंचना चाहते हैं।

अब देखना होगा कि सरकार, चुनाव आयोग की क्या रणनीति होती है। इस चुनाव का फैसला चाहे जो भी आये लेकिन कश्मीरी जनता ने यह साफ संदेश देने की कोशिश की है कि बातचीत की जगह अगर बंदूक से उनकी आवाज को दबाया जायेगा तो वह इसका जवाब अपने तरीके से देने के लिये तैयार हैं।
editorjanjwar@gmail.com

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