May 6, 2011

संशोधनवादियों को जनयुद्ध का ब्याज मत खाने दो !

संक्रमणकाल के नाम पर भ्रष्टाचार, कालाबाजारी, तस्करी, कमीशन तंत्र और हत्या-हिंसा का साम्राज्य पहले से कई गुना बढ़ा है.पिछले तीन वर्षों की अवधि में संविधान सभा लुटेरों और विदेशी दलालों की क्रीडास्थली बन चुकी है.संविधान सभा में क्रांतिकारियों की उपस्थिति के अभाव में जन संविधान बनाने की जगह संशोधनवादी,यथास्थितिवादी और प्रतिक्रियावादी संविधान बनाने का खेल जारी है... 



मात्रिका यादव, पूर्व केन्द्रीय मंत्री 

नेपाली  राजतंत्र हटाने के नाम पर एमाओवादी पार्टी की जनयुद्ध ख़त्म करने की रणनीति और  देशी-विदेशी प्रतिक्रियावादियों के समक्ष आत्मसमर्पण की संशोधनवादी यात्रा शुरू करने का जो परिणाम होना था, वह अब हो चूका  है. अब  क्रांतिकारी कार्यकर्ताओं और परिवर्तन चाहने वाली जनता को इस क्रांतिविरोधी अभियान में साथ लेकर संसदीय यात्रा करना ही नेतृत्व मंडली का प्रमुख उद्देश्य हो  गया है, इसीलिए अमूर्त विद्रोह का बहाना लिए सभी को कन्फ्यूज करते हुए धोखा देने का काम जारी है.

दरअसल एमाओवादी के नेतृत्व ने चुनबांग बैठक से ही संसदीय रास्ते को प्रमुख रास्ता बना लिया और अपने भीतर के क्रांतिकारियों को दिग्भ्रमित करते हुए सभी प्रकार के संघर्ष के रूपों को स्वीकार करने के नाम पर सर्वग्राह्य्वादी  नारा दिया. संघर्ष के सभी रूप कभी भी एक समान नहीं हो सकते. संघर्ष के प्रधान और सहायक पहलू को निश्चित करना बहुत जरुरी होता है.लेकिन एमाओवादी के अध्यक्ष प्रचंड - सरकार, सदन और सड़क के संघर्ष की बात करके सभी को दिग्भ्रमित करते रहे हैं.सरकार के लिए संघर्ष करना ही उनका रणनीतिक उद्देश्य है.वो शांति और संविधान के नारों द्वारा बाबूराम को और विद्रोह के नारे द्वारा कामरेड किरण को दिग्भ्रमित करते रहे हैं. सिर्फ इसलिए कि उनके पास आवश्यकतानुसार इन नारों का  प्रयोग करने की कलात्मक क्षमता की भरमार है.

उदाहरण के तौर पर प्रचंड एक तरफ  भारतीय विस्तारवादी शासक वर्ग का खूब बिरोध करते हैं और दूसरी तरफ  आत्मसमर्पण करने को लालायित दिख रहे हैं.एक तरफ विरोध के लिए वो कामरेड किरण को और दूसरी तरफ आत्मसमर्पण के लिए बाबूरामजी का उपयोग करते आये हैं, जिसे दोनों नेताओं ने बखूबी समझा है. दोनों अपनी-अपनी चारित्रिक विशेषता के अनुसार प्रयोग होते आये हैं.ऐसे में साफ़ है कि एमाओवादी के अन्दर अंतरसंघर्ष होने के बावजूद उसकी दिशा क्रांतिविहीन है.  पुष्पकमलजी (प्रचंड) की एकमात्र दिशा है बुर्जुआ गणतांत्रिक संसदीय दिशा,जिस दिशा में पार्टी निरंतर आगे बढ़ रही है.उसके भीतर पुष्पकमलजी और बाबूरामजी की लाइन एक होने के बावजूद भी उनके बीच व्यक्तित्व की टक्कर है. ये दोनों नेता अति महत्वाकांक्षी व्यक्तिवादी प्रकृति के हैं. वहीं   कामरेड किरण का विश्लेषण क्रांतिकारी तो है,लेकिन खतरा मोल न लेने की अरुचि के कारण वे गोलचक्करवादी हैं.

अवसरवादी पार्टियों के साथ एकता करना, लड़ाकू पार्टी को मास पार्टी में तब्दील कर देना,पार्टी को भ्रष्ट बनाना और उसका अपराधीकरण और व्यापारीकरण कर देना अर्थात पूरी पार्टी को चुनावी पार्टी में तब्दील कर देना ही पुष्पकमल दहल उर्फ़ प्रचंड  और बाबूराम का एकमात्र उद्देश्य है.जबकि कामरेड किरण गोलचक्करवादी प्रवृति के कारण पार्टी को वर्तमान अवस्था में लाने के लिए सहयोगी की भूमिका के साथ जिम्मेदार हैं या दूसरे शब्दों में कहें तो अनुशासन लागू करने के नाम पर निरीह बन गए हैं. 'देखो और प्रतीक्षा करो' के नाम पर क्रांति का रथ बर्बाद होते जाने की स्थिति पर भी मूकदर्शक बने रहना क्रांतिकारिता नहीं है.क्रांतिकारियों के लिए सभी चीज़ें क्रांति होती हैं. रिश्तेदारी और सामाजिक सम्बन्ध भी क्रांति के लिए होते हैं और आवश्यकता पड़ने पर क्रांति के हित के लिए सम्बन्ध-विच्छेद भी किये जाते हैं.भ्रम की अवस्था क्रांति के लिए कभी हितकर नहीं होती. क्रांतिकारियों द्वारा परिस्थितियों का क्रांतिकारी विश्लेषण किया जाना ही पर्याप्त नहीं होता, वरन उसका संश्लेषण भी क्रांतिकारी होना चाहिए.

कभी-कभार शक्ति संचय करने के उद्देश्य से शांतिपूर्ण संक्रमण की बात करना उचित होता है, लेकिन अनावश्यक शांतिपूर्ण संक्रमण के नाम पर जनसंघर्ष से प्राप्त शक्ति को नष्ट कर देना अनुचित है. एक बार जनता द्वारा हथियार उठा लेने के बाद उसे किसी बहाने हथियारविहीन कर देना ही तो संशोधनवाद है. इसलिए यह क्रांति की नहीं, वरन प्रतिक्रांति की सेवा करता है. शक्ति संचय के लिए किसी ख़ास अवस्था में संसदीय संघर्ष का प्रयोग किया जा सकता है और वह भी एक सूरत में, जबकि संघर्ष से प्राप्त उपलब्धि की रक्षा और विकास हो पाना संभव हो पाए. संघर्ष से प्राप्त उपलब्धि का बलिदान कर संसदीय पार्टी का निर्माण करने को क्रांति की संज्ञा देना ही तो संसदवाद है.

क्रांति का मुख्य प्रश्न सत्ता का ही होता है.पुरानी प्रतिक्रियावादी राज्यसत्ता को पूर्णरूप से ध्वस्त करके नयी राज्यसत्ता अर्थात उत्पीडित वर्ग और समुदाय की सत्ता स्थापित करना ही क्रांति का एकमात्र उद्देश्य होता है. एमाओवादी का नेतृत्व कब का प्रतिक्रियावादी राज्यसत्ता को ध्वस्त कर नयी जनवादी राज्यसत्ता स्थापित करने की लाइन को ही तिलांजलि दे चुका है और संसदीय गणतंत्र को स्थापित करने के चक्कर में लगा हुआ है. क्रांति अब उनके लिए मुख्य प्रश्न नहीं रहा, बल्कि नए रंगरोगन के साथ प्रतिक्रियावादी व्यवस्था को संविधान सभा द्वारा वैधानिकता प्रदान करते हुए देशी-विदेशी प्रतिक्रियावादी की सेवा करना ही उनका अभीष्ट बन गया है.

यह तथ्य समझने के बावजूद भी एमाओवादी में मौजूद क्रांतिकारी हिस्सा दिग्भ्रमित होकर वहीँ बैठा है. इसलिए इन भ्रमों के कारणों का भंडाफोड़ करना जरूरी हो गया है. इस सम्बन्ध में पहला कारण यह है कि एमाओवादी नेतृत्व आज भी कथनी में वर्ग संघर्ष,बल प्रयोग के सिद्धांत और सर्वहारा अधिनायकत्व के सिद्धांत को स्वीकार करता है, मगर व्यवहार में वर्ग समन्वय, शांतिपूर्ण संक्रमण तथा बुर्जुआ वर्ग के अधिनायकत्व को आत्मसात कर चुका है. दूसरा कारण यह है कि एमाओवादी नेतृत्व मात्र भाषणबाजी या लेखन के आधार पर स्थापित नेतृत्व नहीं है, बल्कि विगत में सभी तरह के अवसरवादियों के साथ संघर्ष के फलस्वरूप निर्णायक सम्बन्ध-विच्छेद करने के कारण क्रांतिकारियों में भ्रम बने रहना स्वाभाविक है.तीसरा कारण यह है कि चुनाव में भाग लेते हुए जनयुद्ध के तैयारी करते हुए और दो-दो बार शांति वार्ता में जाने के बावजूद भी पार्टी का फिर से जनयुद्ध की दिशा में फिर लौट आने की संभावना रखना भी एक बड़ी वजह है. चौथा कारण पार्टी के वरिष्ट नेताओं द्वारा आवश्यकता पड़ने पर भी साहस और क्षमता न होने के कारण पुष्पकमलजी पार्टी के निर्विकल्प नेतृत्व के रूप में स्थापित हैं. पाचंवा कारण, पुष्पकमलजी के अवसरवादी हो जाने पर भी उनके गुरु के रूप में स्थापित किरण या अन्य किसी और नेता में पुष्पकमल जी का विकल्प बनने का साहस करते हुए पार्टी से विद्रोह करके बाहर निकल न पाना भी है.और अभी तक ऐमाओवादी के भीतर मौजूद क्रांतिकारियों और हमारी पार्टी नेकपा (माओवादी)  द्वारा जिस किस्म का वैचारिक संघर्ष चलाया जाना चाहिए, वह न चलाये जाने के कारण प्रचंड  के बारे में भ्रम बने रहना स्वाभाविक रहा है.

इस सन्दर्भ में पहली बात यह है कि पुष्पकमलजी ने पार्टी में नए प्रकार की संशोधनवादी लाइन की स्थापना कर दी है. वो मालेमावाद के प्रति जुबानी भक्ति तो दिखाते रहे हैं, मगर व्यवहार में संसदीय बुर्जुआ व्यवस्था को आत्मसात कर लिया है इसलिए मालेमावाद के आधार पर इस तथ्य का व्यापक स्तर पर भंडाफोड़ करना जरूरी है.दूसरी बात यह है कि क्रांतिकारी कौन है और कौन नहीं? इसके लिए व्यवहार ही एकमात्र कसौटी हो सकता है.इतिहास का ब्याज किसी को भी खाने देना उचित नहीं हो सकता.इतिहास में एक समय के महान क्रांतिकारियों के बाद में प्रतिक्रांतिकारी में परिणत हो जाने के तथ्य भी हैं, इसलिए पुष्पकमलजी का भंडाफोड़ करना जरूरी हो जाता है. तीसरी बात यह है कि माओवादी संसद में भाग लेते हुए भी जनयुद्ध की तैयारी कर रहे थे एवं जनयुद्ध की अवधि में एक तरफ शांतिवार्ता करते हुए भी शक्ति विस्तार कर शक्ति संचयित करते थे,लेकिन आज की स्थितियों में तो जनयुद्ध की उपलब्धियों को ही ध्वस्त कर दिया गया है.चौथी बात यह है कि मालेमावाद के अनुसार नेता का अर्थ सर्वहारा वर्ग के अन्दर उपस्थित उच्च चेतना से लैस एक सचेत व्यक्ति होता है और नेतृत्व का मतलब समान कमेटियों अर्थात समान समझदारी से लैस व्यक्तियों का समूह होता है.

दुनिया में किसी भी नेता का विकल्प होता है और होना भी चाहिए.अन्यथा क्रांति को निरंतरता नहीं दी जा सकती. नेता के गलत रास्ते में चले जाने पर उसका विकल्प खोजा जाना चाहिए और नेता के अच्छा होने पर भी.लेकिन भौतिक रूप से अक्षम होने पर उसके उत्तराधिकारी को आगे बढ़ाना अनिवार्य है.बिगत में हमने नेता को नेतृत्व के रूप में समझा है.यह समझदारी हमें कम्युनिस्ट आन्दोलन में विरासत के रूप में मिली है. गलत नेता का विकल्प तो होना ही चाहिए, सही नेता के उत्तराधिकारी को भी आगे आना चाहिए. नेता और नेतृत्व के सवाल पर हम अधिभूतवादी थे. ''एक'' का ''दो''में विभाजन के क्रांतिकारी द्वंदवाद के सिद्धांत को हमने लागू नहीं किया था,अतः पुष्पकमलजी के संशोधनवादी रास्ते में चले जाने पर उनका विकल्प आन्दोलन में ही खोजना अनिवार्य हो गया है. निश्चित रूप से आज नेता स्थापित न होने पर भी उसे आन्दोलन ही स्थापित करेगा.

रही बात स्थापित करने की तो एक ही बार में कोई भी स्थापित नहीं हो सकता.बिगत में पुष्पकमलजी भी स्थापित नहीं थे. उन्हें आन्दोलन ने ही स्थापित किया है. पाचंवी बात यह है कि यदि कामरेड किरण पुष्पकमलजी के गुरु हो सकते हैं तो वो क्रांति का नेतृत्व करने वाले साहसी नेता क्यों नहीं हो सकते. फिर एक नेता मात्र ही तो क्रांति संपन्न नहीं करता. पुष्पकमलजी ने बहुत सारे काम करने के बावजूद भी फ़िल्मी हीरो की तरह से सभी काम तो संपन्न नहीं किये हैं.क्रांति जनसमुदाय की सक्रिय सहभागिता में ही मात्र संभव होती है. कोई भी क्रांति सैकड़ों नेताओं, हजारों कार्यकर्ताओं और लाखों आम लोगों की सहभागिता के बगैर बिलकुल सफल नहीं हो सकती.इसी कारण से सभी का विकल्प होता है.इतिहास में व्यक्ति विशेष की भूमिका महत्वपूर्ण तो होती है, लेकिन उसमें भी समूह की भूमिका सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होती है.इसलिए सभी क्रांतिकारियों के पास अवसरवादी नेतृत्व के साथ निर्णायक सम्बन्ध-विच्छेद कर एकताबद्ध होते हुए मैदान में उतरने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं है.

अंत में,बाहरी आई चर्चा के अनुसार ऐमाओवादी नेतृत्व का भारतीय शासक वर्ग के साथ मौजूदा मतभेद किसी न किसी रूप में समाप्त होने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं,इसीलिए तो इस बार की पोलित ब्यूरो बैठक से ही पुष्पकमलजी कामरेड किरण को संकीर्णतावादी और बाबूराम को विलक्षण प्रतिभा वाले यथार्थवादी होने की संज्ञा देने लगे हैं. वो कथित विद्रोह का शब्द स्पष्ट रूप में छोड़कर कथित शांति और संविधान की बात मूलमंत्र के रूप में जपने लगे हैं. ऐमाओवादी की इस बैठक का प्रमुख उद्देश्य राष्ट्रीयता,जनतंत्र,जन्जिविका अर्थात शहीदों के सपने,जनभावना और जनयुद्ध की प्रतिबद्धता के खिलाफ धोखा करते हुए एक बड़ी छलांग लगानी है. बाबूराम की फौज करतल द्व्हानी के साथ इसका समर्थन करेगी और कामरेड किरण के समर्थक निराश हो 'नोट ऑफ़ डीसेंट' लिखेंगे. देश के गद्दार, लुटेरे और जनजीविका विरोधी ताकतें ऐमाओवादी नेतृत्व की क्रांति विरोधी लाइन का यह कहकर स्वागत करेंगे कि अब ऐमाओवादी सही रास्ते पर आये हैं/ सही रास्ते पर हैं. ऐमाओवादी नेतृत्व में मौजूद गद्दार,लुटेरे और विदेशी दलालों का सयुंक्त मोर्चा सार्वभौम नेपाली जनता का उपहास करते हुए संविधान सभा की अवधि बढ़ाना चाहता है.

संक्रमणकाल के नाम पर भ्रष्टाचार, कालाबाजारी, तस्करी, कमीशन तंत्र और हत्या-हिंसा का साम्राज्य पहले से कई गुना बढ़ा है. इन तीन सालों की अवधि में संविधान सभा लुटेरों और विदेशी दलालों की क्रीडास्थली बन चुकी है. संविधान सभा में क्रांतिकारियों की उपस्थिति के अभाव में जन संविधान बनाने की जगह संशोधनवादी, यथास्थितिवादी और प्रतिक्रियावादी संविधान बनाने का खेल जारी है. जिसे सशक्त आन्दोलन द्वारा प्रतिक्रियावादी सत्ता को ध्वस्त कर एक सयुंक्त क्रांतिकारी सरकार के नेतृत्व में एक जनसंविधान बन सकता है. इसीलिए ऐमाओवादी के सच्चे क्रांतिकारियों को एक बैठक से दूसरी बैठकों के गोल चक्करवादी घेरे को तोड़कर अवसरवादियों से पूर्णरूप का सम्बन्ध विच्छेद कर विद्रोह का झंडा बुलंद कर आन्दोलन की दिशा में आगे बढ़ने का कोई विकल्प नहीं है.

(नेपाल के वरिष्ठ  माओवादी नेता और पूर्व केन्द्रीय मंत्री का  यह लेख एनेकपा माओवादी की 23 अप्रैल 2011की बहुचर्चित पोलित ब्यूरो बैठक के दो दिन पहले नेपाल के 'नया पत्रिका' में छपा था. मात्रिका  यादव पहले इसी पार्टी में थे पर अब वे नेकपा (माओवादी) के संयोजक हैं.नेपाली से इस लेख का  हिंदी अनुवाद पवन पटेल ने किया है.)


  • नेपाल के राजनीतिक हालात और नेपाली माओवादी पार्टी की भूमिका को लेकर आयोजित इस बहस में अबतक आपने पढ़ा -


3 comments:

  1. LALLAN PRASAD, ADVOCATE, INDAURFriday, May 06, 2011

    बड़ी ढंग से मात्रिका यादव ने अपनी बात लिखी है. अब सबकुछ बड़ा साफ़ हो गया है. अब गयी भैंस पानी में.

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  2. kamlesh verma, delhiFriday, May 06, 2011

    lalan ji kabhi aisa nahin hota kee rajniti kee bhanis pani men jaye. prachand bade maje hue neta hain aur ve naiya par laga le jayenge. bharat men rahkar party virodhiyon se lekh likhvakar koi badi baat yahan nahin kee ja rahi hai. verma ji ka lekh sahi hai aur unhe vahi karna chahiye jo verma ji kah rahe hain.

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  3. This debate in Janjwar has once again exposed the true character of opportunist 'intellectuals' like Anand Swarup Verma and his cohorts like Gautam Navlakha. These people have consistently tried to dislodge and liquidate the revolutionary movement in Nepal wearing the mask of 'well-wishers of the revolution'. It is high time that we identify such elements and denounce them. This will be the true tribute to the thousands of martyrs of the gloriuos Peoples' War in Nepal, and only this will strengthen the revolutionary line within the Maoist party of Napal. The open criticism and opposition to Prachanda and Baburam's revisionist line within and outside Nepal is an encouraging sign for all genunine revolutionaries. The revolutionary line in Nepal will definitely prevail, and the opportunists will definitely be thrown into the dustbin of history!

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