Apr 24, 2011

ऊर्जांचल से फिर उजड़ने का खौफ


पावर प्लांट के सर्वे के लिए प्रशासन लेखपाल, कानूनगो और एसडीओ की टीम तो भेजता रहा है, लेकिन यहां के आदिवासियों और अन्य वन आश्रित जातियों को वनाधिकार कानूनों   के तहत हक देना उसे गैरजरूरी लगता  रहा है...

दिनकर कपूर

उत्तर प्रदेश  सरकार ने बभनी में 1980 मेगावाट का पावर प्लांट लगाने की घोषणा की है। इस पावर प्लांट के लिए बभनी गांव के डगडउआ टोला, देवना टोला, डूभा ग्रामसभा के सवंरा, डूभा, ग्वाहान टोला, बरवें ग्रामसभा के खैरा, झोझवां, बरवें टोला, सतवहनी ग्रामसभा का सालेनाल, और धधरी ग्रामसभा की करीब 625 हेक्टेयर यानी 2500 बीघा जमीन सरकार द्वारा अधिग्रहित की जानी है।

उजड़ने का डर : संघर्ष ही रास्ता

सोनभद्र विद्युत उत्पादन निगम के नाम से गठित नयी कम्पनी द्वारा कोयला आधारित इस पावर प्लांट को पहले सरकार द्वारा पब्लिक प्राइवेट पाटर्नरषिप में बीजपुर के पास दोपहा में लगाने की योजना थी, पर केन्द्र सरकार द्वारा सिंगरौली क्षेत्र में नयी विद्युत परियोजना को लगाने से अनुमति देने से इंकार करने के बाद इस परियोजना को बभनी में लगाने का निर्णय किया गया। इस परियोजना के लिए सर्वे का कार्य शुरू होते ही ग्रामीणों और आदिवासियों ने इस परियोजना को लगाने से पूर्व विस्थापन नीति की घोषणा और धारा बीस की जमीन पर वनाधिकार कानून के तहत पट्टा देने की मांग पर जन संघर्ष मोर्चा के नेतृत्व में अपना विरोध भी शुरू कर दिया है।

पिछले दिनों बभनी में जन संघर्ष मोर्चा की ओर आयोजित कार्यक्रम में मोर्चा के राष्ट्रीय संयोजक अखिलेन्द्र प्रताप सिंह ने कहा कि देश   में आज भी अंग्रेजों द्वारा 1894में बनाया भूमि अधिग्रहण कानून ही काम कर रहा है। जिसके जरिए आजाद भारत की सरकारें किसानों से जबरन भूमि का अधिग्रहण कर रही है। लेकिन इस इलाके यह नहीं होने दिया जायेगा। इस कानून को रद्द कराने के लिए और बिना किसानों की सहमति से जमीन लेने के प्रयास के खिलाफ जनांदोलन खड़ा किया जायेगा।

इस पावर प्लांट से एक बार फिर इस क्षेत्र में रहने वाले आदिवासियों और आम नागरिकों के सामने विस्थापित होने का खतरा पैदा हो गया है। इस जनपद में पूर्व में रिहन्द बांध, अनपरा, ओबरा, हिण्ड़ालकों, बीजपुर, एनटीपीसी समेत तमाम परियोजनाएं लगायी गयी और इनसे लाखों की संख्या में आदिवासी और अन्य लोग विस्थापित हुए। आज स्थिति यह है कि उनसे किए लिखित समझौतें तक लागू नहीं किए गए। रिहन्द बांध बनते समय देष के पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने बांध से हुए विस्थापित परिवारों से वायदा किया था कि वह कहीं भी ऊंची जमीन देखकर वहां बस जाएं, उन जमीनों पर उन्हें  मालिकाना अधिकार मिल जायेगा, पर आज तक यह नहीं हुआ।

मौजूदा समय में भी रिहन्द विस्थापित परिवारों को गर्वमेंट ग्रांट के पट्टों से ही काम चलाना पड़ता है। म्योरपुर ब्लाक के चेरी, झिल्लीमहुआ, बडहोर जैसे करीब 13 गांव जिनमें रिहन्द विस्थापित बसे हैं तो आज भी वन गांव ही हैं। यहीं नही परियोजनाओं के लगने के बाद भी यहां के ग्रामीण क्षेत्र का विकास भी उपेक्षित ही रहा है। जबकि इस क्षेत्र के पिछड़ेपन के कारण यहां लगी औद्योगिक इकाइयों को तमाम तरह की सरकारी छूट भी मिलती रही है। हालत तो यह है कि पूरे देष को सर्वाधिक बिजली देने वाले इस दुद्धी तहसील के गांवों में आज भी बिजली नहीं है। वहीं इन परियोजनाओं से होने वाले प्रदूषण ने यहां के आमनागरिकों के जीवन को गहरे संकट में डाल दिया है।

स्थिति इतनी बुरी है कि इस क्षेत्र में पावर प्लांट के सर्वे के लिए प्रशासन लेखपालों,कानूनगो और एसडीओ की टीम तो भेजता रहा है, लेकिन यहां के आदिवासियों और अन्य वन आश्रित जातियों को वनाधिकार कानून के तहत हक देना नागवार गुजरता है। बड़े पैमाने पर वनाधिकार कानून के तहत जंगल की जमीन पर मालिकाना हक के लिए दाखिल आदिवासियों के दावों को प्रषासन ने खारिज कर दिया है। बसपा के स्थानीय विधायक सीएम प्रसाद तो जंगल की जमीन पर बसे इन आदिवासियों और रिहन्द विस्थापितों को अवैध अतिक्रमणकारी कहते हैं।

संसद से पारित कानूनों के लागू होने की हकीकत इन उदाहरणों से देखी जा सकती है। बभनी गांव में ही 850 लोगों ने वनाधिकार कानून के तहत दावा किया था जिसमें से मात्र 17 लोगों को ही पट्टा मिला वह भी उनके द्वारा कुल काबिज जमीन से बेहद कम। इसी गांव के विस्थापित होने वाले डगडउआ टोला की तो स्थिति और भी खराब है यहां मुख्यतः गोंड,खरवार आदिवासी जाति के परिवार है यहां 220 दावा फार्म भरा गया था जिसमें से मात्र 3 लोगों को पट्टा दिया गया।

सभा को संबोधित करते अखिलेन्द्र प्रताप

विस्थपित हो रहे रामनारायण गोंड कहते हैं कि ‘यदि हमें वनाधिकार कानून के तहत अधिकार नहीं मिला तो कल विस्थापन के समय हमें इन जमीनों का मुआवजा भी नहीं मिलेगा। गांव के बुजुर्ग गजराज सिंह गोंड कहते हैं कि हम आदिवासी तो पुरखों से इन जमीनों पर काबिज है जंगल विभाग कब मालिक बन बैठा हमें नही मालूम आज लम्बी लड़ाई के बाद इन जमीनों पर मालिकाना हक के लिए एक कानून भी बना तो उसें भी लागू करने को सरकार तैयार नही है।

इस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे जन संघर्ष मोर्चा के प्रदेष प्रवक्ता गुलाब चंद गोंड की राय में ‘बार-बार हुए अन्याय के कारण यहां के आदिवासी और नागरिक अपने अधिकारों के लिए इस पावर प्लांट के लगने से पूर्व सरकार से लिखित समझौता चाहते है।’

सम्मेलन में जुटे हजारों आदिवासियों ने दोनों हाथ उठाकर संकल्प लिया कि जब तक पावर प्लांट के लगने से पूर्व इस क्षेत्र में वनाधिकार कानून के तहत वन भूमि पर काबिज आदिवासी और अन्य परम्परागत वन निवासियों को पट्टा,रिहंद विस्थापित परिवारों को काबिज जमीन पर भौमिक अधिकार,विस्थापित परिवार के सदस्य को परियोजना में स्थायी नौकरी,विस्थापित किसानों को परियोजना में शेयर और विस्थापित जमीन के बदले जमीन उपलब्ध कराने और मुआवजा को लेकर विस्थापन व पर्यावरण की सुरक्षा के लिए स्पष्ट नीति की घोषणा नहीं की जायेगी तब तक किसी भी कीमत पर एक इंच जमीन नहीं दी जायेगी।



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