Mar 28, 2011

नक्सली कहने की 'महाछूट'


मानवाधिकार आयोग की जांच कहती है कि गांव के दो नौजवान अपने पशुओं को खोजने घर से बाहर निकले थे, जबकि  पुलिस दल ने उन पर अंधाधुंध फ़ायरिंग की...

अनिल मिश्र

पश्चिम बंगाल के लालगढ़  इलाके के नेताई गांव में 7 जनवरी को  सत्ताधारी राजनीतिक दल के सशस्त्र कैडरों ने बारह ग्रामीणों की गोली मारकर हत्या कर दी थी. उच्चतम न्यायालय की एक खंडपीठ ने इस मामले की याचिका पर 16 मार्च को सुनवाई करते हुये जो टिप्पणी की, वह बहुत महत्त्वपूर्ण है.

पश्चिम  बंगाल सरकार के पब्लिक प्रॉस्क्यूटर ने कहा कि मारे गए सभी लोग ’नक्सली’ थे. उच्चतम न्यायालय ने इस पर पश्चिम बंगाल सरकार को कड़ी फटकार लगाते हुए कहा  ’हम इस तथ्य से वाक़िफ़ हैं कि सुविधा संपन्न लोग सुविधाविहीन लोगों की मांगों को अवैधानिक ठहराने के लिए ’नक्सली’ ब्रांड का इस्तेमाल करते हैं.’ अदालत  ने आगे कहा कि ’देश के आधे से अधिक हिस्सों में क़ानून विहीनता (लॉ लेसनेस) है. ’नक्सली’ शब्द का ऐसे इस्तेमाल कर  हत्याओं को उचित नहीं ठहराया जा सकता.’

उच्चतम न्यायालय की यह टिप्पणी और भी अहमियत इसलिए रखती है क्योंकि सरकारें लगातार कॉर्पोरेट तंत्र के दबाव में झुकती चली जा रही हैं और एक से बढ़कर एक जनविरोधी क़दम उठा रही हैं. मौलिक अधिकारों की जो गारंटी संविधान में प्रदान की गई है उसकी रक्षा कर पाने में सरकारें पूरी तरह विफल साबित हो रही हैं. उदारीकरण के वर्तमान, तीसरे चरण में ’विकास’ के नाम पर सत्ताधारी वर्ग की असहिष्णुता अब एक सनक की शक्ल अख़्तियार कर चुकी है.

इसके पहले,  उच्चतम न्यायालय ने ’विकास’ के बारे में जो टिप्पणी की थी उसका भी आशय कुछ इस तरह का था कि 'ग़रीबों की आजीविका, मकान और पर्यावरण को तहस नहस करने वाला कोई विकास अपेक्षित नहीं है. निश्चित ही, विदेशी पूंजी के खेल के आगे नतमस्तक हमारे राजनीतिक नेतृत्व के लिए यह टिप्पणी किरकिरी जैसी रही होगी. हाल ही में ओडिशा के मानवाधिकार आयोग ने अपनी एक स्वतंत्र जांच रिपोर्ट में कहा है कि 2008 में कोरापुट जिले में पुलिस ने जिन दो लोगों को ’नक्सली’ कहकर मारा था वे ग्रामीण थे, जो अपने पशुओं को घर से बाहर बाड़े में बांधने निकले थे.

मानवाधिकार आयोग ने मृतकों के परिजनों को मुआवज़ा देने की भी सिफ़ारिश की है. मानवाधिकार आयोग की जांच के मुताबिक़ जिला पुलिस के नेतृत्व में सीआरपीएफ़ के गश्ती दल ने इस फ़ायरिंग की जो कहानी गढ़ी थी वह परस्पर अंतर्विरोधी और बेबुनियाद दिखती है.पुलिस दल के प्रभारी थानाध्यक्ष के मुताबिक़ उन्हें ’विश्वस्त’ सूचना मिली थी कि इलाक़े में कुछ ’माओवादी नक्सली’ तत्व आए हैं. गश्त के दौरान रात के अंधेरे में जब उन्होंने ’नाइट विज़न’ यंत्र से देखा कि कुछ लोगों का समूह उनकी ओर बढ़ा चला आ रहा है और गोलियां चला रहा है तो पुलिस ने जवाबी कारवाई में दो ’नक्सलियों’ को मार गिराया.

मानवाधिकार आयोग की जांच कहती है कि गांव के दो नौजवान अपने पशुओं को खोजने के लिए घर से बाहर निकले थे, क्योंकि उनके बैल रस्सी तुड़ाकर भाग गए थे. पुलिस दल ने उन पर अंधाधुंध फ़ायरिंग की, जिसमें दो युवकों की मौत हो गई और कई बैलों ने घटनास्थल पर ही दम तोड़ दिया. एक ग्रामीण इस हमले मे बुरी तरह घायल हुआ था, जिसने किसी तरह परिवार वालों को घटना की ख़बर दी.

जाहिर है, देश के आधे से भी अधिक हिस्सों में क़ानून नहीं है. आगे का सच यह है कि देश के अधिकांश हिस्सों में या तो कोई क़ायदे-क़ानून नहीं हैं या फिर ऐसे नियम-क़ानून हैं जिनके आधार पर सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी को भी अगर कभी ’देशद्रोही’ क़रार दिया जाए तो कोई ख़ास हैरानी नहीं होनी चाहिए. 'छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम' एक ऐसा ही अंधा क़ानून है जिसमें (नक्सली जैसे) शब्दों के झोलदार इस्तेमाल द्वारा किसी भी तरह के अपराध करने की आधिकारिक छूट हासिल की गई है.



महात्मा गाँधी हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा से मीडिया में शोध और स्वतंत्र लेखन. इनसे   anamil.anu@gmail.com   पर संपर्क किया जा सकता है.


 
 
 
 
 

1 comment:

  1. आपका ब्लॉग पसंद आया....इस उम्मीद में की आगे भी ऐसे ही रचनाये पड़ने को मिलेंगी

    कभी फुर्सत मिले तो नाचीज़ की दहलीज़ पर भी आयें-
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