Mar 14, 2011

लीबिया के विद्रोह पर साम्राज्यवादियों की गिद्ध दृष्टि


अमेरिका अगर लीबिया में लोकतंत्र स्थापितकरने का हिमायती है तो उससे   मधुर संबंध रखने  वाले कई  देशों में राजशाही -तानाशाही है। कई देश अमेरिका के मित्र हैं जहां लीबिया से अधिक भूख,बेरोज़गारी, मंहगाई व भ्रष्टाचार है...

तनवीर जाफरी

ट्यूनीशिया तथा मिस्र के जनविद्रोह के बाद लीबिया में उपजे जनाक्रोश से ऐसा लगने लगा था कि  कर्नल मोअमार गद्दाफी भी उन  देशों के राष्ट्र प्रमुखों की ही तरह पद को त्याग कर देश छोड़ अन्यत्र चले जाऐंगे। ईरान सहित कई उन यूरोपिय देशों के नाम भी सामने आने शुरू हो गए थे जहां गद्दाफी को पनाह मिल सकती है। ऐसी ख़बरें भी आयीं   कि गद्दाफी देश छोड़ कर जाने को तैयार हैं बशर्ते   उनके परिवार के किसी भी व्यक्ति को कोई शारीरिक नुकसान न पहुंचाया जाए तथा उनकी धन संपत्ति तथा सोना- आभूषण आदि को उनके पास सुरक्षित रहने दिया जाए।

लेकिन इन खबरों की विश्वसनीयता तब संदिग्ध हो जाती है जब कभी कर्नल गद्दाफी तो कभी उनके पुत्र किसी टीवी चैनल को साक्षात्कार देते समय यह कहते सुनाई देते हैं कि -'मैं लीबिया का हूं और लीबिया में ही जिऊंगा और यहीं मरूंगा।' गद्दाफी का दावा है कि लीबिया में रह रहे तमाम अलग अलग क़बीलों के लोगों को संगठित कर एकजुट रखना केवल उन्हीं जैसे नेता के वश की बात है। बकौल गद्दाफी अगर उनकी पकड़ ढीली हुई तो देश टूट जाएगा तथा इसका हश्र बोसनिया जैसा होगा।


लीबिया में मची उथल पुथल पर नज़र डाली जाए  तो  कोई शक नहीं कि पूरे लीबिया में गद्दाफी के विरुद्ध भारी जनाक्रोश है। कारण वही हैं  भूख,बेरोज़गारी,भ्रष्टाचार,गरीबी तथा मंहगाई जो मिस्र व ट्यूनीशिया में  थे। इतना ज़रूर है कि एक प्रमुख तेल उत्पादक देश होने के कारण लीबिया की आर्थिक स्थिति अन्य इस्लामिक देशों की तुलना में काफी सुदृढ़ ज़रूर है।

 मगर  मिस्र तथा लीबिया  में एक  बड़ा अंतर है.जहां मिस्र के शासक हुस्नी मुबारक को अमेरिका का समर्थन प्राप्त था वहीं कर्नल गद्दाफी दुनिया के उन कुछेक  शासकों में हैं जो अमेरिका के विरुद्ध मुखर हैं. ऐसे में लीबिया जैसा तेल उत्पादक देश और उस देश का गद्दाफी जैसा मुखिया जो कि अमेरिका विरोधी विचारधारा रखता हो, आखिर  अमेरिका ज्य़ादा समय तक यह स्थिति कैसे बर्दाश्त कर सकता है? 
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा इस बात को लेकर चिंतित नज़र आ रहे हैं कि कर्नल गद्दाफी अपने विद्रोहियों को कुचलने के लिए सेना के साथ-साथ हवाई हमलों का सहारा भी ले रहे हैं। अमेरिका गद्दाफी द्वारा चलाए जा रहे इस दमनचक्र को रोकने हेतु जहां लीबियाई आकाश को उड़ान निषिध क्षेत्र अर्थात् (नो फलाई ज़ोन ) बनाना चाह रहा है वहीं अमेरिका यह भी चाहता है कि लीबिया में नॉटो सेना दखल अंदाज़ी करे।

ओबामा ने स्वयं पिछले दिनों यह कहा भी कि-'ब्रसेल्स में नॉटो कई विकल्पों पर विचार कर रहा है जिसमें संभावित सैन्य कार्रवाई भी एक विकल्प है। यह लीबिया में जारी हिंसा के जवाब में किया जा रहा है। हम लीबिया की जनता को स्पष्ट संदेश देते हैं कि इस अनचाही हिंसा के सामने हम उनके साथ खड़े होंगे। हम लोकतांत्रिक आदर्शों के जवाब में दमनचक्र देख रहे हैं। उधर लीबिया को नो फ्लाई   ज़ोन बनाने की बात भी  अमेरिका ने  शुरु की थी परंतु बाद में अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के ऊपर यह निर्णय छोड़ दिया।

गौरतलब है गद्दाफी की सेना विद्रोहियों पर हवाई हमला भी कर रही है. विद्रोहियों व सैनिकों के बीच के इस टकराव में अब तक एक हज़ार से अधिक लोगों के मारे जाने का भी समाचार है। ऐसे में यदि लीबिया को उड़ान निषिध क्षेत्र घोषित कर दिया जाता है फिर किसी भी विमान को लीबियाई आकाश पर उडऩे की इजाज़त नहीं होगी। कोई विमान लीबिया पर उड़ता नज़र आया तो अंतर्राष्ट्रीय सेना उस जहाज़ के विरुद्ध कोई भी कार्रवाई कर सकती है।

लीबिया में नॉटो की दखलअंदाज़ी के विषय में भी फैसला सुरक्षा परिषद् को ही लेना है। सवाल यह है कि लीबिया को लेकर अमेरिका की नीति कितनी स्पष्ट व पारदर्शी है। यदि अमेरिका लोकतंत्र स्थापित करने तथा विद्रोहियों द्वारा राजनैतिक सुधार लागू करने का हिमायती है तो अमेरिका के मधुर संबंध और भी तमाम ऐसे देशों से हैं जहां या तो राजशाही है या तानाशाही है। कई देश अमेरिका के मित्र हैं जहां लीबिया से कहीं अधिक भूख, बेरोज़गारी, मंहगाई व भ्रष्टाचार है।

ऐसे में अमेरिका द्वारा गद्दाफी का हटाने की जि़द क्यों?क्या सिर्फ इसलिए कि कर्नल गद्दाफी अमेरिका की कठपुतली बनकर नहीं रहते?या वास्तव में अमेरिका लीबिया के विद्रोहियों के प्रति हमदर्दी का भाव रखता है?इस मुद्दे पर स्वयं गद्दाफी का यह कहना कि पश्चिमी देशों तथा कई यूरोपीय देशों की नज़रों में लीबिया के तेल भंडार खटक रहे हैं। और इसी जन विद्रोह के बहाने यह देश लीबिया में प्रवेश करना चाह रहे हैं।
गद्दाफी की इस बात को सिरे से खारिज भी नहीं किया जा सकता। क्योंकि 1990 से 2003 में इराक में प्रवेश करने तक अरब व मध्य-पूर्व क्षेत्र को लेकर अमेरिकी नीति को दुनिया बहुत गौर से देख रही है। इराक पर हमले के बाद तो पूरी दुनिया में अमेरिका को इसी नज़र से देखा जाने लगा है कि उसकी गिद्ध दृष्टि प्राय: तेल के भंडारों पर ही रहती है। ऐसे में गद्दाफी द्वारा अमेरिका को संदेह की नज़रों से देखना भी बिल्कुल गलत नहीं आंका जा सकता।

दूसरी तरफ समय बीतने के साथ-साथ लीबिया में गद्दाफी समर्थक सैनिकों तथा विद्रोहियों के बीच लगातार उतार-चढ़ाव तथा एक-दूसरे पर बढ़त लेने की भी खबरें प्राप्त हो रही हैं । ऐसा नहीं है कि लीबिया की शत-प्रतिशत जनता ही गद्दाफी के विरुद्ध हो। तमाम जगहों पर भारी तादाद में आम जनता भी गद्दाफी समर्थक सेना का साथ दे रही है। कई जगहों पर सेना, विद्रोहियों के कब्ज़े से कई कस्बों व शहरों को छुड़ा चुकी है। ज़ाबिया तथा रास लानुफ जैसे प्रमुख तेल उत्पादक शहर जिन पर कि पहले विद्रोहियों का कब्ज़ा था अब पुन:गद्दाफी समर्थकों व सेना के कब्ज़े में वापस आ गये हैं।

इससे यह साफ लगने लगा है कि गद्दाफी को सत्ता से हटाना उतना आसान नहीं है जितना कि दुनिया समझ रही है। परंतु साथ-साथ ऐसा भी महसूस किया जा रहा है कि शायद गद्दाफी को सत्ता मुक्त करने की जितनी जल्दी विद्रोही संगठन अर्थात् नेशनल लीबियन कौंसिल को है उससे भी कहीं ज्य़ादा जल्दी में फ्रांस जैसे देश दिखाई दे रहे हैं। संभवत:यही वजह है कि फ्रांस दुनिया का पहला ऐसा देश बन गया है जिसने कि एनएलसी अर्थात् नेशनल लीबियन कौंसिल को यह मान्यता दे दी है कि एनएलसी ही लीबिया वासियों का वैध प्रतिनिधित्व कर रही है।

 यह फैसला गत् दिनों फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोज़ी तथा एन एल सी के प्रतिनिधि मंडल के मध्य हुई एक बैठक में लिया गया। हालांकि यूरोपीय संघ सरकोज़ी की इस जल्दबाज़ी के पक्ष में नहीं है। यूरोपीय संघ का मानना है कि अभी लीबिया पर नज़रें रखने की ज़रूरत है तथा यह देखना ज़रूरी है कि विद्रोही कौन हैं, क्या चाहते हैं और यह वास्तव में सच्चे लीबियाई प्रतिनिधि हैं भी या नहीं। यूरोपियन यूनियन इस बात की भी पक्षधर है कि लीबिया के विषय पर अरब लीग के साथ मिलजुल कर काम किया जाए तथा उसकी सहमति से ही कोई निर्णय लिया जाए।

उपरोक्त सभी परिस्थितियों के मध्य लीबिया के ताज़ातरीन हालात यही हैं कि वहां गृह युद्ध जैसे हालात बने हुए हैं। इन्हीं हालात के परिणामस्वरूप तीन लाख से अधिक लोग विस्थापित हो चुके हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ 6लाख विस्थापितों हेतु सोलह करोड़ बीस लाख डॉलर जुटाने की अपील भी कर चुका है। इन सब के बावजूद लीबिया पर लगभग 42वर्षों तक सत्ता पर काबिज़ रहने वाले कर्नल गद्दाफी की पकड़ देश पर अभी भी उतनी कमज़ोर नहीं हुई है जितना कि गद्दाफी विरोधी शासक या देश उम्मीद कर रहे हैं।

वैसे भी राष्ट्रपति ओबामा चाहे लीबिया में नॉटो कार्रवाई के पक्षधर हों या वहां नो फ्लाई  ज़ोन बनाने के। परंतु राष्ट्रपति ओबामा के प्रमुख ख़ुफ़िया  सलाहकार जनरल जेम्स क्लेपर का आखिरकार  यही मानना है कि लीबिया में विद्रोहियों की जीत बहुत मुश्किल है। क्लेपर मानते हैं कि आखिरकार  जीत गद्दाफी की ही होगी। क्योंकि उनके सैनिक ज़्यादा अच्छी तरह से प्रशिक्षित हैं और उनके पास बेहतर हथियार भी हैं। साथ ही साथ न केवल गद्दाफी समर्थकों बल्कि गद्दाफी विरोधियों के मन में भी कहीं न कहीं यह बात समाई हुई है कि कहीं ऐसा न हो कि गद्दाफी को अपदस्थ करने के बहाने तथा विद्रोहियों को समर्थन देने की आड़ में अमेरिकी सेना लीबिया में प्रवेश कर जाए।

ऐसी परिस्थिति उत्पन्न होने से पूर्व ईरान भी अमेरिका को चेतावनी भरे लहज़े में अपना संदेश दे चुका है। कुल मिलाकर यही हालात कर्नल गद्दाफी को उर्जा प्रदान कर रहे हैं ऐसे में आसान नहीं है कर्नल गद्दाफी की बिदाई।




लेखक  हरियाणा साहित्य अकादमी के भूतपूर्व सदस्य और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय  मसलों के प्रखर टिप्पणीकार हैं.उनसे tanveerjafari1@gmail.com  पर संपर्क किया जा सकता है.




2 comments:

  1. जावेद अहमदMonday, March 14, 2011

    बहुत महत्वपूर्ण मुद्दों को सामने लाने के लिए साधुवाद. आपके लिखों से हमारी अंडरस्टैंडिंग बढती है.

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  2. It could not be possible that all people start protesting against any ruler due to their own interest. However its up to Individual how one look the matter and take their own stand,
    ऐसा नहीं है कि लीबिया की शत-प्रतिशत जनता ही गद्दाफी के विरुद्ध हो
    even not even Egypt.

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