Mar 19, 2011

भूमिका में स्त्री




रामजी यादव


मैंने बचपन से देखा है बस यही

उछाह में भर कर गाने लगना

जैसे चलाना हो कुआं खोदने के लिए पहला फावड़ा

और हुलास से भर देना सारे वातावरण को



मैं जब भी ध्यान करता हूं सिहरने लगता हूं

सुध खोकर रोना पूरे राग में

जिंदगी के गद्य को कविता में बदलते हुए

ढेरों-ढेरों कहावतों, मुहावरों और निष्कर्षों से

एकाग्र कर देना सारे सत्य और विगलित यथार्थ को

मेरी मां की यही दो विशेषतायें हैं



मां की भूमिका इन्हीं दो महाबंधों के बीच

चलती रही उम्रभर

थोड़ी सी जिद रही जीने की थोड़ी सी उम्मीद

कि मनाया जायेगा उसे नाराज होने पर



वह उस वर्ग की है जो अपनी भूमिका को ही

मान चुका है अपनी हैसियत

और हैसियत से हिलता नहीं जौ भर



गोबर उठाना, पाथना

उसिन देना भात और बटलोई में दाल चढ़ा देना

चुटकी भर हल्दी और नमक के साथ

मिला देना अपनी ऊब विषण्णता और थकान भी उसमें

न कुछ सूझे तो गाली देना स्त्रियोचित

और हार कर रोने लगना सचमुच

जिसकी तस्दीक सिर्फ आंसू करते हैं

पोछती जाती है जिन्हें बार-बार पल्लू से



जब दुलहिन थी मां

पकाया करती थी ससुराल में जौ की रोटी

खेसारी की दाल

उबालकर दाल रख देती थी दौरी से तोपकर



मैं नहीं हुआ होऊंगा तब तक

दिन बिताया होगा मां ने कोठार, कछरों, घड़ों और गगरियों

से परिचित होने में

और जैसे-जैसे जानती गयी होगी ससुराल में

जौ और खेसारी की उपज

तो कैसे हुई होगी दुखी

और कितना कोसा होगा अपनी किस्मत को?



उन दिनों गेहूं नहीं बोया जाता था हमारे खेतों में

थोड़ा-बहुत बदल लिया जाता था जब कभी मेहमान आते

वे आते ही मेह की तरह बिना बताये

और उसी तेजी से मां बैठ जाती जांत पर बुआ के साथ

फटाक से पीस लेती सेर-दो सेर पिसान



फिर पूरे मन से बनाती उजली-उजली रोटियां

कि देखते ही एक और खाने का मन करे किसी का भी



बताया था उसने एक बार

चुपके से रख ली दो रोटी अलग से

फिर लग गयी रसोई में



पता नहीं किसके आदेश पर कि जो कहता रहा भौंरे की तरह

भन्नाते हुए कि

जे गिहथिन खाती है चुपके से रोटी बिना बताये और

लिये आदेश मालिक से

उसके सात पुरखे हो जाते हैं कुपित

और खंडहर हो जाता है एक दिन उसका घर



रख दिया दोनों रोटियां उस दुलहिन ने वापस कठवत में

और समझती रही पता नहीं कब तक अपराधिनी स्वयं को



कि बचाया जिस स्त्री ने दो रोटियों को

अपनी विराट इच्छाओं की उफनती नदी में बह जाने से

और बचा लिया इस तरह एक परिवान को विपन्न होने से



जो लाखों-लाख स्त्रियां हैं ऐसी ही

और जो बचे हुए हैं परिवार के परिवार

जो गांव के गांव बनते हुए उगाते हुए गेहूं और उम्दा चावल

भेज रहे हैं ‘ाहरों को बड़ी आबादी खटने के लिए



अफसर ने कम्प्यूटर आपरेटर और हम्माल

राजमिस्त्री, अढ़िया ढोते मजदूर, कवि और चैकीदार

अध्यापक और नेता जो चलाते हैं यह राजसत्ता

जो भूल चुकी है श्रम का अर्थ

एकमुश्त सिखाती है चोरी और दमन

और झूठ बोलने के हजारों हजार तरीके



उस स्त्री की भूमिका का क्या है महत्व?

उन स्त्रियों को कैसे देखेंगे आप जो

धज में भले हों अलग लेकिन मन का एक

विराट आकाश है बिना देखा गया?





साहित्य की सभी विधाओं में दखल . देश में चल रहे संघर्षों और संघर्षशील  जनों के विमर्श को साहित्य के केंद्र में लाने  के पक्षधर. उनसे  yadav.exploremedia@gmail.com   पर संपर्क किया जा सकता है.

No comments:

Post a Comment