Mar 2, 2011

जरूरी हैं क्षेत्रीय दल

भारत में दो प्रमुख पार्टियां हैं-कांग्रेस और  भाजपा। दोनों निजीकरण और उदारीकरण के प्रति प्रतिबद्ध हैं,और देश की मिट्टी, हवा और पानी तक बेच देने से गुरे़ज नहीं करती हैं...  

मदन कश्यप

आंध्र प्रदेश में फिल्म अभिनेता चिरंजीवी की पार्टी प्रजा देशम् के कांग्रेस में विलय से कांग्रेस पार्टी भले ही मजबूत हुई हो,हमारा संसदीय लोकतंत्र तो कम़जोर ही हुआ है। एक ब़डे राज्य में तीसरे दल की संभावना खत्म हो गयी है।

लोकतंत्र की म़जबूती के लिए राज्यों में तीसरे दलों का और केंद्रीय स्तर पर तीसरे मोर्चे का म़जबूत होना और रहना जरूरी है। दो दलीय प्रणाली हमेशा ही लोकतंत्र को सीमित करती है और वैसी परिस्थिति में जनतंत्र सत्ता  के दलालों के हाथों में पूरी तरह चला जाता है। अमेरिका और ब्रिटेन सहित यूरोप के कई प्रमुख देशो में ऐसा हो भी चुका है।

दो दलीय प्रणाली में सत्ता परिवर्तन का कोई मायने-मतलब नहीं रह गया है। अमेरिका में राष्ट्रपति चाहे डेमोक्रेट हो अथवा रिपब्लिकन हालात में कोई खास बदलाव नहीं आता है। वही हालत ब्रिटेन में कंजरवेटिव और लेबर पार्टी की है। ऐसी स्थिति में दोनों पार्टियां एक ही वर्ग के हित में काम करती हैं और अदल-बदल कर सत्ता में आती रहती हैं। इनमें कोई गुणात्मक अंतर नहीं होता और उनके आर्थिक हित भी समान होते हैं।

फ़र्क सि़र्फ समाज के कुछ तबकों, कुछ इलाकों और भाषाई समूहों को अपेक्षाकृत कम या ़ज्यादा तवज्जो देने का होता है और इसके अंतर के चलते ऊपरी तौर पर कुछ राजनीतिक गतिशीलता दिखलाई देती है, मगर ब़डे पूंजीपतियों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों, निगमों और औद्योगिक  घरानों को कोई ़फ़र्क नहीं प़डता। ब़डे औद्योगिक देशों में तो स्थिति पहले से ही ऐसी थी,मगर सोवियत संघ के विघटन और भूमंडलीकरण की नयी अर्थनीति के लागू होने के बाद तो अमेरिका के इशारे पर पूरी दुनिया में प्रतिपक्ष की भूमिका समाप्त करने की कोशिश की जा रही है।


ढिंढोरा भले ही पीटा गया कि पश्चिमी शैली का उदारवादी लोकतंत्र अब दुनिया की अंतिम शासन व्यवस्था है और इतिहास का अंत हो चुका है, मगर सच तो यह है कि पूरी दुनिया में तानाशाही को ब़ढावा दिया गया और राष्ट्रवाद के आधार को कम़जोर किया गया। यह अलग से विचारणीय विषय है। फिलहाल तो सि़र्फ इस तथ्य पर ध्यान देने की जरूरत है कि उस भूमंडलीकरण के बाद ही सांप्रदायिकता का उभार हुआ और शासकवर्ग की दूसरी पार्टी के रूप में भाजपा का उदय हुआ। कांग्रेस की वास्तविक प्रतिपक्षी पार्टियां कमजोर होती हुई कुछ राज्यों तक सिमट गयीं।
अब भारत में दो प्रमुख पार्टियां हैं-कांग्रेस और  भाजपा। दोनों अमेरिकापरस्त हैं। दोनों निजीकरण और उदारीकरण के प्रति प्रतिबद्ध हैं, और देश की मिट्टी, हवा और पानी तक बेच देने से गुरे़ज नहीं करती हैं। फिर उन्हें एक-दूसरे का प्रतिपक्ष कैसे कहा जा सकता है?दरअसल यह दूसरा पक्ष है, विपक्ष नहीं सत्ता बदलने से परिवर्तन होता है,प्रगति नहीं। यही है उत्तर  आधुनिकता। कांग्रेस और भाजपा में जो अंतर दिखाई देता है,वह महज भुलावा है। भाजपा का राष्ट्रवाद और कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता एक जैसा ही छद्म है। खूबी यह है कि दोनों एक-दूसरे पर छद्म का आरोप लगाते हैं।

भारत जैसे बहुभाषी, बहुधर्मी और बहुसांस्कृतिक देश में दो दलीय पद्धति लागू करना संभव नहीं है, क्योंकि औपनिवेशिक दासता से मुक्ति के लिए चले संघर्षों के दौरान जो राष्ट्रवाद पनप रहा था और जिसका शुरुआती लाभ कांग्रेस को मिला था,उसकी हवा अब निकल चुकी है। ऐसी स्थिति में इलाकाई और तबकाई आकांक्षाओं को पहचान देने वाली छोटी-छोटी पार्टियों के व़जूद को मिटाया नहीं जा सकता।
तब अमेरिकापरस्त ता़कतों ने एक नया रास्ता निकाला। उन्होंने भाजपा और कांग्रेस के नेतृत्व में दो गठबंधन यानी दो गिरोह बनवा दिये-एनडीए और यूपीए। अर्थात अमेरिकी साम्राज्यवाद और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विरुद्ध बनी छोटी पार्टियों के तीसरे मोर्चे के हथियार का ही अपने पक्ष में इस्तेमाल कर लिया। इन दोनों गिरोहों में अभूतपूर्व आंतरिक एकता है और ये नकली प्रतिपक्ष बनकर जनता को गुमराह करने में सक्षम हैं। धु्रवीकरण इतना म़जबूत है कि प्रांतीय स्तर पर तो किसी तीसरे विकल्प की स्थिति ही नहीं बनती है।

केवल उŸार प्रदेश में बसपा और सत्ता के अलावा कांग्रेस और भाजपा भी तीसरा-चौथा कोण बनाने में कुछ हद तक सक्षम है,बाकी सभी राज्यों में केवल दो ही पार्टियां या गठबंधन हैं। यानी मूल्यों की ल़डाई खत्म हो चुकी है,केवल जीत और हार का मसला सामने है। फिर भी अधिकांश राज्यों में पहले अथवा दूसरे नंबर पर कोई न कोई क्षेत्रीय अथवा वामपंथी पार्टी है। उत्तर  प्रदेश में तो सत्ता और मुख्य प्रतिपक्ष- दोनों की जगहों पर बसपा और सपा जैसी पार्टियां हैं।

वैसे तो ये क्षेत्रीय पार्टियां भी कभी न कभी सत्ता के किसी न किसी गठबंधन में शामिल हो चुकी हैं,लेकिन इन्होंने हमेशा ही तीसरे मोर्चे के विकल्प को खुला रखा है। आज भी वामदल,बसपा, तेलगुदेशम, अन्नाद्रमुक, बीजद आदि जैसी पार्टियां सत्ता के दोनों गिरोहों से बाहर हैं, जबकि जद यू, अकाली दल, नेका, अगप, राजद, आदि जैसी पार्टियां कभी भी गठबंधन तो़डकर तीसरे मोर्चे में आ सकती हैं। भाजपा का स्वाभाविक  मित्र तो केवल शिवसेना और कांग्रेस का राकांपा है।

ऐसे में हमारा लोकतंत्र तभी मुकम्मिल होगा जब राजग जैसा नकली प्रतिपक्ष समाप्त होगा और उसकी जगह अमेरिका और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लूट के दृढ विरोधी के रूप में मजबूत तीसरा मोर्चा उभरकर आएगा। दो गिरोहीय ध्रुवीकरण के इस कठिन राजनीतिक समय में चिरंजीव ने आंध्र विधानसभा में म़जबूती दिखलायी थी और किसी वैचारिक प्रतिबद्धता के न होने के बाव़जूद उनकी उपस्थिति मात्र से तीसरे विकल्प के सिद्धात को बल मिल रहा था।

अब उनके अवसरवाद ने लोकतंत्र के विस्तार और वास्तविक प्रतिपक्ष के निर्माण की प्रक्रिया को कुछ तो चोट पहुंचायी है। अगर हम लोकतंत्र को बचाना चाहते हैं तो कांग्रेस और भाजपा की नूराकुश्ती से ध्यान हटाकर तीसरे विकल्प को म़जबूत करना जरूरी है।


हिंदी के वरिष्ठ कवि. कविताओं में  जनपक्षीय झुकाव के लिए चर्चित. फिलहाल हिंदी पत्रिका  'द पब्लिक एजेंडा' के साहित्य संपादक.







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