Nov 15, 2010

वर्तमान प्रगतिशीलता का कांग्रेसी आख्यान


भाग- 1
हिंदी साहित्य के सरोकारों पर संवाद की शुरुआत करते हुए मंशा बस इतनी सी है कि साहित्य की सामाजिक उपयोगिता पर बात हो क्योंकि समाज में साहित्य की उपस्थिति लगातार कम होती  जा रही है. ऐसा क्यों हो रहा है को बताने वाले बहुतेरे पक्ष होंगे.हमारी कोशिश होगी सभी पक्ष पूरे तेवर और सरोकार के साथ सामने आयें. बहस की पहली कड़ी में वरिष्ठ लेखक और शिक्षक ...

आनंद प्रकाश

समकालीन हिंदी लेखन,जिससे मेरी मुराद पिछली सदी के अंतिम दो दशकों के लेखन से है,सीधे-सीधे चिंतन-विरोधी है। वह न केवल वर्तमान दौर या पिछले वक्त को समझने में यकीन नहीं रखता,बल्कि स्पष्ट रूप से समझने की क्रिया को ही अनुचित और गैरजरूरी मानता है।

इस लेखन से जुड़े रचनाकारों की चले तो विचार सामग्री पर प्रतिबंध ही लग जाए,और उसे समकालीन विमर्श से निष्कासित कर दिया जाए। फिर,विमर्श की व्याख्या भी इन दिनों अजीबोगरीब हो चली है —अब विमर्श को मात्र वह समझ माना जाता है जिसे रचनाकार अपने माहौल से तात्कालिक अर्थ में प्राकृतिक प्रक्रिया के अंतर्गत ग्रहण करता है। विमर्श,अर्थात सामान्य-बोध पर आधारित और लिखने-जीने के दौरान अर्जित किये गए विचार-बिंदु और मूल्य। सोचा जाता है कि बुद्धि की यही क्रिया वैचारिकता की मूल सामग्री है,और यह भी कि इससे अलग, याने लिखने-जीने से बाहर सामाजिक परिदृश्य से संबंधित विचार रचना के लिए कृत्रिम और बेमानी है। यह एक पक्ष है।

इसके विपरीत दूसरे पक्ष का संबंध मात्र परिदृश्य के बारे में कहने अथवा वक्तव्य देने के लिए किए गए लेखन से है। वह भी इन दिनों समकालीन श्रेणी के अंतर्गत खूब लिखा जा रहा है। समकालीन लेखन की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि हमारे दौर में तथाकथित ‘लघु’पत्रिकाओं की शक्ल में महंगे कागज पर छपी और नियमित समय पर निकलने वाली पत्रिकाओं के भीतर एक अलग तरह की विचार-सामग्री का अंबार लगा है।

इस सामग्री के तहत संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत, चुनिंदे समाजशास्त्रीय विषयों पर लंबे उबाऊ लेख, इतिहास और कला पर विस्तृत टिप्पणियां,विश्वस्तर के कतिपय विचारकों का हिंदी में विशद विश्लेषण,आदि इस रूप में उपलब्ध है मानों अकस्मात किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के हाथों इसका उद्योग चल पड़ा हो। दिलचस्प है कि देखते-देखते पत्रिकाओं, महाविशेषांकों, विषय-केंद्रित अंकों से हिंदी साहित्य का बाजार पट गया है, जब सामान्य अंकों की पृष्ठ-संख्या डेढ़ सौ पृष्ठों से लेकर तीन सौ पृष्ठों तक हो गई है। साथ ही, ऐसे अनेक लेखकों ने साहित्य जगत में प्रवेश किया है, जिन्हें त्रिलोचन के शब्दों में ‘कविता का ककहरा’ नहीं मालूम, यद्यपि वे काव्य-चिंतन पर अथवा व्यापक साहित्य के सवालों पर विस्तार से लिखते-बोलते हैं। उनका आत्मविश्वास देखते बनता है।

ये दोनों पक्ष परस्पर-विरोधी जान पड़ते हैं,लेकिन असल में वे एक ही सचाई के दो पहलू हैं —साहित्य-लेखन को रचना तक ही महदूद रखना और इसके समानांतर विचार के नाम पर बड़ी मात्रा में गद्य-सामग्री को पाठकों के लाभार्थ उपलब्ध कराना। जो चीज इस परिदृश्य से गायब है,वह है सामान्य अकादमिक सामग्री से अलग गंभीर राजनीतिक विचार जिसे उत्तर आधुनिक चिंतकों ने ‘ग्रेंड नैरेटिव’ याने महा आख्यान कहा है। हिंदी लेखन और विमर्श से महा आख्यान को हटा दिया गया है —ऐसा विमर्श या व्यापक विचार जो चीजों के विभाजन को रोके,उन्हें एकसूत्रता प्रदान करे, और साथ ही सूत्रबद्ध वैचारिकता को समकालीन द्वंद्वों से जोड़े।

मुझे दो वर्ष पहले हुई एक गोष्ठी का प्रसंग याद आता है जब एकाध वक्ताओं को छोड़ कर सभी ने ऐसे यथार्थ की वकालत की जो वर्ग विभाजन से बाहर किसी अमूर्त आम आदमी का है और जिसमें कई विविधताएं और उनकी अपनी विशिष्ट संगतियां हैं। वक्ताओं का कहना था कि महा आख्यान अपना निजी अनुशासन उक्त आम आदमी की विविधता पर आरोपित करता है और उनकी चेतना को बंदी बनाता है। जाहिर है कि महा आख्यान से उनका तात्पर्य वर्गाधारित और मूलतः अंतर्राष्ट्रीय समाजवाद से था। उनकी राय में वर्तमान मनुष्यता का मुख्य शत्रु अंतर्राष्ट्रीय समाजवाद था।

आज हिंदी के उस पूरे लेखन में, अपवादों को छोड़ कर, जो पिछले तीस वर्षों में उभरा है यही विचार सक्रिय है और लेखक हैं कि किसी मिथकीय अनुशासन से लड़ने और उसका विरोध करने की प्रक्रिया में ‘आम आदमी’की स्वतंत्रता प्रतिष्ठित करने में लगे हैं। अनुमानतः वर्तमान कांग्रेस दल के विमर्श को इन लेखकों ने अपनी आत्मा का संवाहक सूत्र बना लिया है। कांग्रेस दल में आज आम आदमी से अलग कुछ भी गवारा नहीं,जो एकाधिकारी पूंजीवाद द्वारा पूर्व योजना के तहत अपनाया गया राजनीतिक विमर्श है। जिन महंगी पत्रिकाओं का ऊपर जिक्र हुआ है,उनमें यही आम आदमी द्वारा महा आख्यान से लड़ने वाली प्रवृत्ति हावी है।

पिछले पचीस-तीस वर्षों में लिखी-छपी रचनाओं पर गौर करें तो पाएंगे कि वहां वर्तमान राजनीतिक-विचारधारात्मक परिदृश्य की गंभीर समझ न के बराबर है। ऐसी बहुत कम रचनाएं हैं जिनमें पूंजीवादी प्रवृत्तियों तथा सांस्थानिक गतिविधियों पर तीखी चोट हो —यद्यपि सामान्य क्रोध अथवा असंतोष की मात्रा वहां पर्याप्त है। वहां प्रयुक्त मुहावरों को देख कर यह भी समझ आता है कि जो संकट सत्तर के दशक के बाद नये रूप में उभरा और जिसकी परिणति नब्बे-इक्यानवे की एकध्रुवीय घटना में हुई, उसने रचनाकार को हाशिये पर ला दिया।

देश का पूरा मध्य वर्ग पिछले बीस वर्षों से एकध्रुवीय दुनिया की चपेट में है। पूर्व दशकों में मध्य वर्ग के लिए नौकरी अहम चीज हुआ करती थी और उसके लिए सार्वजनिक क्षेत्र की पर्याप्त सार्थकता भी यह थी कि उसमें व्यक्ति आर्थिक स्थायित्व तथा सामाजिक गरिमा अर्जित कर सकता था। इन चीजों के बल पर मध्यवर्गीय तबका अपने वक्त की केंद्रीय गतिकी में किंचित हिस्सा ले सकता था। बुर्जुआ राजनीतिक दलों द्वारा परिकल्पित आर्थिक निजीकरण और शासक वर्गों द्वारा उसे मिली स्वीकृति ने मध्य वर्ग से स्थायित्व और गरिमा छीन ली, और उसे पूरी तरह समाज के धनाधारित प्रभाव-क्षेत्रों के हाथों सौंप दिया। अस्सी के दशक में यह प्रक्रिया शुरू हुई और धीरे-धीरे उसने 1990 के निकट एक भरीपूरी व्यवहार प्रणाली का रूप ग्रहण किया। परिणामतः रचनाकार एक लंबी प्रक्रिया के तहत अपने माहौल की अस्थिरता से दो-चार होने लगे। यह परेशानी पिछले वर्षों के लेखन में असंतोष का कारण बनी है।

आज हम पाते हैं कि समकालीन लेखन में वह उत्सवधर्मिता नहीं है,जिसकी बात कुछ चिंतक अतीतकामी नजरिया अपनाते हुए करते हैं। उत्सवधर्मिता दर असल सामाजिक परिवेश से उत्पन्न होती है,मानवता के किन्ही आंतरिक स्रोतों में नहीं,जैसा कि लेखन में इधर एकाध जगह माना जा रहा है। मूल बिंदु पर लौटें तो कह सकते हैं कि समकालीन रचना में उपस्थित असंतोष लेखकों का असंतोष केवल इस अर्थ में है कि मध्यवर्गीय व्यक्ति की हैसियत से हिंदी का रचनाकार एकध्रुवीयता,निजीकरण और पूंजीवादी भूमंडलीकरण का शिकार हुआ है। मात्र इस अर्थ में उसका दर्द वास्तविक है। फिर,रचनाकार उसे जाने-अनजाने केवल व्यक्त कर रहा है, उस पर तीखी वैचारिक प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कर रहा। इसका ठोस कारण है।

साहित्य में जिन्हें हम माडल या आदर्श कहते हैं,वे इन दिनों पूरी तरह बदल गए हैं। बीसवीं सदी की शुरूआत जिस माडल से हुई थी,वह था —महावीर प्रसाद द्विवेदी और प्रेमचंद का। द्विवेदी चिंतक थे और प्रेमचंद कथाकार। फिर,द्विवेदी को कथा की जानकारी थी और प्रेमचंद के लेखन का बड़ा हिस्सा चिंतनपरक था —यहां तक कि प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यासों में समाजविषयक आलोचनात्मक टिप्पणियों की भरमार है। इसके बाद आया था निराला और मुक्तिबोध का माडल। निराला पूरी तरह बेलाग और निर्मम लेखक थे, जबकि मुक्तिबोध अंतर्मुखी, दुरूह और आत्मविश्लेषक थे। साथ ही, इसके समानांतर एक अन्य माडल जैनेंद्र और अज्ञेय का भी उभरा था। संभवतः उस वक्त कुछ अन्य प्रवृत्तियां भी जनवादी उभार की प्रतिक्रिया में सक्रिय हुई थी।

जैनेंद्र और अज्ञेय व्यक्तिवादी थे और सामाजिक सचाई को संदेह से देखते हुए अपनी चमत्कारी मानसिकता में रमते थे। आजादी के बाद की पीढ़ी साक्षी है कि शीतयुद्ध के चलते निराला और मुक्तिबोध अपने काल में असफल सिद्ध हुए थे। उन दिनों निराला और मुक्तिबोध की श्रेणी में शामिल नागार्जुन, त्रिलोचन, शमशेर, केदारनाथ अग्रवाल, रांगेय राघव, आदि थे। सत्तर के दशक तक इनका स्थान भी साहित्य के हाशिये पर ही कहीं था। उनकी पंक्ति में यशपाल नामक केवल एक लेखक था,जिसने लोकप्रियता और स्वीकार्यता के स्तर पर बाकी बूर्जुवा लेखकों को टक्कर दी, और उद्देश्यपरक लेखन को प्रतिष्ठित किया।

इसके विपरीत अस्सी और नब्बे के दशकों का माडल देखें। नाम लेने की जरूरत नहीं है,क्योंकि इस माडल को रूपायित करने वालों की लंबी पांत है, जिसके सभी सदस्य सिंह, हंस, लाल और संत हैं। रोचक है कि यह नया माडल बड़ी पत्रिकाओं का संपादक, विश्वविद्यालय का नीतिनिर्धारी विभागाध्यक्ष, सरकारी संस्थान का आला अफसर और ऊंची कमेटी का सदस्य, तथा बड़े प्रकाशकों को लाभ देकर पुस्तक प्रकाशित कराने एवं खरीदवाने वाला सम्मानित-प्रभावी आयोजक-लेखक है। साथ ही,यहां पुरस्कार देना और पाना परस्पर जुड़ गए लगते हैं। इस माडल को देखकर जिस अपेक्षित लेखकीय व्यवहार की तस्वीर बनती है,नयी पीढ़ी का रचनाकार उसे ही अपनाने को बाध्य है। रचना भी निजी क्षेत्र की प्रकृति, उसके नियमों एवं सांस्थानिक हैसियत के मूल्यों से अपना रूपाकार ग्रहण करती है।

पिछले दशकों में श्रेष्ठ साहित्य की परिभाषा भी बदली है। आज श्रेष्ठ साहित्य उसे कहा जाता है जो चर्चा के केंद्र में हो, अर्थात जिसके विषय में सामान्य पाठक न केवल जानते हों, बल्कि जिसके उजले पक्षों पर लंबी बातें भी करते हों। इस संदर्भ में ‘जानने’ का अभिप्राय प्रचार से है और ‘उजले पक्षों पर लंबी बातें करने’ का अभिप्राय गोष्ठियों के आयोजन से। समकालीन साहित्यिक व्यवहार यह वो पक्ष है जिसकी विस्तृत व्याख्या आवश्यक है। जाहिर है, इससे लेखक संगठनों की भूमिका भी प्रभावित हुई है। एक पूरा मध्यवर्गीय तबका निजी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए लेखक संगठनों की ओर बढ़ने लगा है। इस सवाल पर भी सोचने की जरूरत है।
(अगला हिस्सा शीघ्र ही)


दिल्ली विश्वविद्यालय के अंग्रेजी साहित्य विभाग  में 2007 तक शिक्षक.  जार्ज लुकाच की पुस्तक 'द थियरी आफ द नावेल' का हिंदी में 'उपन्यास का सिद्धांत' शीर्षक से अनुवाद और 'हिंदी कहानी की विकास प्रक्रिया' पुस्तक प्रकाशित। सत्तर के दशक में दो पत्रिकाओं --मतांतर और युग परिबोध का संपादन। उनसे anand1040@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

5 comments:

  1. राघवेन्द्र, इलाहबाद विश्विद्यालयMonday, November 15, 2010

    मैंने आलोचना में कभी आनंद जी का नाम तो नहीं सुना है पर आज पढ़कर लगा की अच्छा लिखने वालों को कभी वह जगह नहीं मिल पाती जिसके वे हकदार होते हैं. एक बेहद जरूरी लेख जो हिंदी साहित्य की वर्तमान स्थिति को समझने के लिए काफी है. शीर्षक तो पूरे लेख की आत्मा को खोलकर रख देता है. बहस आगे बढ़े तो हम छात्रों के लिए बहुत ही अच्छा रहेगा.

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  2. dharmveer, haryana, chandigarhMonday, November 15, 2010

    इस सामग्री के तहत संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत, चुनिंदे समाजशास्त्रीय विषयों पर लंबे उबाऊ लेख, इतिहास और कला पर विस्तृत टिप्पणियां,विश्वस्तर के कतिपय विचारकों का हिंदी में विशद विश्लेषण,आदि इस रूप में उपलब्ध है मानों अकस्मात किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के हाथों इसका उद्योग चल पड़ा हो। दिलचस्प है कि देखते-देखते पत्रिकाओं, महाविशेषांकों, विषय-केंद्रित अंकों से हिंदी साहित्य का बाजार पट गया है, जब सामान्य अंकों की पृष्ठ-संख्या डेढ़ सौ पृष्ठों से लेकर तीन सौ पृष्ठों तक हो गई है।

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  3. mahatvapoorn lekh haI...KUCH KAHNE SE PAHLE DOOSARAA HISSAA PADHNA CHAAHONGAA..

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  4. meri bhi ashok pandey se sahmati kee pura lekh padhne ke baad hi kuch kaha jaye. ek doosare kee tarif men lage mahan sahityakaron ko iski koi chinta nahin hai.isliye ab baat ho aur khulakar ho ki unhe yaad aye ki rajnitik aur sahityik sarokar kyon jaroori hain.

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  5. विचार के महत्व को कम करके आँकना, अकारण ही नहीं है. इसके पीछे नए विचार को विकसित करने की मेहनत और जिम्मेवारी से बचना एक कारण है. कहा जाता है कि बिना दर्शन के क्रांति नहीं होती. परंतु हमारे लेखक दर्शन या विचार के नाम से घबराने लगते हैं. या फिर सीधे-सीधे उधारी विचार कविता के नाम पर परोस देते हैं. विचार का महत्व असंदिग्ध है, उसे चर्चा के केंद्र में लाने के लिए साधुवाद.

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