Oct 15, 2010

हर मस्जिद की खिडकी जब मंदिर में खुलती


कांधला में जामा मस्जिद और लक्ष्मी नारायण मंदिर जमीन के एक ही टुकड़े पर खड़े होकर 'धर्म के कारोबारियों' को आईना दिखा रहे हैं। मौलाना महमूद बख्श कंधेलवी ने जमीन का एक टुकडा हिंदुओं को सौंप दिया था ,जहाँ आज मंदिर में आरती होती है और मस्जिद से आजान की आवाज बुलंद होती है...

 
सत्यजीत चौधरी

बाबरी मस्जिद का विवादित ढांचा जब 6 दिसंबर 1992 को ढहाया गया, तब मैं जवान हो रहा था। बारहवीं में था। पिताजी उन दिनों बुलंदशहर में बतौर अध्यापक तैनात थे। हम सब उनके साथ ही रह रहे थे। दंगे भडक चुके थे। हमने छत पर चढïकर दूर मकानों से उठती लपटों की आंच महसूस की थी। मौत के खौफ से बिलबिलाते लोगों की चीखें सुनी थीं। हैवानियत का नंगा नाच देखा था।

'जयश्री राम' और 'अल्लाह ओ अकबर' के नारों में भले ही ईश्वर और अल्लाह का नाम हो, लेकिन तब उन्हें सुनकर रीढ़  में बर्फ-सी जम जाती थी। पूरा देश जल रहा था। अखबार और रेडियो पर देशभर से आ रही खबरें बेचैन किए रहतीं। हमारे हलक से निवाले नहीं उतरते थे। तभी से 'छह दिसंबर' मेरे दिमाग के किसी गोशे में नाग की तरह कुंडली मारकर बैठ गया था। कमबख्त तबसे शायद हाईबरनेशन में पड़ गया  था।

कांधला में अमन की मिसाल: मंदिर-मस्जिद एक साथ
इतने वर्षों  बाद जब राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ का फैसला सुनाने का ऐलान हुआ तो नाग कुलबुलाकर जाग गया। पिछले एक महीने से नाग और राज्य सरकार की तैयारियों ने बेचैन किए रखा। अयोध्या फैसले को लेकर उत्तर प्रदेश के एडीजी (लॉ एंड आर्डर) बृजलाल के प्रदेशभर में हुए तूफानी दौरों ने और संशय में डाल दिया।

 इसके बाद शुरू हुआ 'संयम की सीख का हमला। प्रदेश सरकारों से लेकर केंद्र सरकार,और संघ-भाजपा से लेकर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड,दारुल उलूम तक फैसले का सम्मान करने की घुट्टी पिलाते मिले। फिर मामला सुप्रीम कोर्ट में चला गया तो कुछ सुकून मिला, लेकिन चार दिन बाद ही जब सर्वोच्च अदालत ने मामला फिर हाईकोर्ट को लौटा दिया तो वही बेचैनी हावी हो गई।

मुजफ्फरनगर गर्भनाल की तरह मुझसे जुड़ा है। मम्मी-पापा और बच्चे वहीं रहते हैं। 'फैसले की घड़ी'जैसे-जैसे नजदीक आती गई, जान सूखती चली गई। मैं दिल्ली में, बच्चे और मां-पिताजी वहां। मुजफ्फरनगर के कुछ मुस्लिम दोस्तों की टोह ली। वे भी हलकान मिले। हिंदुओं को टटोला, वहां भी बेचैनी का आलम। बस एक सवाल सबको मथे जा रहा था कि 'तीस सितंबर'को क्या होगा। कुछ और लोगों से बात हुई तो पता चला कि पुलिस वाले गांव-गांव जाकर उन लोगों के बारे में जानकारियां इकट्ठा कर रहे हैं, जिनकी छह दिसंबर, 1992 के घटनाक्रम के बाद भड़के दंगों में भूमिका थी या जो इस बार भी शरारत कर सकते थे। इस दौरान एक-दो बार मुजफ्फरनगर के चक्कर भी लगा आया। लोग बेहद डरे-सहमे मिले। उन्हें लग रहा था कि तीस तारीख को फैसला आते ही न जाने क्या हो जाएगा।

सबको एक ही फिक्र खाए जा रही थी कि 'छह दिसंबर'न दोहरा दिया जाए। लोगों को लग रहा था कि शैतान का कुनबा फिर सड़कों पर निकल आएगा। पथराव होगा,आगजनी अंजाम दी जाएगी, अस्मत लुटेगी,खून बहेगा। खैर 'तीस सितंबर' भी आ गया । उस दिन मैं गाजियाबाद स्थित 'एक कदम आगे'के कार्यालय में बैठा था। देश के लाखों लोगों की तरह मैं भी टीवी से चिपका था। खंडपीठ के निर्णय सुनाने के कुछ ही देर बाद हिंदू संगठनों के वकील और उनके कथित प्रतिनिधि न्यूज चैनलों पर नमूदार हो गए। 

जजों ने  फैसले की व्याख्या जिस अंदाज में शुरू की, उसने सभी को डराकर रख दिया। कई चैनल ऐसे भी थे,जिन्होंने समझदारी से काम लिया और फैसले की प्रमुख बातों को समझने के बाद ही मुंह खोला।। बहरकैफ,इस दौरान मैं लगातार मुजफ्फरनगर के लोगों के संपर्क में रहा। इस बीच, खबर आई की मुजफ्फरनगर जिले की हवाई निगरानी भी हो रही है। सुरक्षा प्रबंधों से साफ हो गया था कि शासन ने मुजफ्फरनगर जनपद को संवेदनशील जिलों में शायद सबसे ऊपर रखा था। राज्य सरकार कोई रिस्क नहीं लेना चाह रही थी।

ढहाए जाने से पहले बाबरी मस्जिद
 मैं घबराकर इंटरनेट की तरफ लपका। मेरी हैरत की इंतहा नहीं रही,जब मैंने  पाया कि ट्वीटर,फेसबुक और जीटॉक के अलावा ब्लाग्स पर 'जेनरेशन नेक्स्ट' अपना वर्डिक्ट दे रही थी, अमन, एकजुटता और भाईचारे का 'फैसला'। एक भी ऐसा मैसेज नहीं मिला जो नफरत की बात कर रहा हो। पहले तो यकीन नहीं हुआ,फिर इस एहसास से सीना फूल गया कि देश का भविष्य उन हाथों में है, जो हिंदू या मुसलमान नहीं, बल्कि इंसान हैं। कह सकते हैं कि भविष्य का भारत महफूज हाथों में हैं। कई युवाओं ने फैसले पर ट्वीट किया था-'न कोई जीता,न कोई हारा। आपने नफरत फैलाई नहीं कि आप बाहर।'

कहीं पढ़ा था कि पुणे में घोरपड़ी गांव है,जहां मस्जिद की खिड़की हिंदू मंदिर में खुलती है। अहले-सुन्नत जमात मस्जिद और काशी विशेश्वर मंदिर को अगर जुदा करती है,तो बस ईंट-गारे की बनी एक दीवार। एक और रोचक तथ्य इस दोनों पूजास्थलों के बारे में यह है कि जब बाबरी विध्वंस के बाद पूरे देश में दंगे भड़क रहे थे,पुणे में दोनों समुदाय के लोगों ने मिलकर मंदिर का निर्माण कर रहे थे। निर्माण के लिए पानी मस्जिद से लिया जाता था। याद आया कि ऐसी ही शानदार नजीर हम मुजफ्फरनगर वाले काफी पहले पेश कर चुके हैं।

कांधला में जामा मस्जिद और लक्ष्मी नारायण मंदिर जमीन के एक ही टुकड़े पर खड़े होकर 'धर्म के कारोबारियों' को आईना दिखा रहे हैं। माना जाता है कि मस्जिद 1391 में बनी थी। ब्रिटिश शासनकाल में मस्जिद के बगल में खाली पड़ी जमीन को लेकर विवाद हो गया। हिंदुओं का कहना था कि उस स्थान पर मंदिर था। मामला किसी अदालत में नहीं गया। दोनों फिरकों के लोगों ने बैठकर विवाद का निपटारा कर दिया।

तब मस्जिद के इंचार्ज मौलाना महमूद बख्श कंधेलवी ने जमीन का वह टुकडा हिंदुओं को सौंप दिया। वहां आज लक्ष्मी नारारण मंदिर शान से खड़ा है। मंदिर में आरती होती है और मस्जिद से आजान की आवाज बुलंद होती है। सह-अस्तित्व की इससे बेहतर मिसाल और क्या होगी। यह है हिंदुस्तान और हिंदुस्तानियत की मिसाल।


लेखक  पश्चिमी उत्तर प्रदेश से निकलने वाले हिंदी पाक्षिक  अखबार 'एक कदम आगे'के संपादक हैं और सामाजिक मसलों पर लिखते हैं.  उनसे satyajeetchaudhary@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.



4 comments:

  1. ध्रुवनाथ, लखनऊFriday, October 15, 2010

    एक अनजान सी बात को सामने लाने के लिए बधाई. सत्यजीत जी अगर ऐसा हो तो बहुत अच्छा रहेगा मगर अमन के दुश्मन ऐसा जो नहीं चाहते हैं.

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  2. मस्जिद की बग़ल में ज़मीन का टुकड़ा कंधेलवी साहब ने मन्दिर बनाने के लिए सौंप दिया और सब ने ख़ास तौर पर युवाओं ने हाई कोर्ट के फ़ैसले का स्वागत किया -- इन बातों को लिख कर आपने सिर्फ़ एक बात उजागर की है कि आस्था के आगे इतिहास की कोई वक़अत नहीं है. एक ध्वनि यह भी निकलती है कि मौलवियों को बाबरी मस्जिद का जो हिस्सा हाई कोर्ट ने दिया है, उसे वे अपनी ख़ुशी से हिन्दुओं को सौंप दें तो क्या ही बात हो. मुज़फ़्फ़र्नगरियों से तो अयोध्या के नौजवान अच्छे जिन्हों ने कहा कि न मन्दिर बनाइये, न मस्जिद, वहां स्कूल, हस्पताल या ऐसी ही कोई चीज़ बनाइये. पर उन्की बात सुनेंगे तो दैर-ओ-हरम में तफ़र्क़े डालने वालों का क्या बनेगा ? प्यरे, जब तक दंगे-फ़साद की बुनियाद नहीं खत्म होगी तब तक आपकी दी हुई मिसालों के बाद भी ख़ौफ़ तारी रहेगा.

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  3. hiraval morcha se sahmat. ek banaras men gyanvapi masjid hai, vahan ka ragada aajtak khatma na hua. isliye in udaharnon se baat banegi ismen sandeh hai.

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  4. संदीप कुमारFriday, October 15, 2010

    हिरावल मोर्चा और राहुल आप दोनों किसी हो रहे पहल का स्वागत कीजिये. आलोचना करना बहुत आसन होता है मगर उसको अमल में लाना मुश्किल. इसलिए कांधला हो या कहीं और अगर ऐसा है तो दिल से बधाई. सत्यजीत आपने अच्छी जानकारी दी और अच्छे से लिखा भी है.

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