Dec 7, 2010

अयोध्या फिल्म महोत्सव 19 दिसम्बर से



अयोध्या फिल्म महोत्सव अपने चौथे संस्करण की दहलीज पर है। 2006 से शुरु हुआ यह सिलसिला दरअसल अपने शहर की पहचान को बदलने की जद्दोजहद का परिणाम था। उस पहचान के खिलाफ जो फासीवादी सियासत ने गढ़ी थी और जिसके चलते लोग गुजरते वक्त को इससे गिनते थे कब यहां नरबलियां हुयी,कब हमारे आशियानें जलाए गए,कब घंटों की आवाज सायरनों में तब्दील हो गयी और रंग-रोगन वाली हमारी सौहार्द की संस्कृति के सब रंग बेरंग हो गए। 

इस सिलसिले की शुरुआत ने धीरे-धीरे ही सही शहर के स्मृति पटल पर अपनी उम्र गिनने का एक नया अंकगणित गढ़ना शुरु कर दिया,आज हम कह सकते हैं कि हमने कब से ‘प्रतिरोध की संस्कृति और अपनी साझी विरासत’का जश्न मनाने के लिए फिल्म महोत्सव शुरु किया था। कब आवाम के सिनेमा के इस सिलसिले ने अपना राब्ता राम प्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्ला खान की साझी विरासत-साझी शहादत से जोड़ ली।

इस सफर में हमने दुनिया भर के लोगों के सघंर्षों,उन संघर्षों के सतरंगी आयामों को समझाने वाली फिल्मों का प्रदर्शन ही नहीं किया बल्कि इस आयोजन से प्राप्त ऊर्जा ने हमसे ‘राइजिंग फ्राम दि ऐशेज’जैसी फिल्म भी दुनिया के सामने अपने शहर की वास्तविक छवि को रखने के लिए बनवाई।

 यह फिल्म पचहत्तर वर्षीय उस शरीफ चचा की कहानी है जो बिना धर्मों का फर्क किए लावारिस लाशों को मानवीय गरिमा प्रदान करते हैं। आखिर गंगा-जमुनी तहजीब और धार्मिक सौहार्द के इस शहर की आत्मा भी तो यही है। इस सफर में हमारा खास जोर फिल्म माध्यम से जुड़े नए और युवा साथियों को अपना हमसफर बनाना भी रहा। जिसके तहत हमने पिछले साल ‘भगवा युद्ध’ और ‘साइलेंट चम्बल’ फिल्मों को जारी किया।

आवाम के सिनेमा के इस सफर में शहर के बाहर से फिल्मकार और सृजनात्मक आंदोलनों में लगे साथियों ने अपने खर्चे से इस आयोजन में शामिल होकर हमारा हौसला बढ़ाया। और हमें इसे और बेहतर और व्यापक बनाने के लिए प्रोत्साहित किया।

साथियों, आगामी 19 से 21 दिसंबर2010 तक हाने वाले तीन दिवसीय इस फिल्म महोत्सव का आयोजन अयोध्या-फैजाबाद में होने जा रहा है,ऐसे में इतिहास में नया अंकगणित गढ़ने और लोकतांत्रिक ढांचे को कमजोर करने वाली ताकतों को शिकस्त देने के लिए आप हमारे इस सफर में हमसफर हों।

 प्रस्तुति : शाह आलम



लावारिशों के वारिस


पिछले दो दशकों के इतिहास में जिस अयोध्या को मैंने लाशों के सौदागरों की राजधानी के रुप में जाना था,वहां लाशों के वारिस की मौजूदगी ने दिमाग में इस सवाल को पैदा किया कि आखिर मो0 शरीफ क्यों नहीं कभी प्राइम टाइम में राष्ट्रीय उत्सुकता का विषय बने...

राजीव यादव

अयोध्या यानी पिछले दो दशकों का ‘प्राइम टाइम आइटम’। इस नाम के आने के बाद ही हमारे मस्तिष्क में अनेकों छवियां बनने लगती हैं। पर पिछले दिनों मात्र पन्द्रह मिनट की डाक्यूमेंट्री फिल्म ‘राइजिंग फ्रॉम द एशेज’ ने जो छवि हमारे दिमाग में बनायी उसने हर उस मिथकीय इतिहास की छवि को धुधंला कर दिया। यह फिल्म अयोध्या के मो0 शरीफ के जीवन पर आधारित है, जो लावारिस लाशों के वारिस हैं।

जो परिचित हैं वह शरीफ चाचा कहते हैं और जो कामों से जानते हैं वह लाशों वाले बाबा बोलते हैं। फैजाबाद रेलवे स्टेशन पर उतरकर किसी से इन दोनों में से किसी संबोधन से उनके बारे में पूछिये तो घर पहुंचाने वाले बहुतेरे मिल जायेंगे। और उनके कामों की मिसाल देने वालों का तो कोई अंत ही नहीं कि लोग कहते हैं जिसका कोई नहीं होता उसके शरीफ चाचा होते हैं।

शरीफ चाचा पेशे से एक साइकिल मिस्त्री हैं। शहर में उनकी ‘मोहम्मद शरीफ साइकिल मिस्त्री’के नाम से एक झोपड़ीनुमा दुकान है जिसमें बेटे के साथ मिलकर रोज वह डेढ़ से दो सौ कमा लेते हैं। ऐसे कमाने वाले देश में करोड़ों हैं,फिर शरीफ चाचा ने ऐसी क्या इंसानी पहचान बनायी है जिसकी वजह से वह फैजाबाद की 28लाख आबादी के बीच सर्वाधिक कद्र के काबिल माने जाते हैं।

शहर  में तैनात किसी अफसर-हुक्मरान से पूछिये,मैदान में खेल रहे बच्चों से कहिये,राह चलते मुसाफिरों को बताइये सब उन्हें सलाम बोलते हैं। लोग कहते हैं शरीफ चाचा आदमी की पहचान धर्मों,जातियों और ओहदों से नहीं सिर्फ आदमी होने से करते हैं। जाहिर है फैजाबाद के वाशिंदों के लिए इससे बड़ी सामाजिक नेमत और क्या हो सकती है जहां इंसानी पहचान को बरकार रखने वाला आदर्श उनके बीच हो।


लावारिशों के वारिस

पिछले दो दशकों के इतिहास में जिस अयोध्या को मैंने लाशों के सौदागरों की राजधानी के रुप में जाना था,वहां लाशों के वारिस की मौजूदगी ने दिमाग में इस सवाल को पैदा किया कि आखिर मो0शरीफ क्यों नहीं कभी प्राइम टाइम में राष्ट्रीय उत्सुकता का विषय बने।

फैजाबाद के खिड़की अली बेग मुहल्ले के रहने वाले चचा शरीफ साइकिल मिस्त्री हैं,पर ये सिर्फ उनकी जिंदगी का आर्थिक जरिया है,मकसद नहीं। मकसद,तो हर सुबह की नमाज  के बाद ऐसी लाशों को खोजने  का होता है, जो किसी रेलवे टै्क,सड़क या फिर अस्पताल में लावारिश होने के बाद अपने वारिस चचा शरीफ का इंतजार कर रही होती हैं।

चचा के ऐसा करने के पीछे एक बहुत मार्मिक कहानी है,जो व्यवस्था की संवेदनहीनता से उपजी है। दरअसल, अठारह साल पहले चचा के बेटे मो0 रईस की जब वो सुल्तानपुर गया था, किसी ने हत्या करके लाश फेंक दी थी, जिसे कभी ढूंढा नहीं जा सका। तभी से चचा ऐसी लावारिश लाशों को उनका मानवीय हक दिला रहे हैं।

 वे कहते हैं ‘हर मनुष्य का खून एक जैसा होता है, मैं मनुष्यों के बीच खून के इस रिश्ते पर आस्था रखता हूं। इसलिए मैं जब तक जिंदा हूं किसी भी मानव शरीर को कुत्तों से नुचने या अस्पताल में सड़ने नहीं दूंगा।’ बानबे के खूनी दौर में भी चचा ने अस्पतालों में भर्ती कारसेवकों की सेवा की। इसी तरह अयोध्या की रामलीला में लंबे अरसे से हनुमान का किरदार निभाने वाले एक अफ्रीकी नागरिक जब लंका दहन के दौरान बुरी तरह जल गए तब किसी भी ‘राम भक्त’ ने उनकी सुध नहीं ली ऐसे में चचा ने उसकी सेवा की।
शरीफ चाचा पर बनी फिल्म
 चचा ने अयोध्या-फैजाबाद को लावारिस लाशों की जन्नत बना दिया है। अब तक सोलह सौ लाशों को उनके धर्म के अनुसार दफन और सरयू किनारे मुखाग्नि देने वाले चचा को सरयू लाल हो गयी वाली पत्रकारिता ने इतिहास में अंकित न करने की हर संभव कोशिश की। पर शाह आलम,शारिक हैदर नकवी,गुफरान खान और सैय्यद अली अख्तर ने ‘राइजिंग फ्रॉम द एशेज’ के माध्यम से उन्हें इतिहास में सजो दिया है।

बहरहाल,अयोध्या फैसले के बाद लोग क्या सोच रहें हैं,यह जानने की उत्सुकता में मैंने बहुतों से बात की। अंशु जिसने एक बार बताया था कि जब बाबरी विध्वंस हुआ था तो उसके आस-पास घी के दीपक जलाए गए थे,जिसका मतलब तब वो नहीं समझ पायी थी। लेकिन जब आज वो बड़ी हो गयी ह,ै तो मैंने उससे जानना चाहा कि इस फैसल पर घर वाले क्या सोच रहे हैं? तो उसने कहा, ‘मैं एक ओर थी और सब एक ओर।’ इस पर मैंने उससे पूछा कि दूसरे क्या कह रहे हैं तो उसने कहा कि उनका मानना है कि फैसले ने ‘अमन-चैन’ बरकरार रखा।

आखिर क्यों आज एक तबका इस फैसले को इतिहास और तथ्यों को दरकिनार कर आस्था और मिथकों पर आधारित राजनीतिक फैसला मानता है तो वहीं दूसरा इसे अमन-चैन वाला मानता है? आखिर अमन चैन के बावजूद इसने कैसे हमारी न्यायपालिका की विश्वसनीयता,संविधान प्रदत्त धर्मनिरपेक्षता और लोकतांत्रिक मूल्य जिनके तहत आदमी और आदमी के बीच धर्म,जाति और लिंग के आधार पर किसी तरह का भेदभाव न करने का आश्वासन दिया गया है को खंडित कर दिया हैै?

अमन-चैन वाला फैसला मानने वालों में एक तबका भले ही बानबे में घी के दीपक जलाया था पर एक तबका था जो इसके पक्ष में नहीं था। पर आज बानबे में घी के दीपक जलाने वालों की जमात बढ़ गयी है। जो कल तक बाबरी विध्वंस पर घी के दीपक जलाते थे,आज वो इसे अमन चैन की बहाली कहते हैं,जिसे अब न्यायिक तौर पर भी वैधता मिल गयी है।

यानी शासक वर्ग ने अपने लिए एक नयी तरह की जनता का निर्माण किया है,जिसे अब आक्रामक होने की भी जरुरत नहीं है,क्योंकि न्याय के समीकरण उसके साथ हैं। ठीक इसी तरह पिछले कुछ वर्षों से हमारे यहां युवा राजनेताओं की बात हो रही है कि अब भारत युवाओं का देश है। क्या इससे पहले आजादी के बाद देश के सबसे बड़े आंदोलन नक्सलबाड़ी और जेपी आंदोलन के दौरान यह युवाओं का देश नहीं था? था लेकिन अब शासक वर्ग को अपने युवराज की ताजपोशी करनी है सो अब भारत युवाओं का देश है।

शरीफ चाचा: पूरा जीवन ही एक मुहीम
 इस जनता निर्माण में न्यायपालिका की भाषा भी शासक वर्ग की हो गयी है। जैसे राम लला अपने स्थान पर विराजमान रहेंगे। राम हिंदू समाज की पहचान हो सकते हैं, लेकिन 1949 में बाबरी मस्जिद में रखे गए राम लला हिंदू नहीं बल्कि हिंदुत्ववादी विचारधारा वाले अपराधिक गिरोह की पहचान हैं,जिस पर एफआईआर भी दर्ज है। ठीक इसी तरह मीडिया भी यह कह कर पूरे हिंदू समाज को राम मंदिर के पक्ष में खड़ा करती है कि अयोध्या के संत राम मंदिर बनाने के लिए एक जुट होंगे।

राम मंदिर के पक्ष वाले हिंदुत्वादी संत,पूरे संत समाज का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते। क्योंकि अयोध्या में संतों का एक तबका इन हिंदुत्ववादियों का विरोध करता है। पर हमारी मीडिया ने हिंदू धर्म को हिंदुत्व जैसे फासिस्ट विचारधारा का पर्याय बना दिया है। इसी तरह पिछले दिनों इंदौर में संघ के पथ संचलन के दौरान मुस्लिम महिलाओं द्वारा फूल फेकने वाले अखबारी चित्रों में कैप्सन लगा था-एकता का पथ।




पत्रकार राजीव यादव उत्तर प्रदेश मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल के संगठन  सचिव हैं. राज्य में साम्प्रदायिकता के खिलाफ हल्ला बोलने वालों में राजीव एक महत्वपूर्ण कड़ी हैं.उनसे media.rajeev@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

Dec 6, 2010

हम हैं घोटालों के 'सरदार'


 
मिस्टर क्लीन की उपाधि से नवाजे जाने पर खुश होने वाले पीएम साहब से सवाल है कि जब यह सब उनकी नाक के नीचे उनकी टीम में शामिल डीएमके के मंत्री द्वारा धमाका  कर किया गया तो उस वक्त आपकी बोलती बंद क्यों रही?

पंकज कुमार

 
देश में एक के बाद एक बड़े घोटालों को देखकर ऐसा लगता है कि सरकार को अलग से घोटाला मंत्रालय बनाना चाहिए या फिर घोटालों को वैधानिक मान्यता दे दी जानी चाहिए। एक  लाख ७७ हजार करोड़ का 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला,७० हजार करोड़ से ज्यादा का कॉमनवेल्थ घोटाला,करोड़ों रूपए का आदर्श सोसाइटी और आईपीएल घोटाला।जब देश में कानून और लोकतांत्रिक पद्धति से चुनी गई सरकार इन पर नकेल न डाल सके,ऐसे भ्रष्टाचारियों के आगे घुटने टेकते,मजबूर और लाचार दिखे, तो उम्मीद किससे की जाए?

मौजूदा दौर को देखकर ऐसा कहा जा सकता है कि नैतिकता ताक पर रख दी गई है। इस वक्त जो नैतिकता पर हावी है या फिर कहे की शक्तिमान है थ्री-पी (3च्)यानी पॉवर,पैसा और पॉलिटिक्स। वर्तमान समय में थ्री-पी शक्तिशाली है, ऐसे में जनसरोकार की बाते बेईमानी और बौनी नजर आती है। जो शक्तिशाली होता है वही इतिहास लिखता है और नायक,नायिका और खलनायक वही तय करता है।


डी राजा : गुनहगार और भी हैं

 इसलिए सर्वमान्य नायकों-नायिकाओं की तलाश इतिहास में नहीं करनी चाहिए। लेकिन देश में भ्रष्टाचार का जो आलम है ऐसे वक्त में जेपी (जय प्रकाश नारायण) की याद आती है। 1977 में सत्ता के खिलाफ चलाया गया आंदोलन सिर्फ इमरजेंसी के खिलाफ ही नहीं था, बल्कि इस आंदोलन को जनता का जनसमर्थन मिला क्योंकि यह आंदोलन सत्ता में मौजूद भ्रष्टाचार के खिलाफ भी था। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या जे.पी.सरीखे नेता इस दौर में मौजूद है?

लेकिन यूपीए-टू की अध्यक्ष और देश की सबसे ताकतवर नेता सोनिया गांधी नैतिकता का पाठ मनमोहन सरकार को पढ़ाती हैं तो दूसरी तरफ उनका लाड़ला और कांग्रेस युवराज राहुल गांधी प्रधानमंत्री को बेदाग होने का सर्टिफिकेट देता हैं। वहीं मनमोहन सिंह सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर कर कहते है कि दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा।

ऐसे में मिस्टर क्लीन की उपाधि से नवाजे जाने पर खुश होने वाले पीएम साहब से सवाल है कि जब यह सब उनकी नाक के नीचे उनकी टीम में शामिल डीएमके के मंत्री द्वारा धमाका  कर किया गया तो उस वक्त आपकी बोलती बंद क्यों रही?अब जब देश की गरीब जनता की कमाई स्विस बैंकों तक पहुंच गई है तो अब आप क्या तीर मार लेंगे?कहते है कि इतिहास से सबक लेना चाहिए। लेकिन कांग्रेस सबक लेना नहीं चाहती। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के 1977 का भ्रष्ट दौर हो, राजीव गांधी का बोफोर्स कांड (1986)या फिर 1991 में कांग्रेस शासित पीवी नरसिम्हा की सरकार,सभी को जनता ने वनवास की सजा दी।

इतना ही नहीं गरीबों के नाम पर गरीबी के साथ सत्ता में रहते हुए भाजपा ने जो कुछ किया,उसकी सजा भुगत रही है। जनता ने भ्रष्टाचार और गरीबी मिटाने का मुखौटा ओढ़े वाजपेयी सरकार को ऐसी सजा दी कि वो अब तक सजा भुगत रही है। तभी तो इतने बड़े मुद्दे,सामने होते हुए भी जनता इस विपक्ष को चवन्नी भर का भाव देने के लिए तैयार नहीं है। ऐसे में कांग्रेस के मिशन 2014 का क्या होगा, उसकी रिपोर्ट जनता खुद-ब-खुद तैयार कर रही होगी।

ऐसे में हरिवंश राय बच्चन की कविता याद आती है जिसमे वो कहते हैं-बैर कराते है मंदिर-मस्जिद, मेल कराती मधुशाला। वैसे ही राजनीति में कुर्सी की लड़ाई नेताओं और पार्टियों के बीच दरार भले ही ला दे, लेकिन जब बात भ्रष्टाचार की आती है तो सभी नेता एक साथ मयखाने में नजर आते हैं। भ्रष्टाचार को लेकर सभी एक-दूसरे पर पत्थर फेंक रहे हैं लेकिन इन्हें कौन बताए कि पत्थर फेंकने से पहले खुद का शीशे से बना घर भी देख लेने चाहिए।

आपको यकीन न हो तो एक नजर आजादी के बाद से अबतक के बड़े घोटालों पर नजर डाल लेते हैं- जीप घोटाला (1948), साइकिल आयात घोटाला (1951), मुंध्रा मैस (1957-58), तेजा लोन (1960), पटनायक मामला (1965), नागरावाला घोटाला (1971), मारूति घोटाला (1976), कुओ ऑयल डील (1976), अंतुले ट्रस्ट (1981), एचडीडब्ल्यू सबमरीन घोटाला (1987), बिटुमेन घोटाला, तांसी भूमि घोटाला, सेंट किट्स केस (1989), अनंतनाग ट्रांसपोर्ट सब्सिडी स्कैम, चुरहट लॉटरी स्कैम, बोफोर्स घोटाला (1986), एयरबस स्कैंडल (1990), इंडियन बैंक घोटाला (1992), हर्षद मेहता घोटाला (1992), सिक्योरिटी स्कैम (1992), सिक्योरिटी स्कैम (1992), जैन (हवाला) डायरी कांड (1993), चीनी आयात (1994), बैंगलोर-मैसूर इंफ्रास्ट्रक्चर (1995), जेएमएम संासद घूसकांड (1995 ), यूरिया घोटाला (1996), संचार घोटाला (1996), चारा घोटाला (1996), यूरिया (1996), लखुभाई पाठक पेपर स्कैम (1996), ताबूत घोटाला (1999) मैच फिक्सिंग (2000), यूटीआई घोटाला, केतन पारेख कांड (2001), बराक मिसाइल डील, तहलका स्कैंडल (2001), होम ट्रेड घोटाला (2002), तेलगी स्टाम्प स्कैंडल (2003), तेल के बदले अनाज कार्यक्रम ( 2005), कैश फॉर वोट स्कैंडल (2008), सत्यम घोटाला (2008),मधुकोड़ा मामला (2008), आदर्श सोसाइटी मामला (2010), कॉमनवेल्थ घोटाला (2010), 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला।

मिस्टर क्लीन: गन्दगी गहरी है
घोटालों,भ्रष्टाचार की इस सूची के बाद भी सफेदपोश नेता और पार्टियां तू चोर-तो तू चोर नहीं, बल्कि तू बड़ा चोर और मैं छोटा साबित कर जनता के सामने सद्चरित्र दिखने की कोशिश में जुटी है। ऐसे में कहा जा सकता है कि भ्रष्टाचार सर्वजाति है चाहे वह देश हो या विदेश। सभी जगह स्वीकार्य हो गयी है। इससे को लेकर न कोई जात है, न अमीरी है न गरीबी। यह सभी को लुभाता है और हालिया सर्वे इस पर मुहर भी लगाता है। 2010में संस्था ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल द्वारा किया सर्वे चौंकाने वाला है।

सर्वे बताता है कि 178 देशों में से एक तिहाइ देश भ्रष्टाचार से बुरी तरह त्रस्त हैं। भारत भी उन देशों में से एक हैं। सर्वे बताता है कि भ्रष्टाचार,घूसखोरी ने कैसे देश की छवि को धूमिल किया है। मौजूदा वर्ष में 2जी स्पेक्ट्रम, कॉमनवेल्थ,आईपीएल घोटालों की वजहों से भ्रष्ट मुल्कों की सूची में भारत चार चांद लगाते हुए 87वे पायदान पर है। देश में करप्शन का आलम क्या है,इसका अंदाजा सर्वे से जुटाए आंकड़ों को देखकर लगता है। सर्वे बताता है कि मुल्क में घूसखोरी हर स्तर तक फैली हुई है। भारत में 86 फीसदी लोग रिश्वत मांगते है।

जो जितने बड़े पद पर है वह उतना ही बड़ा रिश्वतखोर है। सर्वे के मुताबिक 91प्रतिशत रिश्वत सरकारी कर्मचारियों द्वारा मांगी जाती है,जिनमें सबसे ज्यादा घूस यानी 33फीसदी केंद्र में मौजूद नौकरशाह मांगते है। दूसरे नंबर पर पुलिस हैं जो 30 फीसदी के करीब हैं। सवाल यही आकर खत्म नहीं होता। जब लोगों से यह पूछा गया कि उनसे कितनी बार घूस मांगी गई, तो 90 फीसदी लोगों का कहना था कि उन्हें दो से बीस बार तक घूस देने के लिए मजबूर किया गया।

ऐसे में जेपी का वो दौर याद आता है जो 1977के छात्र आंदोलन से शुरू होकर व्यवस्था परिवर्तन के आंदोलन में बदल जाता है। राजनीतिक क्षेत्र में जे.पी. सत्ता के विकेन्द्रीकरण के प्रबल पक्षधर थे। वे चाहते थे कि प्रत्याशियों का चयन तथा सत्ता पर नियंत्रण जनता के द्वारा होना चाहिए। वे लोक चेतना के द्वारा जनता को जगाकर उसे लोकतंत्र का प्रहरी बनाना चाहते थे। ताकि कर्मचारी से लेकर डीएम,सीएम और पीएम तक सबके कामकाज पर निगरानी रखी जा सके।

वे चाहते थे कि जन प्रतिनिधियों को समय से पूर्व वापस बुलाने का अधिकार उस क्षेत्र की जनता को मिले ताकि जन प्रतिनिधियों को अपने क्षेत्र की जनता के प्रति जवाबदेह बनाया जा सके। यह अलग बात है कि जे.पी.आंदोलन के गर्भ से निकले छात्र नेता स्वर्गीय चंद्रशेखर,लालू यादव, रामविलास पासवान,सुबोधकांत सहाय,यशवंत सिन्हा जैसे नेता कांग्रेस और बीजेपी की गोद में जाकर, सत्ता की चकाचौंध में इस तरह डूबे की जे.पी. की संपूर्ण क्रांति को ही भूल गए।


लेखक 'शिल्पकार टाइम्स' हिंदी  पाक्षिक  अख़बार में सहायक संपादक है उनसे kumar2pankaj@gmail.comपर संपर्क किया जा सकता है.





Dec 4, 2010

तैंतालिस हजार में बेच दी बीबी


तो अब 43हजार रुपये दो और दुल्हन ले जाओ. कुछ इसी तरह से एक पति से दूसरे पति तक दुल्हन भेजने की नाता प्रथा आज भी राजस्थान में प्रचलित है। राजीमंदी से यह प्रथा समाज को मान्य भी है। इसके लिए बकायदा पंचायत भी बैठती है।

 ऐसा ही एक ताजा मामला राज्य के झालावाड़ जिले के भवानीमंडी में शुक्रवार को सामने आया। पहले किसी और के संग ब्याही गई को दूसरे की दुल्हन बनाना तब मंजूर किया गया,जब उसके पिता ने  43 हजार रुपया देना मंजूर किया।

शुक्रवार को क्षेत्र के मैला मैदान में नायक समाज करीब ढाई-तीन सौ लोगों की पंचायत हुई। कारण कि एक महिला अपने पहले पति को छोड़ दूसरे पति के साथ रहना चाहती थी। इसको लेकर हो रहे झगड़े की गुत्थी को सुलझाने के लिए पंचायत ने मंथन किया। रास्ता नाता प्रथा से निकला। समस्या सुलझी। कहीं कोई विवाद नहीं हुआ।

पंचायत में उपस्थित पहले पति के पिता भानपुरा थाना के खेरखेड़ी गांव के निवासी प्रभुलाल ने बताया कि उसके पुत्र राजू की शादी उसके ही थानाक्षेत्र के रामनगर निवासी नंदा के बेटी पिंकी के साथ करीब 12-13वर्ष पूर्व बचपन में हुई थी। विवाह के बाद उसकी बहु दो चार बार उसके घर भी आई थी। आखिरी बार उसकी बहु एक साल पूर्व घर आई थी। उसके बाद लड़की के पिता ने  लड़की को मेरे यहाँ नहीं भेजा और  पिंकी की शादी  हड़मतियां गांव के मुकेश पुत्र पर्वत नायक से कर दी.


नायक समाज की पंचायत के बीच लाल घेरे में पड़ा लकड़ी का बंधन

गाँव के सरपंच भवानीराम नायक मुताबिक, 'जब पिंकी की शादी राजू से हुई थी,तब राजू के पिता ने जो रकम चढ़ाई थी,वह रकम पिंकी की शादी में  पिता के दिये दहेज के बदले आटे साटे यानी बराबर हो गई। अब पिंकी जहां दूसरी जगह शादी कर गई है, वह पक्ष पहले पति यानी कि राजू को 43हजार रुपये हर्जाने के रूप में चुकाएगा। इसके लिए दोनों पक्षों की लिखित में समझौता हुआ। दूसरे पति ने १३ हजार रुपये मौके पर दिये तथा ३० हजार रुपये बैशाख महीने में देने का वायदा किया है।

पंचायत  में परंपरा है कि दोनों पक्षों की ओर निशानी के तौर पर दो लकड़ियां बाँध कर बीच में रख दी जाती  हैं.  लकड़ियों को आपस में बांध कर उसे एक शाल में लपेट कर रखा जाता है.समाज के लोगों ने बताया कि इन  दो लकड़ियों में एक लकड़ी  लड़का पक्ष तथा दूसरी लड़की पक्ष का प्रतिनिधित्व करती हैं. साथ ही पंचायत की कार्रवाई के दौरान दोनों पक्षों को  कुछ भी बोलने का अधिकार नहीं होता है और । इसी परम्परा कोमानते हुए दोनों ही पक्षों ने पंचायत के निर्णय पर कोई आपत्ति दर्ज नहीं कराई। पंचों के फैसले को दोनों पक्षों को राजीमर्जी से स्वीकारा।

क्यों होता है झगड़ा

स्थानीय लोगों का कहना है कि आज भी कई समाज में आज भी बाल विवाह हो रहे हैं। नन्ही उम्र में मासूमों को वैवाहिक बंधन में बांध दिया जाता है। नन्हीं उम्र के विवाहित जोड़े जब बड़े होते हैं, तब उनके विचार आपस में मेल नहीं खाते हैं। इससे बचपन के बंधे रिश्ते में खटाश आ जाती है। इस स्थिति से निपटने के लिए समाज में रास्ता भी निकाला है। जब जोड़े एक दूसरे को पसंद नहीं करते हैं तो लड़की का पिता लड़की की सहमती से लड़की को दूसरी जगह यानी कि किसी दूसरे व्यक्ति के घर भेज देता है। इस प्रथा को नाता प्रथा कहते हैं। इसके बाद पहले पति दूसरे पति पर जो हर्जानापूर्ति का दावा करता है, उसे स्थानीय भाषा में झगड़ा कहा जाता है।

समझौते का रास्ता है यह झगड़ा

इस प्रथा का नाम जरूर झगड़ा है। यदि इस पर समाज की मौजूदगी में पंच पटेलों ने अपनी सहमती दे दी तो झगड़ा समझौते में बदल जाता है। एक तरह से दोनों पक्षों में सुलह हो जाती है। इसके बाद पहले पति व उसके ससुराल पक्ष तथा नये पति के परिवार में आपस में इस बात को लेकर झगड़ा फसाद नहीं करने के लिए भी पाबंद किया जाता है। लोगों का कहना है कि इस समझौते को थाना-कचहरी भी मान्य करता है।

लड़की खरीदने में बदली प्रथा

कई स्थानीय लोगों का कहना है कि एक तरह से दूसरी विवाह के रूप में प्रचालित यह प्रथा अब नई बीवी खरीदने का रूप ले चुकी है। कई बार लोग लड़की का विवाह जल्दी कर देते हैं। कुछ वर्ष गौना रखते है। इस बीच यदि कोई मालदार आदमी मोटी रकम देकर पत्नी बनाने के लिए राजी है, तो लड़की पक्ष विवाहित बेटी को नाते पर भेज देता है। इसे समाज की बैठक में पिछले लड़के को हर्जाना देकर मान्यता ले ली जाती है। जिनके पास पैसा है वे खूबसूरत लड़की को नाते में खरीद कर लाते हैं।

 प्रस्तुति- संजय

Dec 2, 2010

सिमटती जनपक्षधरता के बीच विस्तार लेता साहित्यिक छिछोरापन

अपने में मग्न,उत्तरोत्तर सत्ता और उसके प्रलोभनों के निकट जाने की फ़िक्र में ग़लतान?पिछली सदी के साठ और सत्तर के दशकों में परिवर्तन की जिन लहरों ने साहित्य को रोमांचकारी ऊंचाइयों पर पहुंचाया था उनके अलमबर्दार पुलिस के सन्दिग्ध अफ़सरों के मुसाहिब क्यों बन गये ?


नीलाभ

एक ही लेखक के अन्दर अन्तर्विरोध भी हो सकते हैं और उस लेखक की चर्चा करते हुए इन अन्तर्विरोधों की चर्चा न करने से ही वह प्रतिमा निर्माण की प्रवृत्ति उभरती है जो अन्तत: रचनाशीलता को नुक़सान पहुंचाती है. एक मिसाल देना चाहूंगा. निराला एक ओर तो "वन बेला" और महगू महगा रहा जैसी कविताएं लिखते हैं, दूसरी ओर जवाहरलाल नेहरू से इतने मुग्ध हैं कि लगातार उनसे संवाद करने की कोशिश करते रहते हैं.एक ओर वे "जल्द जल्द पैर बढ़ाओ आओ आओ" जैसी कविता लिखते हैं दूसरी ओर "शिवाजी का पत्र" नामक कविता में देश के "झुकाव" के "जातिगत" होने और "एक ओर हिन्दू एक ओर मुसलमान" के होने की कामना व्यक्त करते हैं. आर.एस, पण्डित की मृत्यु पर तो निराला कविता लिखते हैं पर अपने समय की -- और आज तक की भी -- सबसे प्रखर जनवादी धारा -- भगत सिंह और आज़ाद की क्रान्तिकारी धारा -- पर एक अजीब ख़ामोशी उनके साहित्य में दिखती है.

मैं निराला के महत्व को ज़रा भी कम कर के आंकने का हामी नहीं हूं.सिर्फ़ बुत-परस्ती की उस रवायत का विरोधी हूं जो मौजूदा संकट का एक प्रमुख कारण है और जिसे मौडलों की चर्चा करके आनन्द प्रकाश पुष्ट करते जान पड़ते हैं.अगर शुरू ही से हिन्दी में यह प्रतिमा निर्माण न होता तो शायद हिन्दी के लेखक "बड़े अग्रजों" के कृपाकांक्षी होने के चक्कर में अपने जनों से इतना दूर न चले गये होते.

इससे यह न समझा जाये कि मैं उन लेखकों की ओर से कोई सफ़ाई पेश करने की कोशिश कर रहा हूं जो सत्ता और अधिकार-तन्त्र के मुखापेक्षी हैं और अपनी जनता और वास्तविक समस्याओं से विमुख हो कर विचारशून्यता के उत्सव में जुटे हुए हैं. मैंने खुद अपने हाल के एक लेख में इन्हीं बातों का ज़िक्र करते हुए लिखा था -- "वे कौन-से कारण हैं जिनसे इस तरह का छिछोरा हल्कापन इतने बड़े पैमाने पर हिन्दी के साहित्यिक संसार में व्याप्त हो गया है ?

क्या अब चर्चा के लिए कोई गम्भीर मुद्दा नहीं बचा ?केन्द्रीय सरकार हो या प्रान्तीय सरकारें --उनके जनविरोधी क़दमों पर हिन्दी के साहित्यकारों के बीच चुप्पी क्यों छायी हुई है ?चलो माओवादियों के समर्थन से सरकारी कोप का भाजन बनने का डर हो सकता है,या उनसे वैचारिक विरोध भी,पर छत्तीसगढ़,झारखण्ड और ऊड़ीसा के आदिवासियों के दमन और उत्पीड़न के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलन्द क्यों नहीं होती ?या फिर कश्मीर में लगातार चल रही सैनिक कार्रवाई के खिलाफ़ ?इज़्ज़त के नाम पर औरतों और प्रेमी-प्रेमिकाओं की बेहुरमती और हत्याओं पर वे साहित्यकार उस रोष का दसवां हिस्सा भी क्यों नहीं व्यक्त करते जो उन्होंने महज़ "छिनाल"शब्द के प्रयोग पर व्यक्त किया है ?


सत्ता के दाहिने बने रहने की अनिवार्यता ने हिन्दी के उस परम्परागत विवेक पर क्यों पर्दा डाल दिया है जिसके अनुसार हिन्दी की मूल प्रति्ज्ञा ही शोषण और उत्पीड़न के खिलाफ़ मनुष्य के अथक संघर्ष में हिस्सेदारी; यथास्थिति का विरोध; सत्ता और उसके प्रलोभनों से किनाराकशी; और वास्तविकता की अक़्क़ासी के आत्म-संघर्ष का सामना करने की थी ?क्या कारण है कि चारों ओर मचे कोहराम और हाहाकार के बीच हिन्दी साहित्य एक जलसे की शक्ल अख़्तियार करता चला जा रहा है --अपने में मग्न,उत्तरोत्तर सत्ता और उसके प्रलोभनों के निकट जाने की फ़िक्र में ग़लतान? पिछली सदी के साठ और सत्तर के दशकों में परिवर्तन की जिन लहरों ने साहित्य को रोमांचकारी ऊंचाइयों पर पहुंचाया था उनके अलमबर्दार पुलिस के सन्दिग्ध अफ़सरों के मुसाहिब क्यों बन गये ?"

मेरी गुज़ारिश यह है कि इस पेचीदा हालत को महज़ चलताऊ ढंग से शीत-युद्ध,भूमण्डलीकरण, पुरस्कार-प्रेम, परस्पर पीठ-खुजाऊपन, अहो-अहो मार्का चर्चा, एक-ध्रुवीय दुनिया की चपेट, महा-आख्यान, आदि शब्दों का इस्तेमाल करके इन्हीं में संकट के कारणों की पहचान करना-कराना उसी फ़तवेबाज़ी का नतीजा है जिस से आनन्द प्रकाश पिछले बीस-पच्चीस बरस के लेखन और लेखकों को एक सिरे से दूसरे सिरे तक पूरी तरह ख़ारिज करते हैं.


उनके एकांगी दृष्टिकोण का पता इस बात से भी चलता है कि एक तो वे बुर्जुआ प्रवृत्तियों को रेखांकित करने के लिए सिर्फ़ कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी का ज़िक्र करते हैं. वे लिखते हैं, "हिंदी में शासक वर्ग की विचारधारा के वाहक संगठन (मसलन कांग्रेस और भाजपा के साथ-साथ व्यक्ति-लेखकों द्वारा नियंत्रित संगठन)भी हैं जहां लेखकीय उठा-पटक और क्षुद्र अवसरवादिता का बोलबाला है। लेकिन हमारे संदर्भ में उम्मीद की किरण जगाने वाले तीन वामपंथी संगठनों की प्रारंभिक आभा भी मंद होने लगी है। इनमें सबसे कमजोर प्रगतिशील लेखन संगठन है।"

क्या शासक वर्ग का प्रतिनिधित्व सिर्फ़ कांग्रेस और भाजपा द्वारा ही होता है या फिर इस का प्रतिनिधित्व सत्ता की उठा-पटक में शामिल सभी पार्टियां कमो-बेश करती हैं ?यानी वे सारी पार्टियां जो संसदीय लोकतन्त्र के ढकोसले में शामिल हैं.सम्भव है कि आनन्द प्रकाश सीपीआई और सीपीएम और सीपीआई माले लिबरेशन को बुर्जुआ पार्टियां न मानते हों,पर आपातकाल में सीपीआई की और हाल के दिनों में नन्दीग्राम, लालगढ़, सिंगुर आदि में सीपीएम की भूमिका को देखते हुए और बिहार के पिछले चुनावों में सीपीआई माले लिबरेशन के अनेक ग़ैर-कम्यूनिस्ट राजनैतिक दलों के साथ चुनावी गंठजोड़ को देखते हुए उन्हें न तो कम्यूनिस्ट पार्टियां कहा जा सकता है, न क्रान्तिकारी पार्टियां.

हम यह भी न भूलें कि जिस दौर से आनन्द प्रकाश क्षरण की शुरुआत मानते हैं उसी दौर के पहले चरण में सीपीएम ने विश्वनाथ प्रसाद सिंह की सरकार को सत्ता में बनाये रखने के लिए भाजपा के साथ हाथ मिलाया था.और विश्वनाथ प्रसाद सिंह का समर्थन सीपीआई माले लिबरेशन ने भी किया था.

ज़ाहिर है इस सब का असर भी लामुहाला साहित्यिक-सांस्कृतिक जगत पर पड़ता ही है. ख़ास तौर पर तीनों कम्यूनिस्ट पार्टियों के साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों पर और उनसे जुड़े लेखकों पर.जो सत्ता और अधिकार तन्त्र के हिमायती लेखक हैं उनसे तो कोई उम्मीद नहीं की जा सकती, पर क्या कारण है कि वाम साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों से जुड़े साहित्यकार भी बेतरह विचलन का शिकार हो गये हैं ?

उदय प्रकाश अगर महन्त अवैद्यनाथ के धोरे जाते हैं तो आलोक धन्वा विश्वरंजन की किताब के विमोचन में नज़र आते हैं.क्या इस विपथगामिता का स्रोत इन लेखकों के अन्दर है या इसमें उनके संगठनों की भी कोई भूमिका बनती है ?इसमें कोई शक नहीं है कि प्रगतिशील लेखक संघ का एक गौरवशाली इतिहास है. उसकी गिरावट के भी कारण हैं. फिर क्या कारण है कि जलेस और जसम इस गिरावट के कारणों से सबक़ लेने में विफल हुए ?

संगठनों की यक़ीनन बड़ी भूमिका होती है.लेखन की प्रक्रिया तो बेहद निजी प्रक्रिया होती है,लेकिन संगठन लेखकों के नकारात्मक पक्ष को कम करके उसके सबल पक्ष को बढ़ाते हैं.साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों की तरह समाज भी एक संगठन ही है.चूंकि संगठन मनुष्य निर्मित होते हैं इसलिए उन्हें ठस,ठोस और मोनोलिथिक मान लेने से भी गड़्बड़ी पैदा होती है.वरना क्या कारण है कि आनन्द प्रकाश आज के जिन लेखकों की पतनशीलता और विचार-शून्यता की शिकायत कर रहे हैं उनमें से नब्बे फ़ीसदी साहित्यकार उन तीन वाम साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों के सदस्य हैं या रहे हैं जिनका ऊपर ज़िक्र किया गया.

आनन्द प्रकाश ख़ुद इनमें से एक वाम साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठन के सक्रिय सदस्य रहे हैं. जब वे ऐसे सामान्यीकृत ढंग से सब कुछ नकार रहे हैं तो उन्हें ख़ुद अपनी भूमिका को भी जांचना चाहिये. उन्होंने मुक्तिबोध का नाम लिया है. ज़रा १९५७-६२ के बीच लिखी कविता "अंधेरे में" का यह अंश देखें जिसमें मुक्तिबोध एक प्रोसेशन का चित्र खींचते हैं--"विचित्र प्रोसेशन, गम्भीर क्विक मार्च... कलाबत्तूवाली काली ज़रीदार ड्रेस पहने चमकदार बैण्ड दल -- अस्थि-रूप, यकृत-स्वरूप, उदर-आकृति आंतों के जालों से उलझे हुए, बाजे वे दमकते हैं भयंकर गम्भीर गीत-स्वन-तरंगें ध्वनियों के आवर्त मंडराते पथ पर. बैण्ड के लोगों के चेहरे मिलते हैं मेरे देखे हुओं से,लगता है उनमें कई प्रतिष्ठित पत्रकार इसी नगर के !! बड़े-बड़े नाम अरे कैसे शामिल हो गये इस बैण्ड दल में !!उनके पीछे चल रहा संगीन-नोकों का चमकता जंगल,चल रही पदचाप, तालबद्ध दीर्घ पांत, टैंक दल, मोर्टार, आर्टिलरी, सन्नद्ध, धीरे-धीरे बढ़ रहा जुलूस भयावना..." और फिर इसी क्रम में मुक्तिबोध साफ़-साफ़ चित्रित करते हैं कि कैसे इस जुलूस में "चेहरे वे मेरे जाने-बूझे-से लगते,उनके चित्र समाचार-पत्रों में छपे थे, उनके लेख देखे थे, यहां तक कि कविताएं पढ़ी थीं भई वाह ! उनमें कई प्रकाण्ड आलोचक, विचारक, जगमगाते कविगण मन्त्री भी, उद्योगपति और विद्वान यहां तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात डोमाजी उस्ताद बनता है बलबन हाय हाय !!"

आनन्द प्रकाश द्वारा वर्णित परिदृश्य की तरह जान पड़ता यह चित्र आश्चर्यजनक रूप से उस युग का है जो,आनन्द प्रकाश के लेख को हवाला मानें तो,वैचारिकता से सम्पन्न था.तब क्या यह मानें कि मुक्तिबोध के आकलन में दोष था.नहीं मुक्तिबोध का आकलन सही था जैसे आनन्द प्रकाश का आकलन जहां तक तथ्यों का सवाल है आज के बारे में सही है. गड़बड़ी यह है कि मुक्तिबोध जहां अपने युग की पतनशीलता का आकलन करते हुए आगे चल कर यह लिखते हैं कि "मानो मेरी ही निष्क्रिय संज्ञा ने संकट बुलाया,"वहीं आनन्द प्रकाश अपने युग की गड़बड़ी का आकलन करते हुए आत्मालोचन से किनाराकशी कर लेते हैं.इसीलिए वे उन लोगों को चिह्नित नहीं कर पाते जो मौजूदा पतनशीलता का मुक़ाबला कर रहे हैं.


इन्हीं के लिए निराला ने कहा था --"हमारे अपने हैं यहां बहुत छिपे हुए लोग,मगर चूंकि अभी ढीला-पोली है देश में, अखबार व्यापारियों की ही सम्पत्ति हैं, राजनीति कड़ी से भी कड़ी चल रही है, वे सब जन मौन हैं इन्हें देखते हुए; जब वे कुछ उठेंगे और बड़े त्याग के निमित्त कमर बांधेंगे आयेंगे वे जन भी देश के धरातल पर,अभी अखबार उनके नाम नहीं छापते, ऐसा ही पहरा है."

यही नहीं, अपने युग की सारी आलोचना करते हुए भी नयों के प्रति निराला के दिल में जो प्यार और उम्मीद का भाव था उसे उनकी प्रसिद्ध कविता "हिन्दी के सुमनों के नाम पत्र"में सहज ही देखा जा सकता है.


आनन्द प्रकाश ने यह आरोप लगाया है कि पिछले 25-30 वर्षॊं का लेखन, कहें कि रचनाकार, "न केवल वर्तमान दौर या पिछले वक्त को समझने में यकीन नहीं रखता,बल्कि स्पष्ट रूप से समझने की क्रिया को ही अनुचित और गैरजरूरी मानता है।"उनसे पलट कर नया साहित्यकार पूछ सकता है कि महाशय जो लेखक तेभागा, तेलंगाना, नक्सलबाड़ी जैसे आन्दोलनों का प्रत्यक्षदर्शी न हो,जिसने प्रगतिशील लेखक संघ की शानदार तहरीक न देख रखी हो,जिसने ऐसे दौर में लिखना शुरू किया जब हर तरफ़ -- साहित्य ही नहीं समाज और राजनीति में भी -- भयंकर पतनशीलता हो, तब उसे वर्तमान दौर या पिछले वक्त की असलियत कौन समझायेगा? परम्परागत रूप से तो अग्रज साहित्यकार और संगठन यह करते आये हैं --ख़ुद आनन्द प्रकाश ने महावीरप्रसाद द्विवेदी और वाम लेखक संगठनों का ज़िक्र किया है --वे क्यों निष्क्रिय हो गये ?


इसलिए मैं अन्त में आनन्द प्रकाश से अनुरोध करूंगा कि व्याधि के लक्षणों का लेखा-जोखा तो काफ़ी हद तक उन्हों ने कर दिया है, पर उसके कारणों को भी ध्यान से परखें और उपचार को भी. और इसे निर्वैयक्तिक असम्पृक्ति से न करके सहानुभूतिपूर्ण लगाव के साथ करें. महज़ अयातुल्लाह ख़ुमैनी बनने या आरोप लगाने या उपदेश देने या प्रलय का पैग़म्बर बनने में कोई निस्तार नहीं है. मिट्टी तो वही है, पर अगर चाक टेढ़ा हो या कुम्हार के हाथ लरज़ते हों तो बात बनने से रही. अगर हम ने पहचान लिया है कि रोग है तब हमें ही उसका निदान और उपचार करना होगा तभी हम -- मुक्तिबोध ही की एक और कविता "भूल-ग़लती" की याद कराते हुए कहूं तो -- "उस" को पहचान सकेंगे जो "मुहैया कर रहा लश्कर; हमारी हार का बदला चुकाने आयेगा. संकल्प-धर्मा चेतना का रक्त-प्लावित स्वर, हमारे ही हृदय का गुप्त स्वर्णाक्षर प्रकट हो कर विकट हो जायेगा."

(अंतिम  किस्त)  

उपर्युक्त लेख जनज्वार में हिंदी साहित्य के सरोकारों पर चल रही बहस की अगली कड़ी है. इससे पहले बहस में शामिल हुए पांच लेखों का लिंक दिया जा रहा है. देखने के लिए  लेखों के ऊपर  क्लिक करें या कर्सर नीचे ले जाएँ...
(फतवे नहीं, सन्तुलित नज़रिया चाहिए, आनन्द प्रकाश जी,)  (साहित्य में चेलागिरी -नौकरशाही की दूसरी परम्परा, ) ("वर्तमान प्रगतिशीलता का कांग्रेसी आख्यान",)  ('पुरस्कारों का प्रताप और लेखक-संगठनों की सांस्कृतिक प्रासंगिकता"),  ( 'प्रगतिशील बाजार का जनवादी लेखक').


नीलाभ हिंदी कवि और सामाजिक-राजनितिक और साहित्यिक मसलों के टिप्पणीकार हैं,उनसे neelabh1945@gmail.com  पर संपर्क किया जा सकता है.

Dec 1, 2010

फ़तवे नहीं, सन्तुलित नज़रिया चाहिए, आनन्द प्रकाश जी


किसी भी दौर में दो तरह की प्रवृत्तियां काम करती हैं. एक जो सत्ता और "अधिकार-तन्त्र" की पिछलगुआ-  समर्थक होती हैं  और एवज़ में उससे पोषित-पुरस्कृत होती है. दूसरी -- जो सत्ता और अधिकार-तन्त्र का विरोध करती है या उससे उदासीन रह कर अपना काम करती हैं...


नीलाभ

कुछ दिन पहले वरिष्ठ लेखक और शिक्षक आनन्द प्रकाश ने दो हिस्सों में लिखे गये अपने एक लेख में हिन्दी साहित्य की मौजूदा हालत का एक जायज़ा लेते हुए कुछ सवाल उठाये हैं,कुछ विचार प्रकट किये हैं और कुछ टिप्पणियां की हैं.आनन्द प्रकाश के लेख के इन दोनों हिस्सों पर एक टिप्पणी करते हुए युवा कवि अच्युतानन्द मिश्र ने अपनी तरफ़ से हिन्दी साहित्य की वर्तमान स्थिति का लेखा-जोखा पेश किया है और इस के कुछ कारणों पर प्रकाश डाला है.

अगर सरसरी नज़र से इन लेखों-टिप्पणियों को देखा जाये तो इनमें कही गयी बहुत-सी बातों से इनकार नहीं किया जा सकता.कहा जाये कि अपने समग्र रूप में दोनों लेख उस विराट गड़्बड़ी की सैर-बीनी तस्वीर पेश करते हैं जिसे हम "आज का सांस्कृतिक संकट"के नाम से परिभाषित कर सकते हैं. यही नहीं, मोटे तौर पर यह तस्वीर काफ़ी हद तक सच्चाई से और गम्भीरता से अंकित करने की भी कोशिश आनन्द प्रकाश और अच्युतानन्द ने की है.

लेकिन अगर ज़रा गहरे में जा कर आनन्द प्रकाश के लेखों की छान-बीन करें तो जो सबसे पहली बात खटकती हैं वह इन लेखों का सर्वथा नकारवादी,फ़तवेबाज़ी से भरा रवैया है जो एक दूसरे क़िस्म की वैचारिक शून्यता और अवैज्ञानिक दृष्टिकोण की चुग़ली खाता है.उन्हें शिकायत है कि --"समकालीन हिंदी लेखन, जिससे मेरी मुराद पिछली सदी के अंतिम दो दशकों के लेखन से है, सीधे-सीधे चिन्तन-विरोधी है। वह न केवल वर्तमान दौर या पिछले वक्त को समझने में यकीन नहीं रखता,बल्कि स्पष्ट रूप से समझने की क्रिया को ही अनुचित और गैरजरूरी मानता है।"

क्या सचमुच एक पूरे दौर के सारे लेखन पर इस तरह हैंगा फेर देना किसी मुनासिब (और वैज्ञानिक,मार्क्सवादी) नज़रिये की उपज कहा जा सकता है ?वरिष्ठ लेखक और शिक्षक होने के नाते आनन्द प्रकाश ज़रूर इस बात से वाक़िफ़ होंगे कि किसी भी दौर में दो तरह की प्रवृत्तियां काम करती हैं. एक -- जो सत्ता और, आनन्द प्रकाश ही के शब्दों में कहूं तो, "अधिकार-तन्त्र" की पिछलगुआ और समर्थक होती है और एवज़ में उससे पोषित-पुरस्कृत होती है. दूसरी -- जो सत्ता और अधिकार-तन्त्र का विरोध करती है या उससे उदासीन रह कर अपना काम करती है.

 यह कोई आज के दौर का संकट नहीं है. "सन्तन को कहा सीकरी सौं काम" की उक्ति 70 या उससे पहले के किसी दशक के कवि की नहीं, बल्कि कई सौ साल पहले की है. यह खेद की बात है कि आनन्द प्रकाश ने इन दो प्रवृत्तियों के सन्दर्भ में मौजूदा संकट की छान-बीन करने और सत्ता और अधिकार-तन्त्र के उत्सवी शोर-शराबे के नीचे दबे सच्चे जनवादी सरोकारों को व्यक्त करने वाली रचनाधर्मिता की शिनाख़्त करने और उसे सामने लाने का वह दायित्व नहीं निभाया जो उनकी चिन्ताओं के सन्दर्भ में उनसे अपेक्षित था.

इस एकांगी दृष्टिकोण का परिणाम यह हुआ है कि उनका लेख भी किसी हद तक वैसी ही सतही बहसों को बढ़ाता जान पड़ता है जैसी हाल के दिनों में हिन्दी के साहित्यिक जगत में कसरत से नज़र आती रही हैं.कहीं किसी अकादेमी में किसी नियुक्ति को ले कर, किसी पुरस्कार के दिये या न दिये जाने को ले कर, किसी अधिकार-सम्पन्न साहित्यकार की अभद्र टिप्पणियों को ले कर या फिर किसी वरिष्ठ कवि द्वारा ढेर सारे निस्बतन युवा कवियों पर एक सिरे से दूसरे सिरे तक कुठाराघात करने को ले कर या फिर अब ताज़ा मामले में आनन्द प्रकाश द्वारा नकारवादी (निहिलिस्ट) शैली में लगभग 25-30 वर्षों की समूची रचनात्मकता को पूरी तरह ख्ज़ारिज करके.

आनन्द प्रकाश ने बजाय किसी सार्थक बहस को शुरू करने,मौजूदा दौर में चल रही टकराहट को साफ़ तौर पर पहचान कर सामने लाने और एक नज़ीर पेश करने की जगह आरोपों की झड़ी लगा कर एक शिकायतनामा पेश किया है और असली सवाल से कन्नी काट ली है.

इसमें कोई शक नहीं है कि संकट बढा है पर इसी के बीच सही स्वर भी मौजूद हैं.नब्बे के जिस दशक को आनन्द प्रकाश ने एक सिरे से ख़ारिज कर दिया है उसी के आरम्भ में एक युवा कवि ने "नागरिक व्यथा" जैसी कविता लिख कर संकट की पहचान करायी थी. और संकट की पहचान कराना भी उस संकट के विरुद्ध मोर्चेबन्दी में शामिल होना है.क्या आनन्द प्रकाश ने यह कविता पढ़ी है ? नहीं पढ़ी तो वे अब एकान्त श्रीवास्तव का पहला संग्रह हासिल करके पढ़ लें.और केवल एकान्त श्रीवास्तव ही का संग्रह क्यों, जिन दशकों को उन्होंने अपने लेख में कटघरे में खड़ा किया है उन की अच्छी तरह छान-बीन करके उनकी रचनाओं का मूल्यांकन वैसी ही कसौटी के आधार पर करें जिसे मुक्तिबोध ने "ज्ञानात्मक सम्वेदन और सम्वेदनात्मक ज्ञान" की कसौटी कहा है.

फ़िलहाल तो आनन्द प्रकाश ने कुछ बनी-बनायी धारणाओं के आधार पर प्रवृत्तियों और मौडलों की बात की है. इसीलिए वे अपने लेख के दूसरे हिस्से में एक और फ़तवा देते हुए कहते हैं,"रचनाकार को मालूम ही नहीं है कि वर्तमान माहौल में सामाजिक गैर-बराबरी, अशिक्षा, नारी-शोषण, बेकारी, दलितों का उत्पीड़न, गरीबी और सांस्कृतिक पतनशीलता निरंतर बढ़ रहे हैं।"

क्या सचमुच सभी रचनाकारों के सिलसिले में निर्विवाद रूप से ऐसा कहा जा सकता है?  इन्हीं फ़तवेबाज़ियों की वजह से आनन्द प्रकाश वैचारिकता की तमाम तवक़्क़ो रखने के बावजूद मौजूदा संकट को सिर्फ़ रचनाकारों के अन्दर से हल करने की उम्मीद लगाते हैं.मानो वैचारिकता से लैस और पुरस्कारों से विमुख होते और सुविधाओं से किनारा करते ही सारी समस्याएं आप-से-आप हल हो जायेंगी.वरिष्ठ चिन्तक होने के नाते वे ज़रूर यह जानते होंगे कि साहित्यिक प्रवृत्तियों और साहित्यकारों के आचरण का सम्बन्ध जिस हद तक उनके अन्दर से होता है,उतना ही उनके बाहर की स्थितियों में भी होता है.

प्लेखानोव ने "कला और सामाजिक जीवन" में बड़े विस्तार से सामाजिक परिस्थितियों और कलात्मक उद्यम के आपसी सम्बन्ध को व्याख्यायित-विश्लेषित किया है और बड़ी बारीक़बीनी से फ़्रांसीसी क्रान्ति के उत्थान-पतन के सन्दर्भ में बौदलेयर जैसे कथित रूप से "पतनशील" लेखक की जनवादिता को, भले ही उसका आयुष्य कम था, चिह्नित किया है.ज़ाहिर है कि बहुत हद तक लेखक भी समाज ही का हिस्सा होता है और प्लेखानोव के शब्दों में कहें तो अगर वह एक दौर में "कला के लिए कला" की बजाय "कला के उपयोगितावादी नज़रिये" को मानने लगता है या दूसरे दौर में इसकी उलटी दिशा अख़्तियार करता है तो इसके पीछे कुछ ठोस सामाजिक कारण होते हैं.

आनन्द प्रकाश के लेख की एक बड़ी कमज़ोरी यह भी है कि उन्हों ने एक बहुत विस्तृत और उलझे हुए विषय को अनेक प्रकार के सरलीकरणों द्वारा विश्लेषित करने की कोशिश की है, इसीलिए उनके लेख में कुछ अन्तर्विरोध भी चले आये हैं. पहला तो यह कि उन्होंने 70 के दशक तक के 60-70 वर्षों का एक काल-खण्ड बनाया है और बाक़ी 25-30 वर्षों का एक.जबकि बीसवीं सदी के अनेक दौर हैं और उनकी चुनौतियां और संकट भी अलग-अलग हैं.दूसरी बात यह है कि उन्हों ने मौडलों के सिलसिले में भी अजीब जोड़े बनाये हैं.

प्रेमचन्द और महावीरप्रसाद द्विवेदी तो चलो एक खण्ड में रख भी लिये जायें लेकिन निराला और मुक्तिबोध को एक ही तरह का मौडल बताना मेरे खयाल में ठीक नहीं है.शीत युद्ध का प्रभावी असर मुक्तिबोध की स्वीकृति पर ज़रूर पड़ा था मगर निराला उसके ज़ेरे-असर नहीं थे. दरअसल यह मौडलों की चर्चा ही बेमानी है. हर कालखण्ड में दो या उससे अधिक मौडल भी हो सकते हैं,दो तो यक़ीनन होते ही हैं --एक सत्ता और अधिकार-तन्त्र का मौडल और दूसरा जन-पक्षी मौडल.

किसी भी दौर का जायज़ा लेते हुए इन दोनों को आमने-सामने रख कर ही बात हो सकती है.बल्कि मेरी नज़र में मौडलों की जगह प्रवृत्तियों के सन्दर्भ में बात करना ज़्यादा मुनासिब है क्योंकि कोई भी रचनाकार मोनोलिथिक क़िस्म का नहीं होता.अलग-अलग चरणों में उसकी रचनात्मकता अलग-अलग रूप ले सकती है.

अज्ञेय और नयी कविता के प्रभाव से रघुवीर सहाय और सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, दोनों ही निकल कर आये थे.लेकिन रघुवीर सहाय ने,जिन्होंने पहले के दौर में लिखा था "दुनिया एक बजबजाई हुई चीज़ हो गयी है,"आगे चल कर "मेरा प्रतिनिधि" और "रामदास" जैसी कविताएं लिखीं,लेकिन वहीं तक महदूद रह जाने के कारण वे बुर्जुआ लोकतन्त्र के प्रतिपक्ष तक ही सीमित रह गये;जबकि सर्वेश्वर ने, जो "साम्यवाद और पूंजीवाद मैं दोनों पर थूकता हूं लिख चुके थे,समय के बदलते ही नक्सलवादी आन्दोलन के नज़दीक चले गये और उन्होंने "कुआनो नदी"और "किश्टा और भूमैय्या" जैसी परिवर्तनकामी कविताएं लिखीं. तो क्या हम इस परिवर्तन पर गौर  किये बिना ही उनका मूल्यांकन करेंगे ?
(लेख का अगला हिस्सा शीघ्र)



उपर्युक्त लेख जनज्वार में हिंदी साहित्य के सरोकारों पर चल रही बहस की अगली कड़ी है. यहाँ चार लेखों का लिंक दिया जा रहा है. देखने के लिए कर्सर  लेखों के ऊपर ले जाकर क्लिक करें  साहित्य में चेलागिरी -नौकरशाही की दूसरी परम्परा"वर्तमान प्रगतिशीलता का कांग्रेसी आख्यान", 'पुरस्कारों का प्रताप और लेखक-संगठनों की सांस्कृतिक प्रासंगिकता", 'प्रगतिशील बाजार का जनवादी लेखक'.


संघ जमात की नयी सांसत


आतंकी गतिविधियों में हिंदुत्ववादी संगठनों और नेताओं की संलिप्तता उजागर होने के बाद आंतकवाद के मुद्दे पर कांग्रेस की खिंचाई करने वाली भाजपा बचाव की मुद्रा में है। विस्फोटों में शामिल होने के  आरोपी स्वामी असीमानंद के पूर्व संघप्रमुख के.सुदर्शन, संघप्रमुख मोहन भागवत, गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान,विश्व हिन्दू परिषद के अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष प्रवीण तोगड़िया, साध्वी रितंभरा, साध्वी कंकेश्वरी देवी, मोरारी बापू,आसाराम बापू,शंकराचार्य, सत्यमित्रनंद जी आदि प्रमुख लोगों से अच्छे ताल्लुकात हैं...


अजय प्रकाश की रिपोर्ट...


राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के दिल्ली स्थित झंडेवालान मुख्यालय पर उत्तर भारत  के एक प्रमुख पदाधिकारी ने नौ नवंबर की शाम संघ कार्यकर्ताओं से कहा था,‘कांग्रेस के दुष्प्रचार का हमें पूरी उर्जा और जोश से विरोध करना होगा,अन्यथा ये छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी संघ की प्रतिष्ठा को आतंकवाद के बहाने धूल में मिला देंगे।’धूल में मिल जाने की यही चिंता इस वक्त पूरे संघ परिवार में बचैनी का कारण बनी हुई है और उनके नेता घब़राहट में अनाप-शनाप बयान दे रहे हैं।

ताजा उदाहरण 10 नवंबर को संघ द्वारा आयोजित कांग्रेस के खिलाफ राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शन में पूर्व सरसंघ चालक के.सुदर्शन का बयान है जिसमें उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआइए का दलाल कहा है और इंदिरा गांधी की हत्या का जिम्मेदार भी  ठहराया है। बाकियों पर संघ के इस पूर्व सेनापति का यह सुर कितना सूट करेगा वह तो बाद की बात है सबसे पहले संघ ने ही नाता तोड लिया,जबकि देश भर  में कांग्रेस और संघ कार्यकताओं के बीच ठन गयी।

काले तीर निशान से चिन्हित असीमानंद : साथ में आसाराम बापू, मोरारी बापू, के.सुदर्शन और मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी


राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ (आरएसएस)से जुड़े या उसके आनुषांगिक संगठनों की बम धमाकों में शामिल होने के आरोपों ने कांग्रेस के खिलाफ अक्सर मुखर रहने वाली भाजपा  के लिए बडी मुश्किल खडी कर दी है और आतंकवाद के मामले में भाजपा की भद्द पिटी है। हालत यह है कि कांग्रेस नेतृत्व वाले यूपीए और कांग्रेस  सरकारों के भ्रष्टाचार को उजागर करने के लिए भाजपा जैसे ही दमखम से लगती है,उसके पहले ही कांग्रेस आतंकवाद का जिन्न सामने रखकर हिंदूवादी राजनेताओं की हवा निकाल देती है।

जांच प्रक्रिया की ताजा प्रगति के मुताबिक हैदराबाद,अजमेर और मालेगांव में मुस्लिम धर्मस्थलों पर विस्फोट की साजिश के सिलसिले में स्वामी असीमानंद को उत्तराखंड  राखंड के हरिद्वार से 19नवंबर को सीबीआइ ने गिरफ्तार कर लिया है। उल्लेखनीय है कि असीमानंद को तीन राज्यों आंध्र प्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र पुलिस तलाश कर रही थी। राजस्थान पुलिस के आतंकवाद निरोधी दस्ते (एटीएस) ने असीमानंद को हिंदू कट्टरपंथियों के सरगना के तौर पर चिन्हित किया है।
असीमानंद 2006 में उस समय सर्वाधिक चर्चा में आये थे जब उन्होंने गुजरात के डांग जिले में सबरी मंदिर बनवाया और सबरीधाम कुंभ का आयोजन किया। इस आयोजन में असीमानंद ने पूर्व संघप्रमुख के.सुदर्शन,संघप्रमुख मोहन भागवत,गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, विश्व हिन्दू परिषद के अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष प्रवीण तोगड़िया, साध्वी रितंभरा, साध्वी कंकेश्वरी देवी, मोरारी बापू, आसाराम बापू, शंकराचार्य, सत्यमित्रनंद जी आदि प्रमुख लोगों का बुलाया था।

इन नामों से जाहिर है कि आरोपित आतंकी असीमानंद की भाजपा और उसके नजदीकी के संतों से गहरे ताल्लुकात रहे हैं और थे। यहां गौर करने लायक है कि जब आतंकवादी घटनाओं में किसी मुस्लिम पर संलिप्तता का आरोप खुफिया एजेंसियां लगाती हैं तो उनके संपर्क में रहने वालों को भी उठा लिया जाता है,उनके साथ भी मीडिया तकरीबन वैसा ही ट्रायल चलाती है जैसा आरोपित पर। लेकिन यहां असीमानंद से गलबहियां करने वालों पर मीडिया की चुप्पी जताती ही कि कलमनवीसों के बीच साम्प्रदायिकता  गहरे में पैठी पड़ी है।
पुलिसिया जांच के अनुसार स्वामी ने गुजरात के डांग जिले में मुख्य केंद्र बनाकर मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र के दर्जनभर से अधिक जिलों में आतंकी गतिविधियां चलायीं। जानकारी के मुताबिक स्वामी 1995में गुजरात के आहवा में आये और हिंदू संगठनों के साथ मिलकर ‘हिंदू धर्म जागरण और शुद्धिकरण’ का काम शुरू किया। इन खुलासों से विचलित संघ परिवार कांग्रेसी सरकारों की जांच और उनके नेताओं के आक्रामक बयान से बचाव की मुद्रा में खड़ा है क्योंकि उसका हर पलटवार निरर्थक साबित हो रहा है।

अजमेर धमाका: असली सरगना असीमानंद

अजमेर धमाके में पुलिस की चार्जशीट में ‘हिंदू आतंकवादी’का जिक्र जरूर एक बार भाजपा को बोलने का मौका दिया था,लेकिन अब वह मामला भी शांत हो चुका है। जो बचा रह गया है वह यह कि बार-बार आरोपपत्र में आरएसएस का नाम आ रहा है। जैसे राजस्थान एटीएस ने जिन तीन लोगों का जिक्र किया है, उनमें विभाग प्रचारक देवेंद्र कुमार गुप्ता,मध्यप्रदेश देश के शाजापुर जिला के जिला संपर्क प्रमुख चंद्रशेखर और इंदौर से संघ कार्यकर्ता लोकेश शामिल हैं। जबकि फरार अभियुक्तों में आरएसएस सदस्य और पदाधिकारी संदीप डांगे,सुनील जोशी और रामजी कलसंगरा शामिल हैं।
आश्चर्यजनक है कि हिंदू अतिवादी राजनीति के इन समर्थकों की यह आतंकी भूमिका तब उजागर हुई जब राजस्थान में भाजपा की सरकार सत्ता से बेदखल हुई। ग्यारह अक्टूबर 2007को आहता-ए-नूर के दरगाह में हुए धमाकों में तीन लोग मारे गये थे और पंद्रह लोग घायल हुए थे। शुरूआती पुलिसिया जांच में आरएसएस के लोगों के होने की सुगबुगाहट तो पता चली मगर जांच को उस दिशा में बढाने में भाजपा की सरकार ने कोई दिलचस्पी नहीं ली। इस बावत मौजूदा कांग्रेस सरकार में गृहमंत्री शांति धारिवाल कहते हैं कि विस्फोट करने वालों की पूरी जानकारी होने के बावजूद तत्कालीन सरकार ने गिरफ्तार नहीं कर सकी, क्योंकि आतंकी हिंदूवादी संगठनों से थे।
राज्य के गृहमंत्री की राय में इन धमाकों का मकसद देश के विभिन्न कौमों के बीच के आपसी सामंजस्य को नष्ट करना रहा है। संलिप्तता के सवाल पर भाजपा प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद कहते हैं,‘भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी कांग्रेस सरकार सिर्फ घोटालों को छुपाये रखने के लिए हिंदुओं को आतंकवादी गतिविधियों में सम्मिलित बता रही है। पार्टी हमेशा से यह मानती है दोषियों को सजा मिलनी चाहिए, चाहे वह कोई भी हो।

मगर इस आधार पर कि अमुक व्यक्ति का नंबर अमुक व्यक्ति की डायरी में मिला,इस आधार पर दोषी ठहराना गलत है।’गौरतलब है कि भाजपा प्रवक्ता यह बात गोरखपुर से भाजपा सांसद और प्रखर हिंदूवादी नेता योगी आदित्यनाथ के संदर्भ  में बोल रहे थे, जिनसे एटीएस पूछताछ करने वाली थी कि धमाकों के आरोपियो की डायरी में योगी का फोन नंबर दर्ज है।

उधर पुलिस का दावा है कि मालेगांव धमाकों में गिरफ्तार श्रीकांत पुरोहित और सुधाकर के अभिनव भारत संगठन और साध्वी प्रज्ञा सिंह और सुनील जोशी के ‘वंदे मातरम्’संगठन के बीच असीमानंद संगठनकर्ता की भूमिका में था। मालेगांव और अन्य धमाकों में गिरफ्तार लोगों के हवाले से पुलिस ने कहा है कि स्वामी अभिनव भारत  संगठन और वंदे मातरम् संगठन को एक करने के पक्ष में था ताकि उन्हें और बल मिले।

मूल रूप से पश्चिम बंगाल के हुगली जिले के रहने वाले और उच्च शिक्षा प्राप्त असीमानंद को पुलिस ने इन सभी  विस्फोटों के मुख्य आरोपी के तौर पर चिहिनत किया है,जिनकी गिरफ्तारी के बाद यह विस्फोटक खुलासे होंगे कि कितने संगीन रूप से हिंदू धार्मिक समूह चरमपंथी और आतंकी गतिविधियों में संलिप्त हैं।

हैदराबाद, अजमेर और मालेगांव बम धमाकों में हिंदू कट्टपंथियों के शामिल होने का तथ्य उजागर होने के बाद से अपने को सबसे शुद्ध राष्ट्रीयतावादी बताने वाला संघ और उसके जुड़े पदाधिकारी राष्ट्रद्रोहियों की पंक्ति में खड़े नजर आ रहे हैं। इसकी वजह से भाजपा चाह कर भी अपने वैचारिक आधार की जननी आरएसएस के बचाव में पुरजोर तौर पर नहीं उतर पा रही है।

हालांकि संघ के प्रचारक इंद्रेश कुमार ने धमाकों में नाम उजागर होने के बाद राजस्थान पुलिस को नोटिस भिजवाया  है। इंद्रेश कुमार पर आरोप है कि 2005में जयपुर में हुई एक गोपनीय बैठक में उनके साथ जो लोग भी शामिल थे,वे दरगाह विस्फोट में गिरफ्तार किये गये। इंद्रेश कुमार संघ में मुस्लिमों की भर्ती  जैसे महात्वाकांक्षी अभियान  से जुड़े थे। पुलिस को यह जानकारी दरगाह विस्फोट में संलिप्त रहे संघ कार्यकर्ता सुनील जोशी की हत्या के बाद बरामद डायरी से मिली।

अभी तक उजागर हुए तथ्यों से जाहिर हो गया है कि संघ से जुड़े चरमपंथियों के तार गुजरात, मध्य प्रदेश , आंध्र प्रदेश झारखंड और राजस्थान से जुड़े हैं। संघियों का यह आतंकी तार ऐतिहासिक संकट लेकर आया है। शायद इसी को भांपकर  कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने मध्यप्रदेश में छह अक्तूबर को एक रैली को संबोधित करते हुए आरएसएस को हिंदू कट्टरपंथी राजनीति का वाहक कहा और बताया कि प्रतिबंधित मुस्लिम छात्र संगठन सिमी और इसमें कोई फर्क नहीं है। इस बयान से उत्तेजित भाजपा युवा मोर्चा के कार्यकर्ताओं ने आरएसएस पर छपी छह किताबें राहुल को भेजी कि बचकाने बयान देने से पहले वे पढ़ा करें।

कांग्रेस और आरएसएस के बीच वाक्युद्ध कोई नयी बात नहीं है। सन् 2004के लोकसभा  चुनावों से ठीक पहले कांग्रेस ने स्वाधीनता संग्राम के दौरान आरएसएस की भूमिका पर टिप्पणी की थी जिसके विरुद्ध संघ ने राष्ट्रव्यपापी अभियान चलाया था। संघ के प्रवक्ता राम माधव ने उस समय प्रेस को संबोधित करते हुए दिल्ली  में कहा था कि कांग्रेस दुर्भावनाग्रस्त  अभियान  चला रही है। क्योंकि यह नकली कांग्रेस है और सोनिया गांधी इसकी नकली नेता हैं।

अब नकली कौन है और असली कौन,यह तो जनता तय करेगी। मगर गुनहगार कौन है उसे पुलिस बता रही है और जनता देख रही है इसलिए अब असल-नकल का सवाल बयानों की बजाय तथ्यों पर निर्भर  करेगा जिसे चाहकर भी भाजपा या संघ दबा नहीं सकते।

(द पब्लिक एजेंडा से साभार व संपादित)

Nov 26, 2010

साहित्य में चेलागिरी - नौकरशाही की दूसरी परम्परा



आज हिंदी में हर महत्वपूर्ण लेखक की रचना  पर नियमित समीक्षाएं होती हैं, रचना चाहे जैसी  हो.एक अफसर कवि की किताब पर तीन सौ समीक्षाएं छप जाती हैं और हिंदी में लिखने वाला नया लेखक अगर कालेज़ में नौकरी चाहता है तो उसे अपने अध्ययन  पर नहीं  गुरुदेव आलोचकों से संपर्क के प्रति सतर्क रहना होता है.



अच्युतानंद मिश्र


वर्तमान दौर के हिंदी लेखन पर वरिष्ठ आलोचक आनंद प्रकाश ने कुछ महत्वपूर्ण सवाल उठाये हैं .एक ऐसे समय में जब हिंदी लेखन एक व्यवसाय का रूप लेता जा रहा है तो लेखन से जुड़े वैचारिक पहलु और भी महत्वपूर्ण हो उठते हैं.आज़ादी के बाद के लेखन को मेरे हिसाब से तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है .

पहला 1970 तक का लेखन, दूसरा 1970 से लेकर 1980 तक का लेखन और तीसरे यानी  आखरी हिस्से को 1980से वर्तमान दौर तक का लेखन माना जा सकता है .पहले दौर के लेखन के केन्द्र में दो महत्वपूर्ण प्रश्न हैं.पहला आज़ादी की प्रासंगिकता का प्रश्न दूसरा पूंजीवाद के खिलाफ चल रहे वैश्विक संघर्ष में भागीदारी का प्रश्न.इन प्रश्नों के आलोक में हिंदी में दो स्पष्ट विभाज़न देखे जा सकते हैं प्रगतिशील और गैर प्रगतिशील धारा.

आज़ादी के प्रश्न पर प्रगतिशील खेमे में भी एक उलझन की स्थिति नज़र आती है.इस उलझन के पीछे पंडित नेहरु के मिथ से इंकार नहीं किया जा सकता है.नेहरु के बहाने ही कांग्रेसी मार्का लेखन को भी इसी दौर में प्रगतिशीलों के बीच प्रवेश मिलता है जिसमे वर्ग संघर्ष के स्थान पर आम आदमी की बात कही जा रही थी.इस लेखन के केन्द्र में यह बात थी की मनुष्यता के सारे संकट संसद के माध्यम से ही हल किये जाने चाहिए.

समाज में बढ़ रही असामनता भूख गरीबी बेरोज़गारी आदि से सम्बंधित बुनियादी मसले पंचवर्षीय योजनाओं के लिए निर्मित भव्य और आलीशान इमारतों में ही हल किये जा सकते हैं .नौकरशाही का प्रवेश भी हिंदी साहित्य में इसी दौर में होता है. साठ  के दशक में नए साहित्य की अवधारणा का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर प्रगतिशीलों के बीच अवसरवादी धड़े  द्वारा किया जाता है.


हिंदी आलोचक नामवर सिंह
 इस दौर में लिखी गई आलोचना जिसमें  नामवर सिंह केन्द्र में हैं,में यह प्रवृति स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है. ‘कविता के नए प्रतिमान’ और ‘कहानी नई कहानी’ दोनों पुस्तकों में बुर्जुआ लेखन को स्थापित करने का प्रयत्न स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है. हालांकि  इन पुस्तकों के लेखन में मार्क्सवाद का अपने फायदे के लिए इस्तेमाल से भी गुरेज़ नहीं किया गया .परिशिष्ट में मार्क्सवादी लेखकों का इस तरह इस्तेमाल किया गया,गोया आलोचना मार्क्सवादी ही नज़र आए परन्तु फायदा बुर्जुआ लेखकों को पहुचें.

यहाँ यह स्वीकार किया जाना चाहिए की नामवर सिंह अपनी इस रणनीति में बहुत हद तक सफल होते हैं .इसी बुनियादी अवसरवादी विचार को केन्द्र में रखते हुए साहित्य में प्रगितशील चेतना को पीछे धकेलते हुए वाम-कांग्रेसी गठबंधन के प्रभाव में लिखे जा रहे साहित्य को स्थापित करने का प्रयत्न किया गया.यहाँ वाम से मेरा तात्पर्य अवसरवादी वाम से ही है जो 1960 तक हिंदी साहित्य में अपनी बुर्जुआ योजनाओं और आकांक्षाओं के तहत सक्रिय हो चूका था.ये बातें यहाँ इसलिय ज़रुरी हो जाती है क्योंकि नयी कविता और नयी कहानी के माध्यम से एक खास तरह का समाज विरोधी व्यक्ति केंद्रित जीवन दर्शन प्रस्तुत किया जा रहा था जिसका अवसरवादी वाम धड़े ने विरोध के बजाय समर्थन ही किया.

एक बात और ध्यान देने योग्य है कि  सत्तर के दशक में ही अफसर साहित्यकारों की एक बड़ी जमात का प्रवेश होता है.इस सम्बन्ध में नागार्जुन ने आगाह करते हुए किसी प्रसंग में विजय बहादुर सिंह से कहा था कि विजय बाबु अगर इसी तरह अफसर साहित्य में प्रवेश करते रहें तो साहित्य में इसके नकारात्मक परिणाम देखने पड़ेंगे .इसी सन्दर्भ में सुरेन्द्र चौधरी ने भी कहा था कि आजकल पुलिस की रिपोर्ट लिखने वाले कहानी की रपट लिखने लगे हैं .गौरतलब है कि वामपंथी लेखक संगठनों का भी एक हद तक झुकाव इन लेखकों के प्रति देखा जा सकता है.

मिसाल के तौर पर राही मासूम रजा के स्थान पर जिस तरह श्रीलाल शुक्ल को चुना गया उस प्रक्रिया में हिंदी साहित्य पर नौकरशाही के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रभाव से इंकार नहीं किया जा सकता है.इस तरह एक बात तो स्पष्ट है कि सत्तर के दशक तक एक खास अर्थ में अवसरवाद हिंदी साहित्य में प्रवेश कर जाता है.इसमें छद्म वामपंथियों की महत्वपूर्ण भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता है.

हिंदी साहित्य में 1970 के बाद दो प्रमुख प्रवृतियाँ नज़र आती हैं. पहला क्रन्तिकारी प्रगतिशील चेतना का साहित्य में एक बार फिर सक्रिय होना दूसरे कलावादी धारा का सत्ता संस्थानों से जुडकर साहित्य में पुरस्कारों कि महिमा स्थापित करना. आज हिंदी में दिए जाने वाले अधिकांश महत्वपूर्ण पुरस्कारों की  शुरुआत या तो इसी दशक में हुई है या इसके बाद.हिंदी में क्रन्तिकारी राजनैतिक लेखन का जितना विरोध इस दौर में हुआ उतना पहले नहीं हुआ था.यहाँ तक की नई कविता के दौर में भी नहीं .

क्रन्तिकारी लेखन से मेरा मतलब  परिवर्तन की इच्छा आकांक्षा प्रकट करने वाले लेखन से ही है .लेकिन सरलीकरण के नाम पर इस लेखन का ज़बरदस्त विरोध देखा जा सकता है.ना सिर्फ यही ,बल्कि तमाम मंचों से बार बार यह कहा जाता रहा की राजनितिक लेखन प्रोपेगेंडावादी एवं प्रचारवादी लेखन ही है जिसकी कोई सार्थकता नहीं.ध्यान देने योग्य तथ्य है कि इस दौर में खास तरह से शुद्ध साहित्य और सार्थक साहित्य की अवधारणा को स्थापित किया जाता है .यह अनायास नहीं है कि अशोक वाजपेयी सरीखे साहित्यकार महत्वपूर्ण हो जाते है और उनके साहित्यिक सरोकार नामवर अलोचोकों से जुड़ने लगते हैं.

आठवें दशक के बाद हिंदी में मिलीजुली संस्कृति का प्रभाव देखा जा सकता है.कलावाद साहित्य के लिए बहसतलब नहीं रह जाता है.हिंदी साहित्य के तीन स्तंभ इस   दौर से वर्तमान समय तक देखे जा सकते हैं .पत्रकार साहित्यकार,अफसर साहित्यकार और प्रोफेसर साहित्यकार .मै यहाँ इन्हें व्यक्तियों के रूपमें याद ना कर प्रवृतियों के रूप में ही याद कर रहा हूँ .पत्रकारिता में जिस निरपेक्षता को बहुत महत्व दिया जाता है उसे हू बहु साहित्य में भी मूल्य के रूप में स्वीकार लिया गया.

आज हिंदी का अधिकांश रचनात्मक लेखन अगर पत्रकारी लेखन लगे तो कोई हैरानी की बात नहीं होनी चाहिए .सिर्फ यही नहीं आज लिखी जाने वाली अधिकांश आलोचना में भी अगर मूल्यहीनता को मूल्य की तरह दिखाया जा रहा हो तो पत्रकारिता के प्रभाव से इंकार नहीं किया जा सकता.सत्ता के करीब होकर जिस तरह से हिंदी साहित्य की परिवर्तनकामी चेतना को कुंद किया गया उसमे अफसरों की भी केंद्रीय भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता.

नौकरी दिलाने से लेकर पुरस्कार समितियों लेखक संगठन आदि में इनके स्पष्ट प्रभाव को देखा जा सकता है.अगर कोई अफसर साहित्यकार किसी युवा लेखक की चंद समीक्षाओं के सन्दर्भ में कहे की वह आने वाले समय का मलयज है तो हिंदी साहित्य के मठाधीस उसे मलयज मानने लगते हैं.इधर युवा लेखकों के बीच चंद पुरस्कारों को लेकर इस तरह की चर्चा आम होती जा रही है कि इस वर्ष यह पुरस्कार मैं ले लेता हूँ अगले वर्ष तुम ले लेना.

एक अफसर साहित्यकार की कविताओं पर शोध करने वाले एक युवा साहित्यकार ने बताया की उन्होंने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर उसे गाइड दिलाया .यही नहीं अगर वे चाहे तो किसी मित्र के माध्यम से अपने ऊपर या अपने मित्रों के ऊपर शोध के लिए इस या उस विश्विद्यालय में कह भी सकते हैं .क्या यही हमारे समय का साहित्यिक यथार्थ है?क्या यही से हमारी आलोचनात्मक दृष्टि विकसित होगी.वह विकसित होकर कहाँ तक जायेगी,हिंदी अकादमी तक या साहित्य अकादमी तक?

आज हिंदी में हर महत्वपूर्ण लेखक की रचना  पर नियमित समीक्षाएं होती हैं-ध्यान रहे महत्वपूर्ण लेखक का  होना है,रचना चाहे कैसी भी हो.एक अफसर कवि की किताब पर तीन सौ समीक्षाएं छप जाती हैं.क्या भारत एक गरीब देश है?क्या पुस्तक की स्तरीयता लेखक के प्रभाव से ही तय होनी चाहिए.तीसरे स्तम्भ यानी  प्राध्यापकों का समूह.आज हिंदी में लिखने वाला हर नया लेखक अगर कालेज़ में नौकरी चाहता है तो उसे अपने अध्यन पर नहीं बल्कि गुरुदेव आलोचकों से अपने संपर्क के प्रति सतर्क रहना होता है.

अगर वह अपने गुरुदेव आलोचक की आने वाली हर किताब की नियमित समीक्षा करता है तो बहुत संभव है की गुरुदेव उसपर कृपाकटाक्ष कर सकते है .और वह नौकरी रूपी प्रसाद को ग्रहण कर जीवन भर के लिए उनका कृपा पात्र बना रह सकता है .ध्यान रहे समीक्षा के लिया पुस्तक पढ़ना उतना अनिवार्य नहीं जितन गुरु की मोहिनी मूरत को आत्मसात करना.

हिंदी में पुरस्कारों का एक उद्योग सा चल पड़ा है.क्या कारण है कि  आठवें दशक के तमाम महत्वपूर्ण कवि एक के बाद एक साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़े जाते हैं. उन्ही में से एक कवि बिहार राज्यभाषा से मिलने वाले पुरस्कार को यह कहकर ठुकरा देते हैं कि  वह सत्ता  द्वारा दिए जा रहे सम्मान को स्वीकार नहीं कर सकते,लेकिन साहित्य अकादमी का पुरस्कार लेते हुए वह सत्ता की संस्कृति का विरोध कर लेते हैं.
विष्णु खरे जब उर्वर प्रदेश के सन्दर्भ में सवाल उठाते है तो पूरी हिंदी उस पर बहस करती है,क्यों? क्योंकि  यह विवाद एक पुरस्कार को लेकर है.हिंदी लेखन में विचारधारा के साथ होते हुए वैचारिक लेखन नहीं नज़र आता तो इसके क्या कारण हो सकते है.

कहीं  ऐसा तो नहीं की प्रतिरोध की संस्कृति के मायने बदल दिए गए हों.आनंद प्रकाश ने जो सवाल उठायें हैं उसपर हिंदी के लेखक बहस नहीं करेंगे.क्योंकि ऐसा करते हुए उनकी पोलिटिक्स खुल कर सामने आ जायेगी.आज हिंदी का अधिकांश लेखन गैर राजनीतिक होते हुए भी राजनीतिक प्रतीत होता है क्योंकि उसके पीछे सत्ता की संस्कृति सक्रिय है. ऐसे में यह बेहद ज़रुरी हो जाता है की साहित्य में सत्ता की संस्कृति के निहितार्थ पर खुल कर बहस की जाये.

उपर्युक्त लेख जनज्वार में हिंदी साहित्य के सरोकारों पर चल रही बहस की अगली कड़ी है. यहाँ तीन लेखों का लिंक दिया जा रहा है. देखने के लिए कर्सर  लेखों के ऊपर ले जाकर क्लिक करें  "वर्तमान प्रगतिशीलता का कांग्रेसी आख्यान", 'पुरस्कारों का प्रताप और लेखक-संगठनों की सांस्कृतिक प्रासंगिकता", 'प्रगतिशील बाजार का जनवादी लेखक'.


(अच्युतानंद कुछ उन युवा लेखकों में हैं जिनकी रचनाओं में जनपक्षधरता बड़ी स्पष्ट दिखती है. हाल ही में 'नक्सलबाड़ी आन्दोलन और हिंदी कविता' नाम से एक पुस्तक प्रकाशित हुई है.  उनसे anmishra27@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है. )