Apr 29, 2011

दो नावों पर सवार हैं प्रचंड


नेपाल के राजनीतिक हालात और नेपाली माओवादी आन्दोलन की भूमिका को लेकर जारी बहस व्यापक होती जा रही है. यह बहस ऐसे समय में चल रही है जब वहां 2005 में हुए संविधान सभा के चुनाव का कार्यकाल 28 मई को खत्म होने जा रहा है. एक दशक के जनयुद्ध के बाद शांति प्रक्रिया में शामिल होकर नया संविधान बनाने का सपना लिए सत्ता में भागीदारी की माओवादी पार्टी, अपने लक्ष्य में सफल नहीं हो सकी है.इसे लेकर पार्टी के भीतर और बाहर तमाम मत-मतान्तर हैं.जनज्वार की कोशिश होगी कि सभी पक्षों को बगैर पूर्वाग्रह के आने दिया जाये, जिससे हम अपने समय और समाज को और नजदीक से समझ सकें. इस कड़ी में  1-क्या माओवादी क्रांति की उल्टी गिनती शुरू हो गयी है? ,2-क्रांतिकारी लफ्फाजी या अवसरवादी राजनीति के बाद   तीसरा लेख आपके बीच है...

नीलकंठ के सी

आनंद स्वरुप वर्मा का लेख 'क्या माओवादी क्रांति की उल्टी गिनती शुरू हो गयी है' कई मायनों  में महत्वपूर्ण है.अव्वल तो इसलिए कि यह किसी जज्बाती क्रन्तिकारी का क्रंदन  नही है बल्कि एक परिपक्व लेखक का सोचा समझा नजरिया है और इसलिए इसे सहज ही अनदेखा नहीं  किया जा सकता.दूसरी बात यह कि आनंद स्वरुप वर्मा नेपाल के मामले में भारत के पाठको के बीच सन्दर्भ बिंदु के रूप में देखे जाते है और पुरानी परम्परा के अनुसार नेपाल के उनके नजरिये को बिना विवाद के स्वीकार किया जाता रहा है.उसकी वजह यह थी कि उन्होंने कभी खुद को एक पत्रकार के दायरे से बाहर नहीं  निकाला   और वस्तुगत स्थितियों   पर तथ्यपरक टिप्पणी   दी.

नेपाल के माओवादी आन्दोलन पर उनकी पहली पुस्तक ‘रोल्पा से डोल्पा तक’और इसके बाद के तमाम लेख और हाल में उनके द्वारा निर्मित फिल्म 'फलेम्स ऑफ़ दी स्नो'इसके उदाहरण है.लेकिन इस लेख में वे पत्रकारिता के दाएरे से बाहर आकर एक वैचारिक विश्लेषण करने का प्रयास करते है और बहुत सी दिलचस्प सुझाव देकर नेपाल की माओवादी राजनीति  में हो रहे वैचारिक संघर्ष के एक हिस्से के साथ खुद को खड़ा कर लेते है. अभी यह तय होना बाकि है की कौन सी लाइन नेपाल की जनता के हित में है लेकिन यह जरूर तय हो चुका है कि कौन सी लाइन उस लाइन का सही विस्तार है,जिसे जनयुद्ध शरू होने के समय नेपाल की पार्टी माओवादी ने अपना लक्ष्य बनाया था.

अपने लेख की शुरुआत  वे बहुत ही भावनात्मक टिप्पणी से करते है और बिलकुल सही तथ्य सामने रखते हैं कि,'जिन लक्ष्यों को प्राप्त करने के मकसद से इसे शुरू किया गया था उन लक्ष्यों की दूरी लगातार बढ़ती गयी और उस लक्ष्य की दिशा में चलने वाले अपने आंतरिक कारणों से कमजोर और असहाय होते गए.' लेकिन जब वे यह साफ़ करते है कि वे लक्ष्य क्या थे तो घपला कर देते है.वे कहते है, “शांति प्रक्रिया को पूरा करना है, संविधान बनाना है, संविधान बनाने के लिए ही जनता ने इतनी बड़ी कुर्बानी दी,संविधान बनाने का नारा हमारा नारा था आदि आदि.' क्या हमें  मान लेना चाहिए कि आनंद स्वरुप वर्मा ने भूल से ऐसा लिख दिया जबकि खुद प्रचंड, बाबुराम और किरण ने आजतक ऐसा नहीं कहा है. कमसे कम दस्तावेजो में बाबुराम और प्रचंड शांति, संविधान को क्रांति का अंतिम लक्ष्य कहने से आज भी बचते है. क्या हमें यह मान लेना चाहिए कि  वे गलती से भूल गये कि यहाँ वे जिसे 'आदि आदि'कहते है वे ही क्रांति के घोषित लक्ष्य है. जनयुद्ध के शुरुआत में जो नारा पार्टी ने दिया था वह था,'सत्ता के सिवा सब कुछ भ्रम है'.और सत्ता का अर्थ था समाजवादी सत्ता- श्रमजीवी वर्ग की तानाशाही.

आगे एक ही साँस में वे कहते है,  'जनयुद्ध ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अत्यंत विपरीत परिस्थितियों के बावजूद साम्राज्यवाद और सामंतवाद को चुनौती देते हुए राजतंत्र को समाप्त किया था' और यह भी कि,“मान्यवर,आपको भी पता है कि आज विद्रोह की परिस्थितियां नहीं हैं”. एक जनयुद्ध जिसने 'अत्यंत विपरीत परिस्थितियों के बावजूद साम्राज्यवाद और सामंतवाद को चुनौती देते हुए राजतंत्र को समाप्त किया था', क्या आज उसे सिर्फ इसलिए आत्मसमर्पण कर देना चाहिए कि कुछ लोग मानते है कि, 'आज विद्रोह की परिस्थितियां नहीं हैं'. फिर वे ही क्यों सही हो जो मानते है कि, 'आज विद्रोह की परिस्थितियां नहीं हैं', वे लोग क्यों नही सही हो सकते जो विद्रोह को वस्तुपरक मानते है!

इसके बाद वे लिखते हैं,“आज स्थिति यह है कि हर मोर्चे पर पार्टी की विफलता उजागर हो रही है. संविधान बनाने का इसका लक्ष्य कोसों दूर चला गया है.मजदूर मोर्चे पर लम्बे समय तक अलग-अलग गुटों में अपना वर्चस्व कायम करने के लिए मार-काट मची रही.वाईसीएल टूट के कगार पर है. सांस्कृतिक मोर्चे पर विभ्रम की स्थिति है। शीर्ष नेतृत्व पर आर्थिक भ्रष्टाचार के आरोप लगाए जा रहे हैं.ध्यान देने की बात है कि ये आरोप शत्रुपक्ष की ओर से नहीं बल्कि खुद पार्टी के अंदर से सामने आ रहे हैं इसलिए इसे इतनी आसानी से खारिज नहीं किया जा सकता.” वे यहाँ ये बताने की कोशिश करते है कि संविधान का न बनना,जनमुक्ति सेना का नेपाल सेना में विलय न होना पार्टी की विफलता है और उसे जल्द से जल्द इसे पूरा करना चाहिए. जबकि दुसरे नजरिये से ये विफलता एक महत्वपूर्ण सफलता का आधार बन सकती है.क्योंकि यही तो तय था और दस्तावेज में शामिल किया गया था की, ' प्रतिक्रियावादी ताकते संविधान नही बनने देंगी और इसी आधार पर विद्रोह किया जायेगा'.

रही बात 'मजदूर मोर्चे पर लम्बे समय तक अलग-अलग गुटों में अपना वर्चस्व कायम करने के लिए मार-काट' की तो वर्मा जी को यह कैसे नहीं पता कि मजदूर गुटों में वर्चस्व के सवाल पर विवाद नही है बल्कि लाइन के सवाल पर विवाद है और इसी तरह वाईसीएल भी लाइन के आधार पर ही टूट के कगार पर है. जहाँ तक सांस्कृतिक मोर्चे का सवाल है तो उसने तो बहुत पहले ही, 'प्रचंड पथ' की संस्कृति को त्याग दिया है.जहाँ भी सांस्कृतिक प्रदर्शन हुआ है एक ही बात बार बार कही गई है कि 'यहाँ रुक जाना गलत है'. नेपाल के आन्दोलन की जरा सी समझ रखने वाला व्यक्ति जानता  है कि, 'शीर्ष नेतृत्व पर आर्थिक भ्रष्टाचार के आरोप'नहीं लगाए जा रहे हैं बल्कि पार्टी के प्रचंड समूह पर आर्थिक भ्रष्टाचार के आरोप लगाए जा रहे हैं! और ये आरोप 'लफ्फाज' किरण ने नही बल्कि 'दूरदर्शी' बाबुराम ने लगाये है.

इसके बाद तो वे आवेग में आकर बिना सन्दर्भ के 'नस्लीय' टिप्पणी  कर देते है.वे कहते है “लेकिन भारत के विपरीत नेपाल में एक बार अगर किसी के विरुद्ध लहर चल पड़ी तो उसे रोकना मुश्किल होता है.मुझे लगता है कि यह स्थिति पर्वतीय क्षेत्र के लोगों के मनोविज्ञान में कहीं समायी हुई है.क्योंकि भारत के भी उत्तराखंड में हमें इस तरह की स्थिति का आभास होता है.माओवादी नेताओं को भी इसका आभास जरूर होगा क्योंकि अपनी जनता की मानसिकता को उनसे बेहतर कोई नहीं समझ सकता.” याने जो कोई प्रचंड पर आर्थिक भ्रष्टाचार का आरोप लगाएगा या 'नेतृत्व' को चुनौती देगा वह ऐसा किसी खास 'पर्वतीय मानसिकता' के तहत करेगा!

वर्मा जी ने आगे लिखा है,“पार्टी का कैडर पूरी तरह कंफ्यूज्ड है.नेताओं के वक्तव्यों में एक चालाकी है जिसे अब धीरे-धीरे पार्टी कार्यकर्ता समझने लगा है” यह कथन उस हद तक ठीक है जब तक कि, 'पार्टी का कैडर पूरी तरह कंफ्यूज्ड है और अब धीरे-धीरे पार्टी कार्यकर्ता समझने लगा है'पर सवाल है कि इसके लिए कौन जिम्मेदार है?वर्माजी कैसे इस तथ्य को नज़रअंदाज़ कर देते है कि नेताओं के वक्तव्यों में चालाकी नहीं है बल्कि एक खास नेता याने प्रचंड के वक्तव्यों में एक चालाकी है.प्रचंड को अच्छी तरह पता है कि विद्रोह की लाइन के साथ बने रह कर ही खुद की साख बचाई जा सकती है और शांति की बात करके भारत का विश्वास जीता जा सकता है.वे इसी निति के तहत काम कर रहे है और इसलिए कन्फ्यूजन  बना हुआ है.प्रचंड दोनों नावो में सवारी करना चाहते है. वे एक ही साथ  क्रन्तिकारी भी कहलाना चाहते है और 'राजनेता' भी.

इसके बाद वे पूरी आक्रमकता के साथ किरण पर हमला करते है, “किरण जी को न जाने कैसे अभी भी ऐसा महसूस होता है कि इतने सारे विचलनों के बावजूद पार्टी कार्यकर्ता और आम जनता उनके आह्वान पर विद्रोह के लिए उठ खड़ी होगी.उनके पास इन सवालों का भी कोई जवाब नहीं है कि अगर ऐसा ही था तो पार्टी ने 2006में शांति समझौता क्यों किया,संविधान सभा के चुनाव में क्यों हिस्सा लिया और फिर देश का नेतृत्व संभालने की जिम्मेदारी क्यों ली.क्यों नहीं अप्रैल 2006 में जन आंदोलन-2 के बाद ही नारायणहिती पर कब्जा कर,ज्ञानेन्द्र को महल से खदेड़ कर या उनका सफाया कर अपना झंडा लहरा दिया. किसने आपको रोका था एक और पेरिस कम्यून बनने से..........?”

यहाँ वे यह बताना जरूरी नहीं समझते कि किरण तुरंत विद्रोह की बात नहीं करते बल्कि उसकी प्रक्रिया में जाने की बात कर रहे है.उनका मानना है कि विद्रोह की तैयारी  के लिए गावों  में आधार बनाना चाहिए और चुनाव में जाने का अर्थ माओवादी क्रांति के सन्दर्भ में इस व्यवस्था को स्वीकार करना तो कभी नही था.आनंद जी घोषणा करते है कि यदि विद्रोह होगा तो वह पेरिस कम्यून के निष्कर्ष में पहुचेगा.क्या विद्रोह का दूसरा निष्कर्ष 'सोवियत क्रांति' नहीं हो सकता?और क्या क्रांति करने के लिए  जंगल जाना ही लाजमी है? जब वे यह कह रहे होते है कि, “क्रांतिकारी नारे देना और व्यावहारिक राजनीति से रू-ब-रू होना बहुत टेढ़ा काम है”तो क्या वे भी उसी निराशावादी सोच  के शिकार नहीं लगते जहाँ बदलाव एक मजाक है.एक पुराने समाजवादी को क्रांतिकारी नारे इतने अव्यावहारिक क्यों लग रहे है? और यदि लग भी रहे  हैं  तो दूसरों  को इस तरह की सलाह देने के पीछे उनकी पॉलिटिक्स   क्या है?

आगे वे एक सच्चे मित्र की तरह प्रचंड को बताना नही भूलते कि क्रांति की बातें करना 'लफ्फाजी'है और उन्हें अब अपने कार्यकर्ताओं को धोखे में नहीं रखना चाहिए.वे उन्हें यह भी याद दिलाते है कि, “आप से बेहतर कौन इस सच्चाई को जानता होगा कि 2006 और 2011 में आपके पीएलए,वाईसीएल और सामान्य कार्यकर्ताओं की जो आत्मगत तैयारी थी वह आज 60प्रतिशत से भी ज्यादा कम हो चुकी है.”क्या आनंद जी से यह आशा करना गलत होता कि वे प्रचंड को बताते कि उनके वैचारिक विचलन के कारण ही आत्मगत तैयारी कम हुई है.

प्रचंड  'मुग्धता' में वे प्रचंड को क्रांति का पर्यायवाची  मान लेते हैं और तय कर लेते है की यदि प्रचंड की आत्मगत तैयारी कम है तो जाहिर तौर पर पीएलए,वाईसीएल और सामान्य कार्यकर्ताओं की भी आत्मगत तैयारी कम ही होगी!क्या मार्क्सवाद के जानकार मार्क्सवाद की इस प्रस्थापना को भूल गये कि नेता और क्रांति का जन्म आवश्यकता  के तहत होता है और क्रांति के सामाजिक  कारण होते हैं और यह भी की क्रांति किसी नेता विशेष की इच्छा,उसकी आत्मगत स्थिति के अनुसार आगे नहीं  बढती बल्कि नेता का निर्माण ही क्रांति के विकास के साथ होता है.

आनंद जी को कैसे ये लग गया की नेपाल की क्रांति का यही निर्णायक अंत है.क्या 2006 और आज के बीच उन सभी सामाजिक कारको में आमूल परिवर्तन आ गया है जिस के आधार पर नेपाल में क्रांति अनिवार्य बन गई थी?जब वे बताते है कि,“विद्रोह की बात महज एक लोक-लुभावना नारा पॉपुलिस्ट स्लोगन”है तो वे ऐसा कैसे भूल जाते है कि जनयुद्ध भी एक समय,'लोक-लुभावना नारा पॉपुलिस्ट स्लोगन' ही था.

आगे वे सोच समझकर प्रचंड को सलाह देते है कि वे जल्दी से अपनी निष्ठा बाबुराम के पक्ष में लगा दें  और 'साहस' के साथ कह दें कि, “किरण जी, आप एक यूटोपिया में जी रहे हैं और यथार्थ से बहुत दूर हैं.नेपाल का यथार्थ आज यही है कि किसी भी तरह संविधान  निर्माण का काम पूरा किया जाए और एक दुष्चक्र में फंसी राजनीति को आगे बढ़ाया जाए”.बाप रे बाप एक समाजवादी के लिए समाजवाद 'यूटोपिया' और पूंजीवाद 'यथार्थ'. ऐसा कहने के उनके साहस को 'लाल सलाम'.

इसके बाद वे बहुत ही घातक निष्कर्ष पर पहुचते हैं,जो उनकी पुरानी जनपक्षधरता को देखते हुए हैरान करता है  कि प्रचंड के ऐसा करने से भारत उनका साथी हो जायेगा और “शरद यादव जैसे नेताओं ने लगातार मनमोहन सिंह और शिवशंकर मेनन से संवाद स्थापित कर उन्हें इस बात के लिए राजी किया है कि नेपाल की राजनीति में सबसे बड़ी पार्टी और सबसे ज्यादा समर्थन वाली पार्टी होने के नाते माओवादियों की उपेक्षा नहीं की जा सकती”.आनंद जी गुलामी की पुरानी परंपरा को बचाए रखने का सुझाव प्रचंड को देते वक्त आप किस प्रकार की जनवादी मानसिकता का प्रदर्शन कर रहे है जरा हमें भी समझाइए.नेपाल की जनता का हित क्रांतिकारी  प्रतिरोध में है कि अवसरवादी आत्मसमर्पण में? यह नेपाली जनता के शुभचिंतक का कथन है कि एक भारतीय उग्र राष्ट्रवादी का सुझाव?

बहरहाल आनंद जी के लेख ने यह तो स्पष्ट किया है कि आज के दौर में वैचारिक विचलन न सिर्फ नेपाल की माओवादी पार्टी के एक तबके के भीतर बल्कि उसके पुराने समर्थको के अन्दर भी जड़ जमा चुका है.

(लेखक  नेपाली एकता मंच दिल्ली राज्य के सदस्य हैं. )


परमाणु ऊर्जा घुटनाटेकू राजनीति की मजबूरी है !


संदर्भ केन्द्र की 12वीं सालगिरह के मौके पर इन्दौर प्रेस क्लब में 20अप्रैल को आयोजित कार्यक्रम में  परमाणु मामलों के जानकार  डॉ. विवेक मोंटेरो का दिया गया भाषण...

डॉ. विवेक मोंटेरो

भारत में परमाणु ऊर्जा के पक्ष में तीन बातें कही जाती हैं कि ये सस्ती है,सुरक्षित है और स्वच्छ यानि पर्यावरण हितैषी है। जबकि सच्चाई ये है कि इनमें से कोई एक भी बात सच नहीं है बल्कि तीनों झूठ हैं। देश की जनता को धोखे में रखकर भारत में परमाणु कार्यक्रम बरास्ता जैतापुर जिस दिशा में आगे बढ़ रहा है,वहाँ अगर कोई दुर्घटना नहीं भी होती है तो भी आर्थिक रूप से देश की जनता को एनरॉन जैसे,और उससे भी बड़े आर्थिक धोखे का शिकार बनाया जा रहा है। और अगर कोई दुर्घटना हो जाती है तो आबादी के घनत्व को देखते हुए ये सोचना ही भयावह है लेकिन निराधार नहीं, कि भारत में किसी भी परमाणु दुर्घटना से हो सकने वाली जनहानि का परिमाण कहीं बहुत ज्यादा होगा।

फुकुशिमा में परमाणु रिएक्टरों के भीतर हुए विस्फोटों को ये कहकर संदर्भ से अलगाने की कोशिश की जा रही है कि वहाँ तो सुनामी की वजह से ये तबाही मची। और भारत में तो सुनामी कभी आ नहीं सकती। उन्होंने कहा कि ये सच है कि फुकुशिमा में एक प्राकृतिक आपदा के नतीजे के तौर पर परमाणु रिसाव हुआ लेकिन जादूगुड़ा या तारापुर या रावतभाटा या कलपक्कम आदि जो भारत के मौजूदा परमाणु ऊर्जा संयंत्र हैं, जहाँ कोई बड़ी दुर्घटना नहीं हुई है, ऐसा नहीं है। वहाँ के नजदीकी गाँवों और बस्तियों में रहने वाले लोगों में अनेक रेडियोधर्मिता से जुड़ी बीमारियों का फैलना साबित करता है कि परमाणु विकिरण के असर उससे कहीं ज्यादा हैं जितने सरकार या सरकारी वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं।

व्याख्यान देते डॉक्टर विवेक
 लोग आमतौर पर सोचते हैं कि परमाणु ऊर्जा सिर्फ बम के रूप में ही हानिकारक होती है,लेकिन सच ये है कि परमाणु बम में रेडियोएक्टिव पदार्थ कुछ किलो ही होता है और विस्फोट की वजह से उसका नुकसान एकबार में ही काफी ज्यादा होता है,जबकि एक रिएक्टर में रेडियाधर्मी परमाणु ईंधन टनों की मात्रा में होता है। अगर वह किसी भी कारण से बाहरी वातावरण के संपर्क में आ जाता है तो उससे रेडियोधर्मिता का खतरा बम से भी कई गुना ज्यादा बढ़ जाता है। परमाणु ईंधन को ठंडा रखने के लिए बहुत ज्यादा मात्रा में पानी उस पर लगातार छोड़ा जाता है। ये पानी परमाणु प्रदूषित हो जाता है और इसके असर जानलेवा भी होते हैं। फुकुशिमा में ऐसा ही साठ हजार टन पानी रोक कर के रखा हुआ था जिसमें से 11हजार टन पानी समंदर में छोड़ा गया और बाकी अभी भी वहीं रोक कर के रखे हैं। जो पानी छोड़ा गया है,वो भी काफी रेडियोएक्टिव है और उसके खतरे भी मौजूद हैं।

जहाँ तक परमाणु ऊर्जा की लागत का सवाल है तो इसके लिए आवश्यक रिएक्टर तो बहुत महँगे हैं ही और भारत-अमेरिकी परमाणु करार की वजह से हम पूरी तरह तकनीकी मामले में विदेशों पर आश्रित हैं। साथ ही किसी भी परमाणु संयंत्र की लागत का अनुमान करते समय न तो उससे निकलने वाले परमाणु कचरे के निपटान की लागत को शामिल किया जाता है और न ही परमाणु संयंत्र की डीकमीशनिंग (ध्वंस)को। कोई दुर्घटना न भी हो तो भी एक अवस्था के बाद परमाणु संयंत्रों को बंद करना होता है और वैसी स्थिति में परमाणु संयंत्र का ध्वंस तथा उसके रेडिएशन कचरे को दफन करना बहुत बड़े खर्च का मामला होता है। और अगर परमाणु दुर्घटना हो जाए तो उसके खर्च का तो अनुमान ही मुमकिन नहीं। चेर्नोबिल की दुर्घटना से 1986 में 4000 वर्ग किमी का क्षेत्रफल हजारों वर्षों के लिए रहने योग्य नहीं रह गया। परमाणु ईंधन के रिसाव से करीब सवा लाख वर्ग किमी जमीन परमाणु विकिरण के भीषण असर से ग्रस्त है। कोई कहता है कि वहाँ सिर्फ 6 लोगों की मौत हुई जबकि कुछ के आँकड़े 9लाख भी बताये जाते हैं। क्या इसकी कीमत का आकलन किया जा सकता है? विकिरण के असर को खत्म होने में 24500 वर्ष लगने का अनुमान है, तब तक ये जमीन किसी भी तरह के उपयोग के लिए न केवल बेकार रहेगी बल्कि इसे लोगों की पहुँच से दूर रखने के लिए इसकी सुरक्षा पर भी हजारों वर्षों तक खर्च करते रहना पड़ेगा।

फुकुशिमा के हादसे के बाद से दुनिया के तमाम देशों ने अपने परमाणु कार्यक्रमों को स्थ्गित कर उन पर पुनर्विचार करना शुरू किया है। जर्मनी में तो वहाँ की सरकार ने परमाणु ऊर्जा को शून्य पर लाने की योजना बनाने की कार्रवाई भी शुरू कर दी है। खुद अमेरिका में 1976 के बाद से कोई भी नया परमाणु संयंत्र नहीं लगाया गया है। वे सिर्फ दूसरे कमजोर देशों को बेचने के लिए रिएक्टर बना रहे हैं। इसके बावजूद भारत सरकार ऊर्जा की जरूरत का बहाना लेकर जैतापुर में परमाणु संयंत्र लगाने के लिए आमादा है। कारण कि  प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह ने फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया, स्वीडन और रूस के साथ ये करार किया है कि भारत इन चारों देशों से 10-10हजार मेगावाट क्षमता के रिएक्टर खरीद कर अपने देश में स्थापित करेगा। ये हमारे देश की नयी विदेश नीति का नतीजा है जो हमारे सत्ताधीशों ने साम्राज्यवादी ताकतों के सामने गिरवी रख दी है।

महाराष्ट्र के रत्नागिरि जिले में जैतापुर में लगाये जाने वाले परमाणु संयंत्र के बारे में उन्होंने बताया कि वहाँ फ्रांस की अरीवा कंपनी द्वारा लगाया जाने वाला परमाणु संयंत्र खुद फ्रांस में ही अभी सवालों के घेरे में है और हम भारत में उसे लगाने के लिए तैयार हैं। फ्रांस के राष्ट्रपति सरकोजी की पिछले दिनों हुई भारत यात्रा के पीछे भी ये व्यापारिक समझौता ही प्रमुख था। उन्होने विभिन्न स्त्रातों का हवाला देकर बताया कि परमाणु संसाधनों से बनने वाली ऊर्जा न केवल अन्य स्त्रोतों से प्राप्त हो सकने वाली ऊर्जा से महँगी होगी बल्कि वो देश की ऊर्जा की जरूरत को कहीं से भी पूरी कर सकने में सक्षम नहीं होगी। खुद सरकार मानती है कि परमाणु ऊर्जा हमारे मौजूदा कुल ऊर्जा उत्पादन का मात्र 3 से साढ़े तीन प्रतिशत है जो अगले 40 वर्षों के बाद अधिका अधिक 10 प्रतिशत तक पहुँच सकेगी,वो भी तब जब कोई विरोध या दुर्घटना न हो। उन्होंने कहा कि एक मीटिंग में मौजूदा पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने उनसे बिलकुल साफ कहा था कि महाराष्ट्र के जैतापुर में बनने वाला परमाणु संयंत्र किसी भी कीमत पर बनकर रहेगा और इसकी वजह ऊर्जा की कमी नहीं बल्कि हमारी विदेश नीति और अन्य देशों के साथ हमारे रणनीतिक संबंध हैं।


परमाणु ऊर्जा के नफा -नुकसान को समझते श्रोता
जहाँ तक ऊर्जा की कमी का सवाल है,ये ऊर्जा की उपलब्धता से कम और उसके असमान वितरण से अधिक जुड़ा हुआ है। बहुत दिलचस्प तरह से इसका खुलासा करते हुए उन्होंने मुंबई के एक 27 मंजिला घर की स्लाइड दिखाते हुए कहा कि इस बंगले में एक परिवार रहता है और इसमें हैलीपैड, स्वीमिंग पूल आदि तरह-तरह की सुविधाएँ मौजूद हैं। इस बंगले में प्रति माह 6 लाख यूनिट बिजली की खपत होती है। ये बंगला अंबानी परिवार का है। दूसरी स्लाइड दिखाते हुए उन्होंने कहा कि शोलापुर में रहने वाले दस हजार परिवारों की कुल मासिक खपत भी 6लाख यूनिट की है। अगर देश में बिजली की कमी है तो दस हजार परिवारों जितनी बिजली खर्च करने वाले अंबानी परिवार को तो सजा मिलनी चाहिए लेकिन उल्टे अंबानी को इतनी ज्यादा बिजली खर्च करने पर सरकार की ओर से कुल बिल पर 10 प्रतिशत की छूट भी मिलती है।

पवन,सौर तथा बायोमास जैसे विकल्पों का संक्षेप में ब्यौरा देकर अपनी बात समाप्त करते हुए उन्होंने कहा कि अगर परमाणु ऊर्जा इतनी महँगी, खतरनाक और नाकाफी है तो फिर उसे किस लिए देश की जनता पर थोपा जा रहा है-ये देश के लोगों को देश की सत्ता संभाले लोगों से पूछना चाहिए। अंतरराष्ट्रीय ताकतों के सामने और उनके मुनाफे की खातिर देश की राजनीति और देश के लोगों की सुरक्षा को दाँव पर लगाया जा रहा है। ये मसला ऊर्जा की जरूरत का नहीं बल्कि राजनीति के पतन का है और पतित राजनीति का मुकाबला राजनीति से अलग रहकर नहीं बल्कि सही राजनीति के जरिये ही किया जा सकता है।



अमेरिका से भौतिकी में पीएच.डी.कर लेने के बाद कुछ समय टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च में पोस्ट डॉक्टोरल रिसर्च फेलो। फिलहाल वे मजदूर संगठन सीटू के महाराष्ट्र के राज्य सचिव हैं और जैतापुर में चल रहे परमाणु संयंत्र विरोधी आंदोलन ‘कोंकण बचाओ समिति’में शामिल हैं।


Apr 28, 2011

क्रांतिकारी लफ्फाजी या अवसरवादी राजनीति


आनंद स्वरूप वर्मा अपने पूर्ववर्ती  लेखों में उन नीतियों के समर्थक रहे हैं और पार्टी के कुशल नेतृत्व के प्रशंसक   भी। आज जब वे  इसे किरण का ‘यूटोपिया’ घोषित  कर रहे हैं तो यह बात संदर्भ से कटती हुई दिख रही है...

अंजनी कुमार

समकालीन तीसरी दुनिया के अप्रैल 2011 के अंक में इस पत्रिका के संपादक आनंद स्वरूप वर्मा का लेख ‘क्या माओवादी क्रांति  की उल्टी गिनती शुरू हो गयी है?'नेपाल के हालात के मद्देनजर काफी महत्वपूर्ण है। यह लेख ऐसे समय में आया है जब नेपाल की एकीकृत कम्युनिस्ट पार्टी -माओवादी के केन्द्रीय कमेटी की मैराथन बैठकें  चल रही है। इसमें पार्टी की कार्यदिशा तय होनी है।

नेपाल की राजनीति में एक अजब संकट की स्थिति बनने की प्रक्रिया चल रही है। 28 मई 2011 को संविधान सभा का कार्यकाल समाप्त हो जाएगा। नेपाल की राजनीति की गाड़ी 28  मई को किस हालात में खड़ी होगी,यह चिंता सभी को सता रही है। जिस तरह की राजनीति पिछले तीन वर्षों में वहां उभरकर आई है उससे तो यही लगता है कि रास्ता निकल ही आएगा। रास्ता कैसा होगा,यह जरूर चिंता का विषय है।

राजशाही के अंत के बाद बार-बार आए संकट के बीच से रास्ता निकाल ले जाने में एसीपीएन-माओवादी का नेतृत्व खासकर कामरेड प्रचंड और बाबूराम भट्टाराई खासा पारंगत हो चुके हैं। साथ ही भारत और दूतावास रास्ता निकाल ले आने के लिए काफी सक्रिय  हैं। भारतीय राजनयिक के बयान को मानें तो ‘संकट के हल की उम्मीद है।' प्रचंड की मानें तो ‘संविधान हफ्ते भर में बन जाएगा।' आनंद स्वरूप वर्मा का लेख इन हालातों से निपटने के लिए उचित कार्यदिशा तथा कार्यनीति अपनाने की सलाह के रूप में आया है। साथ ही यह गलत पक्ष लेने वालों की आलोचना कर हालात के अनुरूप चलने का आह्वान भी है।

उनकी चिंता है कि यदि एसीपीएन-माओवादी के बीच कलह बना रहेगा तो हालात का फायदा दूसरी ताकतें उठाएंगी। उनकी दृष्टि  में बाबूराम भट्टाराई के नेतृत्व वाली योजना यानी जनयुद्ध से हासिल उपलब्धियों को ठोस बनाते हुए संविधान निर्माण को आगे बढ़ाने का कार्यक्रम ही बेहतर रास्ता है। हालांकि वे बाबूराम के नेतृत्व की महत्वाकांक्षा और प्रचंड की क्रांतिकारी  लफ्फाजी’ से चिंतित हैं। वह साहस कर यह कहने का हौसला भी बढ़ाते हैं कि ‘किरण जी, आप एक यूटोपिया में जी रहे हैं और यथार्थ से बहुत दूर हैं।'

आनंद स्वरूप वर्मा की चिंता और हालात को जनता के पक्ष में मोड़ देने की अपील उनकी पक्षधरता को ही दिखाता है। नेपाली शांति  के पक्ष में उनकी भूमिका से भारत और नेपाल के कम से कम राजनीतिक समूह अच्छी तरह परिचित हैं, लेकिन यह लेख जितनी चिंता से लिखा गया है उतना ही चिंतित भी करता है। प्रचंड और बाबूराम के बीच की दो लाइनों के संघर्ष  की चर्चा जनयुद्ध के शुरूआती दिनों से रही है। यह संकट कठिन रास्तों से गुजरा और हिसला यामी के शब्दों में जनता के पक्ष में हमने ‘पार्टी एकता को बनाए रखने’ के पक्ष में निर्णय लिया। इन दो लाइनों के संघर्ष की मूल बात पार्टी के अंदरूनी दस्तावेजों में बंद रही, लेकिन सात पार्टियों के बीच एकता समझौता और शांतिवार्ता के साथ यह चर्चा आम रही है कि मूलतः बाबूराम की लाइन ही लागू हो रही  है।

उस समय मुख्य मसला   संसदीय पार्टियों के चरित्र और सेना के एकीकरण का था, जिससे लोग बहस व निष्कर्ष निकाल रहे थे। यह मसला एसीपीएन-माओवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं के बीच भी बना। इसे हल करने और स्पष्ट कार्यक्रम घोषित करने के उद्देश्य  से अगस्त 2007  में पार्टी का बालाजू प्लेनम हुआ। इसमें एकीकृत दस्तावेज पारित हुआ। इसके बाद और दो पार्टी प्लेनम और दो केंद्रीय कमेटी सम्मेलन संपन्न हुए। बाबूराम भट्टाराई ने लगभग महीनेभर चली  पार्टी की छठवें विस्तारित ऊपरी कमेटी सदस्यों की पालुमतार बैठक  में ही पहली बार अपने कार्यक्रम का दस्तावेज पेश  किया। इस बैठक  में किरण, प्रचंड और बाबूराम तीनों ने ही अपने-अपने दस्तावेज पेश  किये थे।

इसके पहले के खारी पार्टी प्लेनम में किरण और प्रचंड ने दो अलग-अलग दस्तावेज पेश  किए थे। वर्ष 2009 की केन्द्रीय कमेटी बैठक  में किरण के दस्तावेज को मान्यता दी गई और जनविद्रोह की लाइन को स्वीकृत किया गया। वर्ष 2007से लेकर दिसंबर 2010  के बीच हुए प्लेनम व विस्तारित बैठकों  में जनविद्रोह की लाइन ही आम स्वीकृत थी। संविधान निर्माण विद्रोह का विकल्प नहीं था और सेना का एकीकरण भी शांति  का विकल्प नहीं था।

कह सकते हैं कि पार्टी में दिसंबर 2010 तक संविधान  निर्माण,सेना का एकीकरण और जनविद्रोह नेपाल की शांति कार्यक्रम के अभिन्न अंग के रूप में स्वीकृत थे। पार्टी बैठकों  और कार्यकर्ता सम्मेलनों में प्रचंड इसी लाइन को बोलते थे, लेकिन बाहर के घेरे में उनकी भाषा और विचार एकदम भिन्न होते थे। जिसके बारे में यह कहकर छूट दी जाती थी कि ‘राजनय’में एक भिन्न भाषा  और व्यवहार की मांग होती है। बाबूराम का व्यवहार और भाषा  प्रचंड से भी बढ़कर थी। किरण ‘राजनय’ से बाहर थे और पार्टी के एकमत व एकीकृत दस्तावेज के अनुरूप ही बोलते थे।

आनंद स्वरूप वर्मा गोरखा....पालुंतार  प्लेनम दिसंबर 2010में पार्टी के भीतर उभरकर आए तीन ‘गुट’ और तीन धारा के संघर्ष  से एक निष्कर्ष की ओर बढ़ते हैं और किरण की ‘यूटोपिया’ की आलोचना करते हुए लिखते हैं, ‘किरण जी को न जाने कैसे अभी भी ऐसा महसूस होता है कि इतने सारे विचलनों के बावजूद पार्टी कार्यकर्ता और आम जनता उनके आह्वान पर विद्रोह के लिए उठ खड़ी होगी।' यदि हम पार्टी में बहस व निर्णय लेने के लिए पार्टी प्लेनम व केंद्रीय समिति की बैठकों की शुरूआत 2006 या 2007 से करें तो पूरी पार्टी इसी ‘यूटोपिया’ में थी। उनके बीच मुख्य मुद्दा मात्र ‘एकता’ बनाए रखने की घोषणा  भर नहीं था, बल्कि यह ‘यूटोपिया’ पूरी पार्टी की समझदारी थी।

इस  समझदारी के तहत ही जनमिलिशिया  और लड़ाकू दस्तों को जनसंगठनों का हिस्सा बनाया गया। यही नहीं जनमुद्दों के रोजमर्रा के संघर्षों और साथ ही विकास के लिए संगठित प्रयास को आगे बढ़ाने के निर्णयों के साथ पार्टी ने खुला काम करने का निर्णय भी  लिया। वर्ष 2005में सैन्य कार्रवाई व 2006में जनविद्रोह की कार्रवाई में सत्ता दखल न करने का निर्णय पार्टी का एकमत निर्णय था। उस समय किरण के किसी अलग दस्तावेज का उल्लेख नहीं मिलता है।वर्ष 2005 व 2006 में पार्टी ने सत्ता दखल की तात्कालिक कार्रवाई को छोड़ने के पीछे के कारणों में कभी भी यह नहीं बताया कि सत्ता दखल ‘पेरिस कम्यून’ यानी चंद दिनों बाद हार में बदल जाता। जैसा कि वह किरण को चुनौती देते हुए वह लिखते हैं, ‘किसने रोका था एक और पेरिस कम्यून बनने से?’

इस मुद्दे पर बाबूराम, प्रचंड व किरण कई साक्षात्कारों में अपनी राय व्यक्त कर चुके हैं। तीनों ही या यूं कहे कि पार्टी इस बात से सहमत थी , ‘सत्ता का बल व छल पूरी तरह हमारे पक्ष में है', इसलिए ‘सत्ता दखल राजनीतिक संघर्ष के जनवादी पक्ष को मजबूत करते हुए किया जाय’ क्योंकि ‘ विश्व  परिस्थिति में सैन्य कार्यनीति पर जोर नेपाल को अंतहीन युद्धक्षेत्र में बदल देगा’ आदि आदि। यही वह बिंदु  थे,  जहां लेनिन के नेतृत्व में हुई अक्टूबर क्रांति और चीन की नवजनवादी क्रांति  का संश्लेषण  करने का भी दावा किया गया। इस संक्रमण के दौर में कुछ ऐसी कार्यनीतियां तय हुईं,  जिनका महत्व प्रचंड के शब्दों में ‘रणनीतिक’ था। मसलन, शांतिवार्ता, सीजफायर, संसदीय छल-बल आदि।

वर्मा जी अपने पूर्ववर्ती  लेखों में इन नीतियों के समर्थक रहे हैं और पार्टी के कुशल नेतृत्व के प्रशंसक  भी। आज जब वे  इसे किरण का ‘यूटोपिया’ घोषित  कर रहे हैं तो यह बात संदर्भ से कटती हुई दिख रही है। एसीपीएन-माओवादी पार्टी में तीन धाराएं नवंबर-दिसंबर 2010  में ही अपने-अपने दस्तावेजों के साथ खुलकर सामने आई हैं। ये तीन धाराएं इतनी जल्दी कैसे गुट में बदल गईं, इस पर चिंतन करना चाहिए। बाबूराम उपरोक्त बैठक  में अपना दस्तावेज प्रस्तुत करते हैं और उतनी ही जल्दी सारतत्व में प्रचंड का दिल जीत लेते हैं, यह भी सोचनीय विषय है।

इससे भी सोचनीय विषय वर्मा जी का इस शर्त पर समर्थन है कि ‘मान्यवर, आपको भी पता है कि आज विद्रोह की परिस्थितियां नहीं हैं और पार्टी को  हर हाल में शांति प्रक्रिया को आगे बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए।' मैं आपकी  इस बात से यह निष्कर्ष  नहीं निकाल रहा हूं कि आप घुटना टेकने की बात कह रहे हैं, आप हालात को समझने और राजनीति को सही दिशा  देकर जनता के पक्ष में बने रहने की ही बात कह रहे हैं। आप यह समर्थन देने की अपील इस कारण करते हैं कि पार्टी व उसके जनसंगठनों की सदस्यता में कमी आई है, उसमें हो रही गुटबंदियों से संरचनाएं कमजोर हुई हैं। आप लिखते हैं ‘ऐसे में जब आप विद्रोह की बात करते हैं तो क्या यह महज एक लोक-लुभावन नारा, पापुलिस्ट स्लोगन नहीं हो जाता?’

लेकिन वर्मा जी आप यह बताना भूल जाते हैं कि नेपाल में आज भी एसीपीएन-माओवादी पार्टी संख्या के आधार पर सबसे बड़ी पार्टी है। जुझारूपन और जनसमर्थन में आज भी वही अगुआ है। संसद में भी वही सबसे बड़ी पार्टी है। पालुंतार-गोरखा सम्मेलन से  आठ महीने पहले अप्रैल-मई 2010में ‘संघर्ष से विद्रोह तक’के नारे को अंजाम देने के लिए पूरे नेपाल में और राजधानी काठमांडू में लाखों लोग सड़क पर उतर आए थे। उस समय पुलिस व सेना के ‘राज्य अनुशासन'  का खुला उल्लंघन शुरू हो गया था। अब  सिर्फ एक साल में हालात क्या सचमुच इतने  बदल गये हैं  है कि किरण जी ‘यूटोपिया में जी रहे हैं और यथार्थ से बहुत दूर हैं।'

पालुन्तार  सम्मेलन का यथार्थ यह है कि बाबूराम संविधान को ही विकल्प, विद्रोह को आत्मघाती मानते हैं। भारतीय विस्तारवाद को नेपाली शांति का मुख्य दुश्मन  नहीं, बल्कि दलाल बुर्जुआ के साथ शांतिपूर्ण राजनीतिक प्रतियोगिता की रणनीति अपनाने की लाइन देते हैं। बाबूराम ने किन्हीं मजबूरियों में नहीं, बल्कि पूरी विचार प्रणाली के तहत अपना प्रस्ताव प्रस्तुत किया है,जिस पर कभी-कभी कथनी और लंबे समय से करनी में प्रचंड इसी रास्ते पर चल रहे हैं,जैसा कि आपने इसे चिन्हित किया है और उन्हें इस एवज में ‘क्रांतिकारी  लफ्फाजी’छोड़ देने के लिए अपील भी की है।

यदि यह लफ्फाजी होती  तो भी इतनी घातक नहीं होती। दरअसल यह अवसरवाद है,जिसका परिणाम पार्टी में वैचारिक ऊहापोह, विभ्रम, भटकाव के रूप में सामने  आता है और परिणति आमतौर पर दक्षिणपंथी भटकाव में दिखती  है। यह सामान्य सा सूत्रीकरण माओ का है जिसे प्रचंड पर लागू कर उन्हें और उसके पार्टी पर पड़े प्रभावों में देखा जा सकता है। आप प्रचंड को उनके बन रहे पक्ष की ओर जोर लगाकर ठेल रहे हैं। वर्ष 2005 से 2011 के बीच पार्टी की एकीकृत समझदारी, उसके कार्यक्रम, कार्यनीति व रणनीति को किरण के खाते में डालकर उसे ‘यूटोपिया’में बदल दे रहे हैं। जबकि वह एसीपीएन-माओवादी पार्टी के नेपाल के नवजनवादी क्रांति  का मसौदा है और इसी के तहत उसने वहां की राजशाही को खत्म किया। नेपाल की जनता को दुनिया की अग्रणी कतार में ले आया और दक्षिण एशिया  में शांति  के एजेंडे को सर्वोपरि बना दिया।

नेपाल की शांति  संकट में है। पार्टी के भीतर गलत प्रवृत्तियों का जोर काफी बढ़ा है। नेतृत्व में आपसी मतभेद बढ़ा है। पार्टी और जनसंगठनों की सदस्यता में कमी व गुटबंदियां बढ़ी हैं। इसे ठीक करने की प्रक्रिया  पार्टी के भीतर वैचारिक बहस-विमर्श, गलत और भ्रष्ट  लोगों की छंटाई के माध्यम से ही हो सकता है। यह आम सी लगने वाली बात न तो नेतृत्व स्तर पर लागू की गयी है  और न ही निचले स्तर पर हो पाई है। जो पार्टी माओ त्से तुंग के अनुभवों से आगे जाने की बात करने लगी थी वही आज उसके सांस्कृतिक क्रांति  के न्यूनतम सार संकलनों को भी लागू नहीं कर पा रही है।

इसी तरह सम्मेलनों में दो धारा संघर्ष में अल्पमत में रहने वाले नेतृत्व से लंबे समय तक बहुमत की धारा को लागू कराने के पार्टी उसूल अपनाने के चलते सभी स्तरों पर कन्फ्यूजन, विभ्रम व सांगठनिक गड़बड़ियां पैदा हुई हैं। गुरिल्ला युद्ध, विद्रोह व संघर्ष  को विभिन्न फेज में बांटने, प्रयोग करने की रणनीति के चलते जनमीलिशिया  व गुरिल्ला आर्मी से जुड़े लोगों में अफरातफरी की स्थिति बनी। इसी से जुड़ा हुआ बेस एरिया व क्रांतिकारी  सरकार की संकल्पना के बनने तथा नए फेज में इसे भंग करने के चलते आमजन में अफरातफरी और विभ्रम की स्थिति बनी है। एक फेज से दूसरे फेज में जाने की तैयारी,पार्टी का पुनर्गठन और नए नेतृत्व के आने की पूरी प्रक्रिया में संरचनागत समर्थन का पूरी तरह अभाव दिखता है। जिसके चलते खुली पार्टी होने के साथ ही इससे होने वाले  खामियाजे में पार्टी गले तक डूबी दिख रही है।

आज जरूरत है कि पार्टी खुद को पुनर्गठित करे, संविधान निर्माण में हुई देरी के लिए मुख्य रूप से उन पार्टियों के खिलाफ अभियान चलाये, जो देरी के लिए जिम्मेदार हैं। निरकुंशता या तानाशाही की किसी भी संभावना के खिलाफ संघर्ष की तैयारी करे और पार्टी के बहुमत को बहुमत का नेतृत्व ही पार्टी कार्यक्रम के साथ आगे बढ़ाए। संशोधनवाद व अवसरवाद के खिलाफ निर्णायक संघर्ष चलाकर पार्टी को शांति के  अगुवा की भूमिका में ले आए।







स्वतंत्र पत्रकार व राजनीतिक- सामाजिक कार्यकर्ता. फिलहाल मजदूर आन्दोलन पर कुछ जरुरी लेखन में व्यस्त.








क्या माओवादी क्रांति की उल्टी गिनती शुरू हो गयी है?

समकालीन तीसरी दुनिया के अप्रैल अंक में छपे लेख में आनंद स्वरुप वर्मा ने नेपाली माओवादी पार्टी के नेतृत्व के बीच जारी अंतर्विरोधों और असहमतियों पर तीखी  टिप्पणी की है. इस टिप्पणी के जरिये उन्होंने नेपाल के मौजूदा राजनीतिक हालात और चुनौतियों  का भी जायजा लिया है. उन्होंने नेपाल की माओवादी पार्टी के उपाध्यक्ष और पार्टी में तीसरी लाइन के समर्थक किरण वैद्य की समझ को व्यावहारिक नहीं माना है.  आनंद स्वरुप वर्मा नेपाल मामलों के महत्वपूर्ण लेखक  हैं इसलिए उनकी इस राय पर पक्ष-विपक्ष उभर आया है.इसी के मद्देनजर जनज्वार नेपाल के राजनीतिक हालात पर बहस आमंत्रित करता है... मॉडरेटर


आनंद स्वरूप वर्मा

क्या 13 फरवरी 1996 को नेपाल में  जिस जनयुद्ध  की शुरुआत हुई थी और जिसने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अत्यंत विपरीत परिस्थितियों के बावजूद साम्राज्यवाद और सामंतवाद को चुनौती देते हुए राजतंत्र को समाप्त किया था,उसके अवसान की घड़ी नजदीक आती जा रही है?  यह आंदोलन कई पड़ावों से गुजरते हुए अपने नेता को देश के प्रधानमंत्री पद तक पहुंचा सका और यही इसकी सबसे बड़ी उपलब्धि  रही। जिन लक्ष्यों को प्राप्त करने के मकसद से इसे शुरू किया गया था उन लक्ष्यों की दूरी लगातार बढ़ती गयी और उस लक्ष्य की दिशा में चलने वाले अपने आंतरिक कारणों से कमजोर और असहाय होते गए।

कोई भी क्रांति कभी भी सफल या असफल हो सकती है,कोई भी आंदोलन कभी भी ऊपर या नीचे जा सकता है लेकिन जिन कारणों से यह आंदोलन अपने अवसान की तरफ बढ़ रहा है वह सचमुच बहुत दुःखद है। इसने नेपाल की सामाजिक संरचना में आमूल परिवर्तन को अपना लक्ष्य निर्धारित  किया था। इसने 10 वर्षों के सशस्त्र संघर्ष के जरिए ग्रामीण क्षेत्रों में सामंतवाद को काफी कमजोर किया और फिर शहरी क्षेत्रों के मध्य वर्ग को आकर्षित करने में इसकी एक महत्वपूर्ण भूमिका रही। एक समय ऐसा भी महसूस हुआ कि इसने अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्यवाद को जो चुनौती दी उसके कुछ सकारात्मक नतीजे निकले और इन नतीजों के रूप में पड़ोसी देश भारत को काफी हद तक इसने तटस्थ बनाया। चूंकि जनयुद्ध  वाले वर्षों में नेपाल को लक्ष्य कर अमेरिका की ज्यादातर गतिविधियाँ  भारत के माध्यम से संचालित होती थीं इसलिए आगे भी भारत की ओर से व्यवधान पैदा होने का खतरा बना रहता था। लेकिन प्रचण्ड के प्रधानमंत्री  बनने और उसके बाद के कुछ महीनों तक की घटनाओं के देखने से लगता है कि भारत ने इसे नियति मानते हुए स्वीकार कर लिया था।

नेपाल के  सेनाध्यक्ष कटवाल के हटाए जाने के प्रसंग के बाद भारत को इस बात का मौका मिला कि वह बहुत खुले ढंग से हस्तक्षेप कर सके और उसने किया भी। अपने राजदूत राकेश सूद के जरिए उसने वह सब किया जिससे सामाजिक संरचना में आमूल बदलाव वाली ताकतें कमजोर हों। ऐसा भारत इसलिए कर सका क्योंकि उन ताकतों के अंदर वैचारिक धरातल पर लंबे समय से जो बहस चल रही थी और जिसे बहुत सकारात्मक ढंग से लिया जा रहा था उसमें विकृतियां आती गयीं और इस बहस पर विचारधरा की जगह व्यक्तिगत अहं,निहित स्वार्थ,नेतृत्व की होड़,निम्न स्तर की गुटबाजी,पार्टी में प्राधिकार  का सवाल,पार्टी के आर्थिक स्रोतों पर कब्जे की होड़ जैसी वह सारी खामियां हावी होती गयीं जो बुर्जुआ राजनीति का अभिन्न अंग हैं। शुरू के दिनों में इस क्रांति के उन शुभचिंतकों ने जो नेपाल के अंदर और नेपाल के बाहर हैं, यह माना कि ये खामियां कार्यकर्ताओं के दबाव से स्वतः दूर हो जाएंगी क्योंकि पार्टी का संघर्ष का एक शानदार इतिहास है।

आज स्थिति यह है कि हर मोर्चे पर पार्टी की विफलता उजागर हो रही है। संविधन बनाने का इसका लक्ष्य कोसों दूर चला गया है। मजदूर मोर्चे पर लम्बे समय तक अलग-अलग गुटों में अपना वर्चस्व कायम करने के लिए मार-काट मची रही। वाईसीएल टूट के कगार पर है। सांस्कृतिक मोर्चे पर विभ्रम की स्थिति है। शीर्ष नेतृत्व पर आर्थिक भ्रष्टाचार के आरोप लगाए जा रहे हैं। ध्यान देने की बात है कि ये आरोप शत्रुपक्ष  की ओर से नहीं बल्कि खुद पार्टी के अंदर से सामने आ रहे हैं इसलिए इसे इतनी आसानी से खारिज नहीं किया जा सकता।

नेतृत्व मुख्य रूप से तीन गुटों में बंट चुका है। कम से कम बाहरी दुनिया को तो यही जानकारी मिल रही है। इसे आप पूरी तरह बुर्जुआ दुष्प्रचार कहकर खारिज नहीं कर सकते। अब यह एक यथार्थ बन चुका है। प्रचण्ड,बाबूराम भट्टराई और किरण के तीन गुट साफ तौर पर देखे जा सकते हैं। गोरखा प्लेनम के बाद से लेकर अब तक केन्द्रीय समिति अथवा स्थायी समिति की जितनी भी बैठकें हुई हैं उनमें बस एक ही निर्णय स्थायी रूप ले सका है कि पार्टी कि एकता बरकरार रहेगी और इसके टूटने का कोई खतरा नहीं है। एक क्रांतिकारी पार्टी के लिए इससे ज्यादा शर्मनाक स्थिति क्या होगी की हर बार 20-30घंटे की बैठक के बाद इसी निष्कर्ष तक पहुंचा जाए कि पार्टी की एकता बनी रहेगी।

भारत हो या नेपाल इन दोनों देशों की जनता में काफी सहनशीलता है। यहां तक तो दोनों देशों के बीच एक समानता है लेकिन भारत के विपरीत नेपाल में एक बार अगर किसी के विरुद्ध लहर चल पड़ी तो उसे रोकना मुश्किल होता है। मुझे लगता है कि यह स्थिति पर्वतीय क्षेत्र के लोगों के मनोविज्ञान में कहीं समायी हुई है। क्योंकि भारत के भी उत्तराखंड में हमें इस तरह की स्थिति का आभास होता है। माओवादी नेताओं को भी इसका आभास जरूर होगा क्योंकि अपनी जनता की मानसिकता को उनसे बेहतर कोई नहीं समझ सकता।

पार्टी का कैडर पूरी तरह कंफ्यूज्ड है। नेताओं के वक्तव्यों में एक चालाकी है जिसे अब धीरे-धीरे  पार्टी कार्यकर्ता समझने लगा है। प्रचण्ड क्या चाहते हैं-शांति प्रक्रिया को पूरा करना या विद्रोह में जाना यह अभी तक स्पष्ट नहीं हो पा रहा है। जहां तक बाबूराम और किरण का सवाल है उनकी लाइन बहुत साफ है। बाबूराम का कहना है कि अब तक जो उपलब्धियां  हो चुकी हैं उन्हें ठोस रूप देने में सारी उर्जा लगायी जाए और इसे संपन्न करने के लिए संविधान निर्माण की प्रक्रिया को तेज किया जाए। हालांकि इसी प्रक्रिया को तेज करने के मकसद से जब झलनाथ खनाल को प्रचण्ड ने समर्थन दिया ताकि लंबे समय से चला आ रहा गतिरोध समाप्त हो तो बाबूराम भट्टराई और उनके साथी नाराज हो गए। किरण का कहना है कि संविधान निर्माण में हम अपनी उर्जा नष्ट न करें क्योंकि संविधन सभा की मौजूदा संरचना को देखते हुए पूरी तरह जनपक्षीय संविधन का बनना असंभव है लिहाजा हम विद्रोह में जाने की तैयारी करें।

किरण जी को न जाने कैसे अभी भी ऐसा महसूस होता है कि इतने सारे विचलनों के बावजूद पार्टी कार्यकर्ता और आम जनता उनके आह्वान पर विद्रोह के लिए उठ खड़ी होगी। उनके पास इन सवालों का भी कोई जवाब नहीं है कि अगर ऐसा ही था तो पार्टी ने 2006में शांति समझौता क्यों किया, संविधान सभा के चुनाव में क्यों हिस्सा लिया और फिर  देश का नेतृत्व संभालने की जिम्मेदारी क्यों ली। क्यों नहीं अप्रैल 2006 में जन आंदोलन-2 के बाद ही नारायणहिती पर कब्जा कर, ज्ञानेन्द्र को महल से खदेड़ कर या उनका सफाया कर अपना झंडा लहरा दिया। किसने आपको रोका था एक और पेरिस कम्यून बनने से?  क्या आपने यह सोचकर चुनाव में हिस्सा लिया था कि आपकी पार्टी पूरी तरह हार जाएगी और आप फिर  बंदूकें लेकर जंगलों में चले जाएंगे? अगर आपकी पार्टी देश की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर कर आयी तो नेतृत्व की जिम्मेदारी संभालने से आप कैसे बचते! क्रांतिकारी नारे देना और व्यावहारिक राजनीति से रू-ब-रू होना बहुत टेढ़ा काम है। आपको तय करना होगा कि आप दरअसल क्या चाहते हैं।

आज प्रचण्ड के सामने भी यही सबसे बड़ा सवाल है। एक तरफ तो आप यह कहते हैं कि शांति प्रक्रिया को पूरा करना है, संविधान बनाना है,संविधान बनाने के लिए ही जनता ने इतनी बड़ी कुर्बानी दी,संविधान बनाने का नारा हमारा नारा था आदि-आदि और दूसरी तरफ कार्यकर्ताओं की आंतरिक बैठकों में विद्रोह की बात करते हैं। क्या यह क्रांतिकारी लफ्फाजी नहीं है?क्या यह अपने कार्यकर्ताओं को धेखे में रखना नहीं है? आप से बेहतर कौन इस सच्चाई को जानता होगा कि 2006 और 2011 में आपके पीएलए,वाईसीएल और सामान्य कार्यकर्ताओं की जो आत्मगत तैयारी थी वह आज 60 प्रतिशत से भी ज्यादा कम हो चुकी है।

ऐसे में जब आप विद्रोह की बात कहते हैं तो क्या यह महज एक लोक-लुभावना नारा पॉपुलिस्ट स्लोगन नहीं हो जाता? मान्यवर, आपको भी पता है कि आज विद्रोह की परिस्थितियां नहीं हैं और पार्टी को हर हाल में शांति प्रक्रिया को आगे बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए। इस लिहाज से देखें तो बाबूराम की लाइन और आपकी लाइन में कोई फर्क नहीं है लेकिन इन्हीं बातों के लिए आपके लोग बाबूराम की लाइन की बाल की खाल उधेड़ते  हुए  भारतीय विस्तारवाद का समर्थक  घोषित कर देते हैं और क्रांतिकारी नारे देने वाले क्रांति समर्थक हो जाते हैं। नारों के आधार   पर निष्ठाएं तय हो रही हैं।

आपको साहस से यह कहना होगा कि किरण जी,आप एक यूटोपिया में जी रहे हैं और यथार्थ से बहुत दूर हैं। नेपाल का यथार्थ आज यही है कि किसी भी तरह संविधन निर्माण का काम पूरा किया जाए और एक दुष्चक्र में फंसी राजनीति को आगे बढ़ाया जाए। आप अपनी हर खामियों के लिए कब तक भारत को दोषी ठहराते रहेंगे। कल तो राकेश सूद चला जाएगा और एक नया राजदूत आपके यहां पहुंच जाएगा। जो भी पहुंचेगा वह कम से कम उतना बेइमान तो नहीं होगा जितना राकेश सूद था। शरद यादव जैसे नेताओं ने लगातार मनमोहन सिंह और शिवशंकर मेनन से संवाद स्थापित कर उन्हें इस बात के लिए राजी किया है कि नेपाल की राजनीति में सबसे बड़ी पार्टी और सबसे ज्यादा समर्थन वाली पार्टी होने के नाते माओवादियों की उपेक्षा नहीं की जा सकती। बेशक, शरद यादव हों या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह,ये सभी लोग एक चाइना फोबिया से ग्रस्त हैं और इन्हें लगता है कि अगर माओवादियों को अलग-थलग रहने दिया गया तो वे चीन के करीब चले जाएंगे जो भारत के हित में नहीं होगा।

मैं खुद इस बात को नहीं मानता तो भी अगर इस विचार के कारण ही भारत सरकार एक संतुलित नजरिया अपनाती है तो इससे नेपाली जनता का हित ही होगा। ऐसी स्थिति में अगर माओवादियों की आपसी मारकाट, अहं की लड़ाई, पार्टी के अंदर सत्ता संघर्ष जारी रहा तो इस बदली हुई परिस्थिति का भी नेपाली जनता को कोई लाभ नहीं मिलने वाला है।



जनपक्षधर पत्रकारिता के महत्वपूर्ण स्तंभ और मासिक पत्रिका 'समकालीन तीसरी दुनिया' के संपादक. 




 

Apr 27, 2011

और भी हैं कलमाड़ी


जैसे भाजपा के  बंगारू लक्ष्मण राजनीतिक परिदृश्य से आज पूरी तरह ओझल हो चुके हैं,संभव है कलमाड़ी भी अब देश की राजनीति  के इतिहास का एक दर्दनाक अध्याय बनकर रह जाएं...

निर्मल रानी

भारतीय ओलंपिक संघ के पूर्व अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी को सीबीआई ने हिरासत में ले लिया है। दिल्ली स्थित सीबीआई की विशेष अदालत ने उन्हें 8 दिनों की रिमांड पर सीबीआई के सुपुर्द कर दिया है। हालांकि सीबीआई अर्थात् केंद्रीय गुप्तचर ब्यूरो ने कलमाड़ी के लिए तेरह दिन की रिमांड अदालत से तलब की थी, परंतु अदालत ने तेरह दिन के बजाए आठ दिन की ही रिमांड देना गवारा किया।

गौर करने वाली बात  है कि सुरेश कलमाड़ी अपने आप में कितनी बड़ी एवं कितनी शक्तिशाली राजनीतिक शख्सियत थे। वे भारतीय वायुसेना के एक सफल पायलट, पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी के विशेष कृपापात्र और कई बार सांसद तथा केंद्रीय मंत्री, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय खेल संगठनों से एक दशक से भी लंबे समय तक जुड़े रहे। यहां तक कि कलमाड़ी अपने राजनीतिक कैरियर के सबसे महत्वपूर्र्ण दौर में उस राष्ट्रमंडल खेल आयोजन समिति के अध्यक्ष बने,जिससे भारत की मान-प्रतिष्ठा जुड़ी हुई थी।
कलमाड़ी को गिरफ्तार कर अदालत ले जाती सीबीआई

याद कीजिए राष्ट्रमंडल खेल आयोजन से पूर्व तथा इसकी समाप्ति के पश्चात जब-जब सुरेश कलमाड़ी पर खेलों के आयोजन में आर्थिक घोटाला किए जाने का आरोप लगाया जाता अथवा उन पर संदेह किया जाता, उस समय कलमाड़ी साहब संदेहकर्ताओं अथवा मीडियाकर्मियों पर भडक़ उठते थे। एक बार तो कलमाड़ी ने यहां तक कह दिया था कि यदि मैं खेल संबंधी किसी घोटाले में अपराधी साबित हुआ तो मुझे फांसी पर लटका दिया जाए। शीघ्र ही देश की जनता को यह भी पता चल जाएगा कि कलमाड़ी की इस इच्छा को अदालत कुछ कानूनी संशोधनों के पश्चात ही सही, मगर क्या उसे पूरा कर सकती है?

सुरेश कलमाड़ी को  फिलहाल  सीबीआई ने जिस जुर्म के तहत गिरफ्तार किया है उसके अंतर्गत् उन्होंने स्विटज़रलैंड से टीएसआर मशीनों की अवैध तरीके से खरीद की थी। टीएसआर वे उपकरण होते हैं जो टाईम, स्कोर तथा रिज़ल्ट प्रदर्शित करते हैं। इन उपकरणों की खरीद के लिए पूरी तरह से पक्षपातपूर्ण तरीका अपनाया गया और 141 करोड़ रुपये का भुगतान टीएसआर मशीनों की आपूर्ति करने वाली स्विस कंपनी को बढ़े हुए मूल्य के साथ कर दिया गया।

इतना ही नहीं, इन उपकरणों की आपूर्ति के लिए अन्य कई कंपनियों द्वारा डाले गए टेंडर को भी अवैध रूप से सिर्फ इसलिए रोका गया, ताकि स्विटज़रलैंड की कंपनी विशेष को व्यक्तिगत् तौर पर लाभ पहुंचाया जा सके। इस मामले के अतिरिक्त सुरेश कलमाड़ी एक दूसरे आरोप में भी फंसते दिखाई दे रहे हैं। सीबीआई शीघ्र ही क्वीन बेटन रिले के आयोजन के समय लंदन में अत्यघिक दामों पर गाड़ियाँ किराए पर लेने के मामले की गहन तहकीक़ात कर रही है।

इस मामले में भी बिना किसी टेंडर अथवा एग्रीमेंट हस्ताक्षर किए हुए एएम फिल्मस तथा एएम कार एंड वैन हायर लिमिटेड को लंदन में आयोजन का काम सौंप दिया गया था। आरोप है कि इस अवैध कांट्रेक्ट में भी जमकर घोर अनियमितताएं बरती गईं तथा क्वींस बेटन रिले आयोजन के लिए अत्यंत मंहगे रेट पर कारों तथा वैन के किराए का भुगतान किया गया।

राष्ट्रमंडल खेल आयोजन से पूर्व ही इस बात की चर्चा ज़ोर पकड़ चुकी थी कि देश में पहली बार आयोजित होने जा रहे अंतर्राष्ट्रीय स्तर के अब तक के इस सबसे बड़े एवं महत्वपूर्ण आयोजन में घोर आर्थिक अनियमितताएं बरती जा रही हैं। मगर अपनी बेवजह की ‘दीदा-दिलेरी’का इस्तेमाल करते हुए सुरेश कलमाड़ी अपने आपको पाक-साफ बताने की लगातार कोशिश करते रहे। सीबीआई के उन पर लगातार शिकंजा कसते जाने के बाद आखिरकार ऐसी स्थिति बनती दिखाई देने लगी कि लाख कोशिशों, सिफारिशों तथा झूठ बोलने के बावजूद अब कलमाड़ी बच नहीं सकेंगे।

भारतीय ओलंपिक एसोसिएशन के महानिदेशक वीके वर्मा तथा संघ के महासचिव ललित भनोट को सीबीआई पहले ही गिरफ्तार कर चुकी है। आखिरकार सीबीआई के इस कसते शिकंजे के कारण उन्हें खेल मंत्रालय द्वारा भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष पद से हटाना ही पड़ा। यहां एक बात यह भी गौरतलब है कि सुरेश कलमाड़ी अब तक तीन बार सीबीआई के समक्ष पेश हुए। पेशी के दौरान हर बार उन्होंने अपने ऊपर लगने वाले सभी आरोपों को ख़ारिज किया। झूठ का सहारा लेते हुए उन्होंने हर बार सीबीआई को गुमराह करने की कोशिश की, परंतु एक सच को छुपाने के लिए सौ झूठ का सहारा लेना आखिरकार उन्हें महंगा पड़ा।

कांग्रेस कलमाड़ी को पार्टी की सदस्यता से निष्कासित कर चुकी है। साथ ही साथ उन्हें भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष पद से भी हटाया जा चुका है। राष्ट्रमंडल खेल से जुड़े महाघोटाले के संबंध में यह अब तक की सबसे विशिष्ट व्यक्ति की गिरफ्तारी मानी जा रही है। इस बात की पूरी उम्मीद है कि सीबीआई कलमाड़ी की रिमांड के दौरान उनसे की गई पूछताछ के आधार पर देश में और भी कई गिरफ्तारियां कर सकती है तथा कई और बड़े चेहरों के नाम उजागर हो सकते हैं।

कलमाड़ी की गिरफ्तारी के बाद एक बार फिर आम आदमी यह सोचने पर मजबूर हो गया है कि क्या देश के इन तथाकथित कर्णधारों,कानून निर्माताओं तथा उच्च पदों पर बैठे लोगों को देश की मान-प्रतिष्ठा का कोई ध्यान नहीं रह गया है?

कितने अफसोस और शर्म की बात है कि लंदन से लेकर नई दिल्ली तक जो व्यक्ति राष्ट्रमंडल खेलों की मशाल हाथों में लहराता हुआ देश का प्रतिनिधित्व करता दिखाई दे रहा था,जो व्यक्ति कल तक खेलों के मुख्य अतिथि भारतीय राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल,प्रिंस चार्ल्स तथा उनकी पत्नी कैमिला पार्कर के समक्ष भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष के रूप में कार्यक्रम के भव्य एवं रंगारंग उद्घाटन समारोह में अपने जलवे बड़ी बेबाकी के साथ बिखेर रहा था, वही ‘सूरमा’ आज सलाखों के पीछे पहुंच चुका है।

हमारे देश में किसी संगठन के मुखिया के रूप में कलमाड़ी को दूसरे कलंक के रूप में देखा जा सकता है। इसके पूर्व राजनीतिक संगठन भाजपा के एक प्रमुख बंगारू लक्ष्मण को रिश्वत की नोटों के बंडल हाथों में लेते हुए एक स्टिंग ऑपरेशनके दौरान पकड़ा गया था। उम्मीद की जा सकती है कि जिस प्रकार बंगारू लक्ष्मण राजनीतिक परिदृश्य से आज पूरी तरह ओझल हो चुके हैं, उसी प्रकार कलमाड़ी भी अब देश की राजनीति एवं घपलों-घोटालों के इतिहास का एक दर्दनाक अध्याय बनकर रह जाएंगे।

इस पूरे घटनाक्रम में एक बात और भी ध्यान देने योग्य है कि मौजूदा विपक्षी दल विशेषकर भारतीय जनता पार्टी सीबीआई को क्राइम ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन कहने के बजाए कांग्रेस ब्यूरो ऑफ इंवेस्टीगेशन के नाम से संबोधित किया करती थी। जब-जब सीबीआई ने किसी भाजपाई नेता पर शिकंजा कसा, तब-तब भाजपाई नेता यही चिल्ल-पौं करते दिखाई दिए कि सीबीआई कांग्रेस पार्टी के संगठन जैसा व्यवहार करती है तथा सरकार के दबाव में रहकर काम करती है आदि। सीबीआई को संदेह की नज़रों से देखने वाले यही विपक्षी नेता यह बात भी अच्छी तरह जानते हैं कि सुरेश कलमाड़ी की राजनीतिक पहुंच कहां तक थी। फिर कलमाड़ी मुद्दे पर सीबीआई सरकार और कांग्रेस के दबाव में आखिर क्योंकर नहीं आई?

बहरहाल,कलमाड़ी की तमाम रक्षात्मक कोशिशों और उपायों के बावजूद उन्हें उनके उस ठिकाने पर पहुंचा दिया गया है जिसके वह वास्तविक अधिकारी थे। अदालत में जाते-जाते आम जनता के क्रोध के प्रतीकस्वरूप उन पर एक उत्साही नवयुवक द्वारा चप्पल फेंककर भी उन्हें तथा देश के सभी घोटालेबाज़ों को यह संदेश दे दिया गया है कि सिंहासन पर कब्ज़ा जमाए बैठे भ्रष्टाचारियो, तुम्हारी जगह दरअसल जेल और हवालात की सीख़चों के पीछे है,न कि पांच सितारा स्तरीय महलों, कार्यालयों अथवा होटलों में।

चप्पल के माध्यम से भी शायद यही संदेश दिया गया है कि 'ऐ देश की गरीब जनता की खून-पसीने की कमाई को बेदर्दी से लूटने वाले ढोंगी समाज सेवियों तथा राजनेतारूपी पाखंडियों तुम पुष्पवर्षा तथा फूलमाला के पात्र नहीं, बल्कि जूते,चप्पल,सड़े टमाटर और सड़े अंडों से स्वागत करने के ही योग्य हो।

आशा की जानी चाहिए कि सुरेश कलमाड़ी जैसे दिग्गज की गिरफ्तारी के बाद शीघ्र ही देश के अन्य कई तथाकथित वीआईपी लोगों के हाथों में भी हथकडिय़ां लगी दिखाई देंगी। चाहे वे राष्ट्रमंडल खेल घोटाले से जुड़े हुए घोटालेबाज़ हों या 2जी स्पेक्ट्रम से संबंधित लुटेरे। हालांकि ऐसी खबरें देश की जनता को विचलित ज़रूर करती हैं, मगर भ्रष्टाचार को देश से जड़ से उखाड़ फेंकने की दिशा में ऐसी गिरफ्तारियों को एक सकारात्मक कदम तथा शुभ संकेत माना जा सकता है।


लेखिका उपभोक्ता मामलों की विशेषज्ञ हैं और सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर भी लिखती हैं. इनसे mailto:nirmalrani@gmail.कॉम पर संपर्क किया जा सकता है.





Apr 26, 2011

चाटुकार नौकरशाहों को चांदी का चम्मच


बड़े अफसरों का अधिकतर समय समाजसेवा और डयूटी निभाने की बजाए चमचागिरी,चरण वन्दना,गणेश परिक्रमा और जूते चमकाने में बीतता है। ऐसे में अपनी जिम्मेदारी पूरी करने वाले अधिकारी व्यवस्था की आंख में चुभते हैं...

आशीष वशिष्ठ  

कुछ दिन पहले मीडिया में उत्तर प्रदेश  के एक पुलिस आफिसर को मुख्यमंत्री मायावती के जूते साफ करते देखा गया था। ऐसा करने वाले वाले अफसर पद्म सिंह थे। विपक्षी दलों ने सीएम के इस कृत्य को सामंतवाद की संज्ञा दी और खूब हो-हल्ला मचाया, तो वहीं सरकारी नुमांइदों ने सुरक्षा का वास्ता देकर पद्म सिंह के कृत्य को जायज ठहराया। दो-चार दिन की चर्चा और तकरार के बाद मामला रफा-दफा हो गया,लेकिन पद्म सिंह ने जो कुछ भी किया वो अपने पीछे कई अनुत्तरित प्रश्न जरूर छोड़ गया। 

 सोनावणे  : ईमानदारी के हवाले हुई जिंदगी
असल में देखा जाए तो पद्म सिंह ने चाटुकारिता के क्षेत्र में बहादुरी दिखाई और मैडम मायावती का जूता चमकाने में गुरेज नहीं किया, लेकिन देश के दूसरे जितने भी पद्म सिंह हैं उनमें इतनी हिम्मत नहीं है कि वो अपने मालिकों, सरपरस्तों और आकाओं के सरेआम जूते साफ कर पाएं। सही मायनों में देखा जाए तो देश में सारी व्यवस्था का “पद्मीकरण” हो चुका है और ईमानदार, कर्मठ, सच्चे तथा जनता के दुःख-दर्द को समझने वाले नौकरशाहों को धेले बराबर भी महत्व नहीं दिया जाता है।

इनमें पहला नाम एसपी अमिताभ ठाकुर का है। अमिताभ 1992बैच उत्तर प्रदेश काडर के आईपीएस अधिकारी हैं और वर्तमान में मेरठ जनपद में एसपी आर्थिक अपराध शाखा (ईओडब्लू) में तैनात हैं। 19 साल की नौकरी में लगभग 10 जिलों में एसपी के अलावा विजीलेंस, इंटेलिजेंस, सीबी-सीआईडी और पुलिस प्रशिक्षण आदि में अपनी सेवाएं दे चुके अमिताभ की गिनती प्रदेश के कर्मठ, ईमानदार, सच्चे, जनपक्ष को तरजीह देने वाले अधिकारियों में होती हैं। लेकिन राजनीतिक आकाओं की हां में हां, न मिलाने के कारण आज 19 साल की नौकरी के बाद भी अमिताभ एसपी ही हैं।

ईमानदार अधिकारियों की इसी कड़ी में अगला नाम 2002 बैच के भारतीय वन सेवा के हरियाणा कैडर के संजीव चतुर्वेदी का है। आईएफएस संजीव चतुर्वेदी ने जब हरियाणा वन विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार की परतें खोलनी शुरू की तो उन पर विभागीय और राजनीतिक हमला शुरू हो गया। परिणाम के तौर पर उन्हें चार साल की नौकरी में ग्यारह बार ट्रांसफर भुगतना पड़ा। इतने के बाद भी सरकार और भ्रष्ट आला अधिकारियों का मन नहीं भरा तो अनाप-शनाप,आधारहीन और तथ्यहीन आरोप लगाकर संजीव को संस्पेंड करके ही दम लिया। संजीव का अपराध इतना ही था कि जिस भी जिले में उनकी नियुक्ति हुई,वहां भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे वन विभाग की असलियत सामने लाने का उन्होंने हर बार साहस किया।

आखिरकार अपने को सही साबित करने के लिए आइएफएस संजीव चतुर्वेदी को अदालत का सहारा लेना पड़ा, जिसके बाद संजीव को पुनः सेवा में बहाल हो पाए। ये है हमारी व्यवस्था- जहां ईमानदारी, निष्पक्षता, सच्चाई, समाजसेवा और राष्ट्रप्रेम की कसमें तो बहुत खाई और खिलाई जाती हैं, लेकिन जब कोई शख्स इस रास्ते पर चलने का प्रयास करता है तो भ्रष्ट, बईमान, कामचोर, और नियमों का उल्लघंन करने वालों की फौज उसके कदम-कदम पर कांटे बिछाने और परेशान करने में जुट जाती है।

अमिताभ और संजीव की भांति ही सच्चाई,ईमानदारी, कर्तव्यपरायण और जन का पक्ष लेने वाले कई अधिकारी और कर्मचारी साइड लाइन लगा दिये जाते हैं। पिछले वर्ष बरेली,उत्तर प्रदेश में एसपी ट्रेफिक के पद पर तैनात 1990बैच की पीसीएस अधिकारी कल्पना सक्सेना को सूचना मिली की उनके मातहत पुलिसकर्मी ट्रक वालों से अवैध वसूली कर रहे हैं तो उन्हें रंगे हाथों पकड़ने पहुंची। वह भ्रष्ट  पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्यवाई करतीं, उससे पहले ही उनके मातहतों ने जीप के साथ एक-डेढ़ किलोमीटर उन्हें घसीट डाला। बुरी तरह से घायल और चोटिल कल्पना को अस्पताल में भर्ती करवाया गया और कार्रवाई के तौर पर पांच पुलिसवालों को संस्पेंड कर दिया गया।

आनंद मोहन और लवली आनंद : कृष्णैया के हत्यारे   
कल्पना जैसे इमानदार और साहसी पुलिस वालों की गिनती उंगुलियों पर की जा सकती है। ऐसे ही एक अधिकारी थे आईएएस जी.कृष्णैया। बिहार कैडर के 1985 बैच के आइएएस रहे जी. कृष्णैया की 5 दिसंबर 1994 को आनंद मोहन के गुंडों ने सरेआम हत्या कर दी थी। कृष्णैया ने प्रदर्शन  और जुलूस  निकाल रही भीड़ जिसका नेतृत्व आंनद मोहन सिंह और उनकी पत्नी लवली आनंद सिंह कर रही थी, को रोकने का प्रयास किया था। तत्कालीन बीपीपी के नेता और माफिया आनंद मोहन सिंह को ये बात नागवार गुजरी और उन्होंने ईमानदारी से अपनी डयूटी निभा रहे युवा अधिकारी को मरवा डाला।

महाराष्ट्र के नासिक जिले के एडीएम यशवंत सोनावणे ने तेल माफियाओं पर नकेल डालने की कोशिश की तो भ्रष्ट व्यवस्था और तेल माफियाओं के गठजोड़ ने सोनावणे को जिंदा जलाकर मार डाला। सोनावणे की तरह वर्ष 2005 में इंडियन आयल कारपोरेशन के युवा, कर्मठ और ईमानदार ब्रिकी अधिकारी मंजूनाथ की भी हत्या मिलावटखोर पैट्रोल पंप मालिक और उसके गुर्गों ने कर दी थी। वर्ष 2003 में नेशनल हाइवे अथॉरिटी आफ इण्डिया के इंजीनियर सत्येन्द्र नाथ दुबे की भी हत्या नेताओं और माफियाओं के गठजोड़ ने की थी।

असल में जो भी अधिकारी या कर्मचारी ईमानदारी से अपने कामों को करता है,वह भ्रष्ट व्यवस्था की आंखों की किरकिरी बन जाता है। वर्ष 1994बैच के उत्तर प्रदेश के पीसीएस अधिकारी शैलेन्द्र सिंह ने अपने पद से भ्रष्टाचार के इसी मकड़जाल से आजिज होकर इस्तीफा दे दिया था। वर्ष 2004 में शैलेन्द्र सिंह की नियुक्ति वाराणसी में एसटीएफ यूनिट के हेड के तौर पर हुई थी। सेना से एलएमजी चोरी और उसे पूर्वांचल के अपराधियों को बेचे जाने के कांड का भंडाफोड़ करना ही ईमानदार और कर्मठ शैलेन्द्र सिंह के नौकरी छोड़ने का कारण बना।

प्रदेश सरकार से लेकर मीडिया तक सभी को भलीभांति मालूम था कि इस कांड में मऊ के तत्कालीन विधायक का हाथ है। शैलेन्द्र ने अपनी जांच रिपोर्ट में विधायक पर पोटा लगाने की सिफारिश की थी। तमाम सुबूतों के बावजूद सरकार ने शैलेन्द्र पर दबाव डालना शुरू कर दिया और वाराणसी की एसटीएफ यूनिट को ही बंद कर दिया। लेकिन उसूल के पक्के,ईमानदार और आत्म सम्मान के लिए जीने वाले शैलेन्द्र ने राजनीतिक व्यवस्था और भ्रष्टाचार से क्षुब्ध होकर अपना इस्तीफा राज्यपाल को सौंप दिया।

आज बड़े अफसरों का अधिकतर समय समाजसेवा और डयूटी निभाने की बजाए चमचागिरी,चरण वन्दना,गणेश परिक्रमा और जूते चमकाने में ही बीतता है। ऐसे में टीएन शेषन,जीआर खैरनार, किरण बेदी, आरवी कृष्णा, अमिताभ ठाकुर, कल्पना सक्सेना, संजीव चतुर्वेदी, मंजूनाथ, यशवंत सोनावणे, शैलेन्द्र सिंह, सत्येन्द्र दुबे, जी. कृष्णैया और उन जैसे दूसरे अधिकारी शुरू से ही व्यवस्था की आंखों में चुभते रहे हैं।

भ्रष्टाचार में लिप्त रहे अखंड प्रताप सिंह, नीरा यादव, गौतम गोस्वामी, अरविन्द जोशी, टीनू जोशी आदि जैसे दूसरे सैकड़ों अधिकारी व्यवस्था की आंखों के तारे हैं। सत्ता के शीर्ष पर बैठे तथाकथित माननीय यही चाहते हैं कि वो जो कुछ भी करें कार्यपालिका उनके कर्मों में बराबर की भागीदार बने और उनके कुकृत्यों में शामिल रहे। और जो गिने-चुने व्यवस्था या लीक से हटकर चलने की कोशिश करते हैं, उनका बोरिया-बिस्तर हमेशा बंधा ही रहता है या फिर उनका समय संस्पेंशन में बीतता है।



लखनऊ के रहने  वाले आशीष वशिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं और नौकरशाहों से जुड़े मसलों पर लिखते हैं.





Apr 25, 2011

बाघों के शिकार बनते ग्रामीण


वन क्षेत्रों में जो लोग जंगली जानवरों का शिकार हो रहे हैं उनकी सरकार नहीं सुन रही है। मीडिया भी चुप है क्योंकि सरकार और होटल-रेस्तरां मालिकों से विज्ञापन की टुकड़खोरी का सवाल है. इस हालात का जायजा ले रहे हैं रामनगर से...

सलीम मलिक  

उत्तराखंड  के राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 121 पर रामनगर से करीब 14 किमी दूर सड़क के किनारे बसे सुन्दरखाल गांव में पिछले 12 नवम्बर से बाघों के हमले में अबतक 8 लोग मारे जा चुके  हैं। पहले से ही बदहाली की जिंदगी गुजार रहे सुंदरखाल के ग्रामीण एशिया के पहले नेशनल पार्क 'जिम कार्बेट' के चलते आयी इस नयी मुसीबत से दो-चार होने को मजबूर  हैं। पूरी दुनियां में जहां बाघों की तादात तेजी से घट रही है,वहीं कार्बेट नेशनल पार्क में और  इससे सटे इलाकों में बाघों की संख्या बढ़ रही है।

पर्यटकों   के इस अत्याचार का रेस्तरां वाले विशेष पॅकेज लेते
पिछली बार हुई बाघों की गणना के नतीजे तो वन्यजीव प्रेमियों को इतने मुफीद लगे थे कि उन्होने कार्बेट पार्क के इस इलाके को ‘बाघों की राजधानी’ जैसा शानदार नाम देने से गुरेज नही किया था। बाघों की इस गणना से उत्साहित वन्यजीव प्रेमियों की पहली चिन्ता यहां मौजूद बाघों की सुरक्षा के लिये है। बाघ विशेषज्ञों की मानें तो इस इलाके में उपलब्ध शिकार की अच्छी संख्या के चलते एक बाघ को अपने स्वच्छंद विचरण के लिये करीब 20 किलोमीटर का इलाका चाहिये।

अपनी इस टेरेटरी में बाघ आमतौर पर दूसरे बाघ का हस्तक्षेप किसी भी हालत में स्वीकार नहीं करता। इलाके के वर्चस्व की इस लड़ाई में आमतौर पर बाघ आपस में ही भिड़ जाते हैं जिसमें से किसी के मैदान छोड़ने या प्रतिद्वंद्वी की मौत के बाद ही यह लड़ाई अपने मुकाम पर पहुंचती है। वैसे दिलचस्प बात यह है कि बाघ जहां अपने इलाके में दूसरे नर बाघ को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं कर सकता, वहीं वह दो या तीन मादा बाघिन को अपने हरम में रहने की इजाजत देता है।

बाघों की बढ़ती आबादी के चलते उन्हें पार्क के अंदर वह प्राकृतिक एवं  स्वच्छंद वातावरण नहीं मिल रहा है जिसके की वह प्राकृतिक रुप से आदी है। इस कारण अब जगह की तंगी के चलते बाघों ने जंगल से निकलकर आबादी का रुख करना आरम्भ कर दिया है। ऐसी हालत में बाघों के आदमी पर हमले की घटनाओं में अचानक तेजी आ गई है।

बाघों के हमले में मारे गए लोग, जिनके विवरण उपलब्ध हो पाए :-
12 मार्च 2011  को सुंदरखाल में एक विक्षिप्त व्यक्ति
26 जनवरी 2011 को मालधन का युवक पूरन चन्द्र जो की सुंदरखाल रिश्तेदारी में आया था
10 जनवरी 20011 को गर्जिया की शान्ति देवी
31 दिसम्बर 2010 को सुंदरखाल देवीचौड़ की देवकी देवी
18 नवम्बर 2010 को चुकुम गांव की कल्पना देवी
12 नवम्बर 2010 को सुंदरखाल की ही नंदी देवी
फरवरी 2010 में सुंदरखाल की शान्ति देवी और ढिकुली निवासी भगवती देवी

पहले भी इस इलाके में बाघों का आदमी से आमना-सामना होता रहा है,लेकिन वह इतना कम था कि उसे अपवाद कहना ठीक होगा। लेकिन बीते साल  12नवम्बर को बाघ के हमले में मारी गई महिला के बाद तो इस क्षेत्र में बाघों के हमले बढ़ गये हैं। एक ही इलाके में बाघों के इन हमलों से जहां सुंदरखाल के ग्रामीण मौत के खौफ में जीने को अभिशप्त है,वहीं वन-विभाग से जुड़े अधिकारी भी परेशान हो गये है। इस साल की शुरुआत यानी 27जनवरी को बाघ के हमले में मारे गये युवक की मौत के बाद तो ग्रामीणों का गुस्सा वन-विभाग के प्रति अपने चरम पर था,जिसकी गम्भीरता को देखते हुये विभाग के अधिकारी तक मौके पर नहीं पहुंचे।

सिलसिलेवार हुई इन घटनाओं में हाल तक बाघ के हमले में अपनी जान गंवानें वालों की संख्या अधिकृत तौर पर आठ  हो चुकी है। अधिकृत इसलिये कि बाघ के हमले में मारे गये ग्रामीणों के बाद गांव वालों का ध्यान जब इस क्षेत्र में घुमने वाले विक्षिप्तों की ओर गया तो पता चला कि कई ऐसे विक्षिप्त लोग जो पहले क्षेत्र में ही घूमा करते थे,इन दिनों  दिखाई नहीं दे रहे हैं। ऐसे में गांव वालों का यह कहना भी है कि इस क्षेत्र के अनेक अज्ञात गायब विक्षिप्त भी बाघ का शिकार बन चुके हैं। विक्षिप्तों को लेकर कोई दावा नहीं करने वाला इसलिये उनके बारे में कोई शोर नहीं हुआ।

सुंदरखाल के ग्रामीण बीते चार दशकों से जंगलों पर ही आश्रित रहकर अपनी जिंदगी गुजार रहे हैं। गांव में चाय की दुकान चलाने वाले विशाल का कहना है कि ‘पहले गांव वाले अक्सर अकेले ही जंगल चले जाया करते थे। बाघ जंगल के रास्ते में मिल जाता था तो आदमी का रास्ता छोड़ झाड़ियों में दुबक जाता था। या बाघ शिकार खा रहा है तो फिर आदमी ही अपना रास्ता बदल लेते थे। आदमी और बाघ के बीच यह अनोखा तालमेल इतना मजबूत था कि इक्का-दुक्का की संख्या में जंगल जाने से भी बाघों के हमले की घटनायें अपवादस्वरूप हुआ करती थीं।

वह क्षेत्र जहाँ लोग बाघों का शिकार हो रहे हैं
इसके अलावा एक और खास बात यह थी कि यदि बाघ ने हमला कर भी दिया तो वह आदमी को खाता नहीं था। जिसका अर्थ है कि बाघ ने आदमी को अपने आहार के लिये नहीं मारा, बल्कि अपनी या अपने बच्चों की सुरक्षा के लिहाज से मारा। लेकिन अब इन ताजा घटनाओं में बाघ न केवल आदमी को मार रहा है, बल्कि उसे खा भी रहा है। इस बारे में बाघों के व्यवहार पर अध्ययन करने वालों की राय है कि जंगल में बढ़ रहा मानवीय हस्तक्षेप बाघों के व्यवहार में आ रहे परिवर्तन की मुख्य वजह है।

आमतौर पर शांत फिजाओं  का निवासी यह वन्यजीव अपने वासस्थल पर इंसानी दखल के चलते अपने प्राकृतिक व्यवहार से दूर होता जा रहा है। विशेषज्ञों की इस राय को आधार बनाकर वन महकमा जंगल में ग्रामीणों की आवाजाही को शत-प्रतिशत बंद करने पर तुला हुआ है, लेकिन कार्बेट नेशनल पार्क में सैलानियों के माध्यम से हो रही इंसानी घुसपैठ को रोकने या इसे नियंत्रित करने पर वन विभाग जोर नहीं देता है। कार्बेट नेशनल पार्क की स्थापना की प्लेटिनम जुबली के मौके पर यहां आयोजित अंतर्राष्ट्रीय टाइगर मीट में कार्बेट पार्क और कोसी नदी के बीच होने के चलते सुंदरखाल को ऐसा अवरोध माना गया जिसकी वजह से अपनी प्यास बुझाने के लिये पानी के पास जा रहे वन्यजीवों जीवों से आदमी का टकराव बढ़ रहा है।

लेकिन गर्जिया नदी के उत्तरी किनारे से ढिकुली के दक्षिणी हिस्से तक कुकरमुत्ते की तरह उग आये उन रिसोर्ट की कोई चर्चा नहीं हुई जिनके कारण लगभग पांच किमी की यह पट्टी पूरी तरह से कार्बेट पार्क और कोसी नदी के बीच ‘ग्रेट चाइना वाल’ बन गई है। इसके अलावा जंगल को नजदीक से जानने वाले विशेषज्ञों के अनुसार इस बार प्रदेश में आई आपदा के चलते पार्क के ढिकाला जोन में रामगंगा नदी में इतना मलवा आ गया है कि वहां पर ग्रासलैण्ड पूरी तरह से नष्ट हो गई है। ग्रासलैण्ड के अभाव में वहां से हिरन सहित घास पर जिंदा रहने वाली वन्यजीवों की वह प्रजाति जो कि बाघ का शिकार है, अपना स्थान बदल लिया है। जिसका सीधा असर वहां पर रहने वाले बाघों पर भी पड़ा है। इस मामले में ग्रामीणों का इन रिसोर्ट वालों के खिलाफ एक सीधा आरोप भी है।

ग्रामीणों के मुताबिक रिसोर्ट वाले अपने सैलानियों को बाघ की साइटिंग (दर्शन) कराने के लिये सड़क के किनारे कार्बेट पार्क के हिस्से में मांस के टुकड़े डालते हैं। जिस कारण यह बाघ मांस के लालच में यहां आ रहे हैं तथा मांस न मिलने के कारण जंगली शिकार के मुकाबले कहीं ज्यादा आसान शिकार आदमी को अपना निशाना बना रहे है। वन्यजीवों पर गहरा अध्ययन करने वाले सुमांतो घोष भी मानते है कि आदमी बाघ की आहार सूची में कभी भी शामिल नहीं रहा।


 दैनिक 'राष्ट्रीय सहारा' में रिपोर्टर , उनसे   maliksaleem732@gmail.com    पर संपर्क किया जा सकता है.

मिलिये मौलाना बिनायक सेन से


मैंने उनसे पूछा कि आपने ये हुलिया क्यों बनाया हुआ है कि लोग आपको मुसलमान समझते हैं? तो उनका जवाब था, दरअसल मैं मुसलमान की तरह इसलिए दिखना चाहता हूँ ताकि समझ सकूं कि हमारे अपने देश में अल्पसंख्यक होने का मर्म क्या होता है...

महताब आलम

पिछले शुक्रवार को सर्वोच्य न्यायालय ने देशद्रोह के आरोप में सजा काट रहे मशहूर नागरिक अधिकार कार्यकर्ता एवं चिकित्सक, डॉक्टर बिनायक सेन को ज़मानत पर रिहा करने का आदेश सुनाया है और वो सोमवार को रिहा भी हो गए हैं.उन पर आरोप है कि उन्होंने देश की सत्ता और संप्रभुता के खिलाफ माओवादियों के साथ मिलकर षडयंत्र रचा और राष्ट्रद्रोही गतिविधियों में शामिल रहे. इन्हीं सब आरोपों के आधार पर पिछले वर्ष दिसंबर में छत्तीसगढ़ की एक निचली अदालत ने उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी.

बीते तीन-चार वर्षों में डॉक्टर बिनायक सेन के बारे में बहुत कुछ लिखा और कहा गया है-- सकारात्मक और नकारात्मक दोनों. वर्ष 2007 के मई महीने में पहली बार गिरफ़्तारी के बाद मीडिया में विशेषकर 'मुख्यधारा' में जो चीजें आई वो ज़्यादातर नकारात्मक ही थी. लेकिन धीरे-धीरे ये सिलसिला रुका और सकारात्मक रूप लेने लगा. हाँ,ये और बात है कि छत्तीसगढ़ की मीडिया बिनायक को आज भी 'नक्सली डाकिया' ही मानती और लिखती है.

बिनायक के बारे में जो कुछ भी लिखा या कहा गया है उससे ये बात सामने उभरकर आती है कि डॉक्टर बिनायक सेन का  काम और उनकी सोच छत्तीसगढ़ या अविभाजित मध्य प्रदेश और आदिवासी समुदाय तक सीमित है.जो कि सरासर ग़लत है. ये सही है कि बिनायक छत्तीसगढ़ और वहां आदवासी समुदाय से प्रत्यक्ष रूप से जुड़े रहे हैं लेकिन उन्हें फ़िक्र सारी दुनिया की रहती थी, खासतौर पर शोषित और अल्पसंख्यक वर्गों की.

बिनायक सेन पर आई एक नयी किताब "ए डॉक्टर टु डीफेंड : दी स्टोरी आफ बिनायक" में इसका प्रमाण भी मिलता है. इस किताब में ऐसी कई घटनाओं का ज़िक्र मिलता है जिनसे न सिर्फ उनके राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय व्यक्तित्व का पता चलता है, बल्कि उनके व्यक्तिगत जीवन के कई अनकहे और अनसुने पहलू मालूम पड़ते हैं,जो बुनियादी तौर उनकी छोटी से छोटी चीज़ के लिए संवेदनशीलता एवं प्रतिबद्धता को दिखाते हैं.

ये महज़ इत्तेफाक नहीं था कि बिनायक स्वास्थ्य का काम करते-करते मानवाधिकार का काम करने लगे, बल्कि ये उन्होंने सोच-समझकर किया था. इस समझ का कारण वो ये बताते हैं कि बहुत कम उम्र में ही उनको पता चल गया था कि स्वास्थ्य की एक पॉलिटिकल इकॉनोमी भी होती है और उसको संबोधित किये बिना स्वास्थ्य के मसलों को हल नहीं किया जा सकता.

यही नहीं, उनके दाढ़ी बढाने और कुरता-पायजामा पहने का भी खास कारण था. उनके मित्र डॉक्टर योगेश दीवान बताते हैं कि एक बार वे बिनायक के साथ पुरुलिया जा रहे थे. दोनों सेकेण्ड क्लास डब्बे में सफ़र कर रहे थे. तभी एक सज्जन ने आकर बिनायक से पूछा- "मौलाना साहब, क्या टाइम हुआ है ?" डॉक्टर योगेश आगे कहते हैं, 'बाद में जब मैंने उनसे पूछा कि आपने ये हुलिया क्यों बनाया हुआ है कि लोग आपको मुसलमान समझते हैं? तो उनका जवाब था, ’दरअसल मैं मुसलमान की तरह इसलिए दिखना चाहता हूँ ताकि समझ सकूं कि हमारे अपने देश में अल्पसंख्यक होने का मर्म क्या होता है.'

अभी हाल की एक मुलाकात में उनकी पत्नी प्रोफेसर इलीना सेन ने मुझे बताया कि ’जब बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि का मामला जोरों पर था तो हम सपरिवार अयोध्या गए थे. वहां पहुँचने पर जब हमने अन्दर जाना चाहा तो सबको जाने दिया गया, लेकिन बिनायक को रोक दिया. जब हमने पूछा कि वो ऐसा क्यों कर रहे हैं? तो उनका जवाब था 'हम बेहतर जानते हैं कि किनको अन्दर जाने देना है और किनको नहीं.' मतलब ये था कि बिनायक अन्दर इसलिए नहीं जा सकते हैं क्योंकि वो 'मुसलमान' हैं!’

किताब में इस बात का भी उल्लेख है कि पिछली बार जब वो जेल में थे और ग़ाज़ा में निहत्थे फिलिस्तीनियों के मारे जाने की खबर रेडियो पर सुनते थे, तो वहां के हालात को छत्तीसगढ़ के हालात से जोड़कर देखते थे. मुझे ऐसा लगता है जब वो इस बार जेल में थे और अरब देशो में हो रहे परिवर्तन के बारे में उनको खबर मिलती रही होगी तो वे ज़रूर इस पर सोच रहे होंगे कि इसके सकारात्मक असर दक्षिण एशिया पर क्या और कैसे पड़ेंगे? मुझे याद है कि पिछले वर्ष अगस्त के महीने जब मेरी उनसे राउरकेला में एक कार्यकम में मुलाकात हुयी तो बहुत देर तक झारखण्ड के हालात के बारे में मालूम करते रहे. वो वहां के हालात को लेकर खासे चिंतित थे.

इस सोमवार कोजेल से रिहाई के बाद अपनी पहली प्रेस कॉन्फ़्रेंस में भी बिनायक ने ’शांति और न्याय’ के लिए लोगों को आगे आने का आह्वान किया. जेल से छूटते ही उनका पहला वाक्य था, “खुली हवा में सांस लेना अच्छा लग रहा है.” साथ ही उन्होंने यह भी आगाह किया कि भले ही ’राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय अभियानों और लोगों के सक्रिय समर्थन से वे रिहा हो गए हैं, लेकिन अभी भी छत्तीसगढ़ और देश के अन्य दूसरे हिस्सों में सैकड़ों-हज़ारों लोग उनकी ही तरह के फ़िल्मी और बेबुनियाद आरोपों के आधार पर क़ैद हैं, और हमें उन सभी लोगों की रिहाई के लिए इस अभियान के दायरे को बढ़ाना होगा.’

उपरोक्त तथ्य बिनायक की चिंताओं से रू-ब-रू तो कराते ही हैं, ये छत्तीसगढ़ सरकार के ’देशद्रोह’ के तुच्छ, वैमनस्य भरे और आपराधिक आरोपों की कलई भी खोलते हैं. जब बिनायक कहते हैं कि ’मैं अपने दिल से जानता हूं कि मैंने इस देश और देश की जनता के साथ कोई गद्दारी नहीं की’ तो उनकी इस बात पर अविश्वास करने के रत्ती भर भी कोई कारण नहीं है.अगर कोई सरकारों की ’आधिकारिक लाइन’ और उसके समर्थन में दी जाने वाली हास्यास्पद दलीलों का आलमबरदार हो तो तब की बात कुछ और है.


(लेखक  मानवाधिकार कार्यकर्ता एवं स्वतंत्र पत्रकार हैं. उनसे activist.journalist@gmail.com     पर संपर्क किया जा सकता है.)